एक बार फिर पाखंडी भारतीय बहुत खुश हैं। उन्हें लगता है कि कमला हैरिस के सं.रा.अमेरिका का उपराष्ट्रपति बनने के बाद भारतीय मूल का एक अन्य व्यक्ति वहां का राष्ट्रपति बन सकता है। इस व्यक्ति का नाम है विवेक रामास्वामी जो रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के संभावित उम्मीदवारों में डोनाल्ड ट्रम्प के बाद दूसरे स्थान पर बताये जा रहे हैं। उनके अलावा कुछ अन्य भारतीय भी इस उम्मीदवारी की दौड़ में हैं।
पाखंडी भारतीयों के अलावा, जो सोनिया गांधी को विदेशी मूल का होने के कारण रोज कोसते हैं, बाकी भारतीयों को इस बात पर अचरज हो सकता है कि भारत से अमेरिका गये भारतीय या उनके वंशज रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक कैसे हो सकते हैं? यह पार्टी आज भी श्वेत लोगों के वर्चस्व की समर्थक है तथा विदेशियों के खिलाफ नफरत का प्रचार करती है। ऐसे में काली या भूरी चमड़ी वाले भारतीय इस पार्टी के समर्थक कैसे हो सकते हैं? वे इस पार्टी में कैसे जा सकते हैं?
सच्चाई यही है कि परंपरागत तौर पर ज्यादातर भारतीय मूल के अमरीकी डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक रहे हैं। आज भी ज्यादातर ऐसा ही है। पर पिछले सालों में ऐसे भारतीयों की तादात वहां बढ़ी है जो रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक बन रहे हैं। यही वे लोग हैं जो वहां मोदी-मोदी के नारे लगाते हैं।
भारत से अमेरिका जाने वाले लोग ज्यादातर अच्छे पढ़े-लिखे होते हैं। बल्कि उनकी यही विशेषता उन्हें अमेरिका में प्रवेश करने में सक्षम बनाती है। जिसे लम्बे समय से ‘ब्रेन-ड्रेन’ कहा जाता रहा है वह इन्हीं के संदर्भ में है। इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक इत्यादि भारत से अच्छे संस्थानों में पढ़ने के बाद अमेरिका चले जाते रहे हैं।
इन लोगों की पृष्ठभूमि की बात की जाये तो ये ज्यादातर मध्यमवर्गीय सवर्ण होते हैं। उनकी यह पृष्ठभूमि उन्हें भारत में अच्छी शिक्षा पाने में तथा फिर अमेरिका पलायन कर जाने में सक्षम बनाती है।
अमेरिका के नस्ल भेदी समाज में इन भारतीयों को किसी हद तक रंग भेद का शिकार होना पड़ता है। हालांकि वे वहां मध्यम या उच्च वर्गीय समाज के हिस्से बनते हैं, फिर भी किसी न किसी रूप में उन्हें रंग भेद का शिकार होना पड़ता है। यह चीज उन्हें स्वाभाविक तौर पर डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थक बनाने की ओर ले जाती रही है।
पर पिछले सालों में भारत में जैसे-जैसे हिन्दू फासीवादियों का प्रभाव बढ़ा है वैसे-वैसे इसकी छाया अमेरिका में भी पड़ी है। इसी छाया के कारण ही संघी प्रधानमंत्री मोदी वहां जाकर ‘अबकी बार ट्रम्प सरकार’ का नारा लगा सकते हैं।
लेकिन यह सब स्वतः स्फूर्त ढंग से नहीं हो रहा है। बल्कि इसके पीछे हिन्दू फासीवादियों की सक्रिय भूमिका है। हिन्दू फासीवादी अमेरिका में भी पर्याप्त सक्रिय हैं। और यह सक्रियता कोई हाल की नहीं है। स्वयं नरेन्द्र मोदी गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से पहले अमेरिका का नियमित चक्कर लगाते रहते थे।
हिन्दू फासीवादियों के संगठित प्रयासों का परिणाम अब मुखर होकर सामने आ रहा है। वहां जाकर बसे भारतीयों की सवर्ण मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि इसमें उनकी मदद कर रही है। इनकी मुखरता इस हद तक बढ़ रही है कि वे वहां जातिगत भेदभाव और नस्ली भेदभाव के समर्थक के तौर पर सामने आ रहे हैं।
यही वे लोग हैं जो रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक हैं। इन्हीं में से कुछ इस पार्टी में शामिल हो रहे हैं। इन्हें भूरी चमड़ी का और विदेशी मूल का होने के बावजूद नस्ल भेदी रिपब्लिकन पार्टी में शामिल होने में कोई दिक्कत नहीं है।
इन्हीं को लेकर भारत के पाखंडी हिन्दू फासीवादी उत्साहित हैं कि उनमें से कोई अमेरिका का राष्ट्रपति बन जायेगा। उसके जरिये वे अमेरिका फतह कर लेंगे। ऐसे में यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि इन कूढमग्जों की किस बात पर हंसा जाय- उनके पाखंड पर, उनकी गुलाम मानसिकता पर यह फिर उनके राष्ट्रीय हीनता बोध पर?
बेगानी शादी में.....
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आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को