डॉलफिन मज़दूरों के आंदोलन के खिलाफ दुष्प्रचार में शामिल शासन प्रशासन और पूंजीवादी प्रचार तंत्र

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पंतनगर सिदकुल में स्थित डॉलफिन कम्पनी के मज़दूर 28 अगस्त से पारले चौक पर धरनारत हैं। ये मज़दूर फैक्टरी के अंदर स्थायी मज़दूरों को ठेकेदारी प्रथा के तहत रखे जाने का विरोध कर रहे हैं। इसके अलावा मज़दूरों की अन्य मांगें भी हैं जो श्रम कानूनों के दायरे में हैं जैसे कम्पनी के अंदर कैंटीन की व्यवस्था, टॉयलेट आदि की व्यवस्था। मज़दूरों के इस आंदोलन में अब शासन प्रशासन और पूंजीवादी प्रचारतंत्र भी पूरी तरह से शामिल हो गया है।

दिनांक 18 सितम्बर को पूंजीवादी मीडिया के एक अखबार दैनिक भाष्कर ने खबर छापी जिसमें डी एम के हवाले से कहा गया कि मज़दूर कम्पनी के गेट पर धरने पर बैठे हैं। जिससे उत्पादन में बाधा पैदा हो रही है। यही आरोप कम्पनी का प्रबंधन भी लगा रहा है। जबकी सच्चाई यह है कि मज़दूर कम्पनी गेट से करीब 400 मीटर दूर पारले चौक पर बैठे हैं। जो आरोप मज़दूरों पर लगाया जा रहा है वह उनके आंदोलन को समाज में बदनाम करने की एक साज़िश है।

इसके अलावा अखबार ने मज़दूर आंदोलनों के लिए बाहरी श्रमिक नेताओं को जिम्मेदार ठहराते हुए श्रमिकों को बरगलाने का भी इलज़ाम लगाया। और इन आंदोलनों को उत्तराखंड में निवेश के लिए बाधा के तौर पर जिम्मेदार ठहराया। साथ ही कम्पनियों के यहाँ से पलायन के लिए भी इन आंदोलनों को जिम्मेदार बताया।

शासन प्रशासन और पूंजीवादी प्रचारतंत्र का यह व्यवहार कोई नया नहीं है। पहले भी सिदकुल में मज़दूर आंदोलनों के लिए वे श्रमिक नेताओं को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं और उनको माओवादी, अर्बन नक्सल आदि कहकर उनके खिलाफ माहौल बनाते रहे हैं ताकि मज़दूरों को डराकर मज़दूरों को नेतृत्वविहीन कर उनके आंदोलन को भटकाया जा सके। लेकिन उनके इन तमाम प्रयासों के बावजूद मज़दूर यह समझ गये हैं कि बिना इन श्रमिक नेताओं के वे अपने आंदोलन को सही दिशा नहीं दे सकते और इसीलिए वे इन श्रमिक नेताओं पर भरोसा जताते रहे हैं।

जब डॉलफिन के मज़दूरों ने 4 जनवरी से अपने आंदोलन को शुरु किया है तब से वे लगातार श्रम विभाग और शासन-प्रशासन की उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं। मालिक और प्रबंधन अपने गुंडों द्वारा मज़दूरों पर जानलेवा हमला करवाता रहा है लेकिन पुलिस ने मालिक और प्रबंधन तथा उनके गुंडों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की उलटे उन गुंडों की शिकायत के आधार पर श्रमिक नेता (इंक़लाबी मज़दूर केंद्र के पूर्व अध्यक्ष) और पांच मज़दूरों पर गुंडा एक्ट लगा दिया।

आज सरकारें और पूंजीपति वर्ग दोनों मज़दूरों पर हमलावर हैं। वे श्रम कानूनों के तहत मज़दूरों को मिलने वाले अधिकारों से उन्हें पूरी तरह वंचित कर देना चाहते हैं। और पूंजीवादी व्यवस्था के बाकी अंग कार्यपालिका और न्यायपालिका भी मज़दूरों के खिलाफ खड़े हैं। रही बात पूंजीवादी प्रचारतंत्र की तो किसान आंदोलन इस बात का गवाह है कि किस तरह किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन के खिलाफ उसने दुष्प्रचार की सीमाएं लांघ दी थीं।

आलेख

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संघ और भाजपाइयों का यह दुष्प्रचार भी है कि अतीत में सरकार ने (आजादी के बाद) हिंदू मंदिरों को नियंत्रित किया; कि सरकार ने मंदिरों को नियंत्रित करने के लिए बोर्ड या ट्रस्ट बनाए और उसकी कमाई को हड़प लिया। जबकि अन्य धर्मों विशेषकर मुसलमानों के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया। मुसलमानों को छूट दी गई। इसलिए अब हिंदू राष्ट्रवादी सरकार एक देश में दो कानून नहीं की तर्ज पर मुसलमानों को भी इस दायरे में लाकर समानता स्थापित कर रही है।

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आजादी के दौरान कांग्रेस पार्टी ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद वह उग्र भूमि सुधार करेगी और जमीन किसानों को बांटेगी। आजादी से पहले ज्यादातर जमीनें राजे-रजवाड़ों और जमींदारों के पास थीं। खेती के तेज विकास के लिये इनको जमीन जोतने वाले किसानों में बांटना जरूरी था। साथ ही इनका उन भूमिहीनों के बीच बंटवारा जरूरी था जो ज्यादातर दलित और अति पिछड़ी जातियों से आते थे। यानी जमीन का बंटवारा न केवल उग्र आर्थिक सुधार करता बल्कि उग्र सामाजिक परिवर्तन की राह भी खोलता। 

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

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पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

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उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता