गरीब मुल्क : बढ़ता कर्ज संकट

22-23 जून को पेरिस में दुनिया भर के 300 से अधिक अंतर्राष्ट्रीय संगठन 100 से अधिक देशों के प्रमुख इकट्ठा होने वाले हैं। ये सभी पेरिस क्लब की बैठक के तहत इकट्ठा होंगे। पेरिस क्लब के तहत दुनिया भर की अंतर्राष्ट्रीय संस्थायें व विकसित देश गरीब मुल्कों व उनकी संस्थाओं द्वारा लिये कर्जों की स्थिति का आंकलन करने को इकट्ठा होते हैं। इस बैठक के जरिये कर्जदार देश को कर्ज चुकता करने के लिए धमकाने, नीतियां थोपने से लेकर जरूरत पड़ने पर कर्ज के पुनर्गठन अदायगी की समय सीमा बढ़ाने आदि सभी काम किये जाते हैं। 
    

इस वक्त यह बैठक ऐसे वक्त में होने जा रही है जब दुनिया के गरीब मुल्कों में ज्यादातर की स्थिति महामारी के बाद के काल में बेहद दयनीय है। इस दयनीय स्थिति में और इजाफा इस वजह से हो रहा है कि विकसित देशों में महंगाई से निपटने के नाम पर बढ़ाई गयी ब्याज दरों ने एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के कर्ज में डूबे गरीब देशों की कर्ज अदायगी की राशि तेजी से बढ़ा दी है। 
    

दरअसल महामारी के वक्त दुनिया भर के गरीब मुल्कों को अपनी तरह-तरह की स्वास्थ्य व खाद्यान्न जरूरतें पूरी करने के लिए कर्ज लेना पड़ा था। न केवल सरकारों पर कर्ज की मात्रा बढ़ी थी बल्कि वित्तीय संस्थानों द्वारा उठाये गये कर्ज की मात्रा भी बढ़ी थी। इस कर्ज का एक छोटा हिस्सा ही जनकल्याण में खर्च हुआ। ज्यादातर हिस्सा पूंजीपतियों को तरह-तरह की रियायतें, बेल आउट देने में खर्च हुआ। 
    

महामारी के वक्त आई एम एफ व विश्व बैंक ने तमाम देशों को दिये कर्जों की अदायगी की सीमा कुछ बढ़ा दी थी। कर्ज समाप्त करने से इन संस्थाओं ने स्पष्ट तौर से इंकार कर दिया था। अब चूंकि बढ़ाई गयी समय सीमा भी बीतने जा रही है तो गरीब मुल्क फिर से एक बड़े संकट का सामना करने की ओर बढ़ रहे हैं। हालत यहां तक पहुंच रही है कि सरकारों के साथ निजी बैंक व अन्य वित्तीय संस्थाओं द्वारा लिये गये कर्जों के चलते कई देश भुगतान के संकट की ओर बढ़ रहे हैं। यानी ढेरों देश वास्तव में श्रीलंका व पाकिस्तान सरीखे हालातों में पहुंच रहे हैं जहां सरकारी खर्च चलाने व कर्ज की ब्याज अदायगी के लिए और नये कर्ज लेने के अलावा सरकारों पर कोई रास्ता नहीं बचा है। 
    

तीसरी दुनिया के इन तमाम छोटे गरीब देशों के पास कर्ज अदायगी हेतु विदेशी मुद्रा जुटाने का केवल एक ही तरीका रहा है वह है कच्चे माल व कृषि उत्पादों का निर्यात। लेकिन बीते वक्त में न केवल इन देशों के निर्यात में कोई वृद्धि नहीं हुई है बल्कि इनकी राष्ट्रीय आय में भी कई बार गिरावट हुई है। विश्व व्यापार में आयी गिरावट का भी इन देशों को खामियाजा उठाना पड़ा है। उनके निर्यात की वृद्धि दर खासी गिर गयी है। जहां 2001-08 के बीच इन देशों का निर्यात 8.4 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा था वहीं यह 2019-23 के बीच घट कर 3.8 प्रतिशत रह गया। यह स्थिति तब है जब साम्राज्यवादी चीन को भी इसमें शामिल किया गया है। चीन को हटाते ही बचे देशों के लिए निर्यात वृद्धि दर बेहद कम रह जायेगी। 
    

विश्व बैंक की ग्लोबल इकानामिक प्रास्पैक्ट्स रिपोर्ट बताती है कि इस वर्ष दुनिया के सबसे गरीब देशों को कर्ज के ब्याज के रूप में 35 प्रतिशत ज्यादा राशि अदा करनी होगी। यह राशि उन्हें कोविड के अतिरिक्त खर्चों के साथ खाद्यान्न आयात के बढ़े खर्चों हेतु देनी होगी। सबसे गरीब 75 देशों को 100 अरब डालर से ज्यादा राशि इस वर्ष अतिरिक्त अदा करनी होगी। 
    

कर्ज अदायगी मद अब गरीब देशों की सरकारों के बजट का बड़ा हिस्सा लेती जा रही है। इसका परिणाम इस रूप में पड़ रहा है कि सरकारें स्वास्थ्य, शिक्षा आदि पर कम खर्च को मजबूर हो रही हैं। सामाजिक सुरक्षा के नाम पर गरीब मुल्क बजट का महज 3 प्रतिशत खर्च कर रहे हैं जबकि विकसित देशों में इस मद में 26 प्रतिशत तक खर्च हो रहा है। 
    

विश्व बैंक के अनुसार 2024 में एक तिहाई गरीब देशों की प्रति व्यक्ति आय 2019 के पूर्व महामारी काल से भी नीचे होगी। इस वक्त 21 देश बुरी तरह कर्ज संकट में फंसे हैं जिनमें 14 बेहद गरीब देश हैं। आगे ऐसे ही कुछ देशों की चर्चा है। 
    

घाना को साम्राज्यवादी अफ्रीकी विकास के मॉडल के बतौर प्रस्तुत करते रहे हैं। यह सोने व कोको का प्रमुख उत्पादक रहा है। इसका प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद अफ्रीका में काफी ऊंचा रहा है। पिछले दिसम्बर माह में यह जब कर्ज चुकाने में अक्षम हो गया तो आई एम एफ को इसका 3 अरब डालर का कर्ज बेल आउट करना पड़ा। सरकार ने महामारी से आयी अर्थव्यवस्था की सुस्ती से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर कर्ज लेकर निवेश किया। परिणामतः सरकारी कर्ज सकल घरेलू उत्पाद के 2020 में 62 प्रतिशत से बढ़़कर 2023 में 100 प्रतिशत जा पहुंचा। सरकारी आय का 70 प्रतिशत कर्ज अदायगी में खर्च हो रहा है। घाना को अभी न केवल सरकारी कर्ज से राहत चाहिए बल्कि उसके बैंकों द्वारा भारी मात्रा में उठाये गये विदेशी कर्ज (34 अरब डालर) जो उच्च ब्याज दर पर है, से भी राहत चाहिए। अब सरकार एक झटके से सरकारी खर्च कम कर रही है, टैक्स दर बढ़ा रही है जिसका असर जनता पर बेहद बुरा पड़ रहा है। 
    

नाइजीरिया जो अफ्रीका की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, वह भी इस वक्त संकट से गुजर रही है। यहां प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बीते 9 वर्षों में भारी गिरावट का शिकार हुआ है। यह 2015 में 3 अरब डालर से गिरकर मौजूदा समय में 0.46 अरब डालर रह गया है। 2019 से 2025 के बीच 1.3 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गये हैं। लगातार युद्ध, भ्रष्टाचार का शिकार यह देश बेहद बुरे दौर से गुजर रहा है। 
    

लेबनान में जहां चुनाव के बाद भी स्थायी सरकार का गठन नहीं हो पा रहा है, भी गंभीर संकट का शिकार है। यहां पूर्व केन्द्रीय बैंक गवर्नर बड़ी मात्रा में भ्रष्टाचार मनी लांड्रिंग का दोषी रहा है। इसने अर्थव्यवस्था को जमीन पर लाने में खासी भूमिका निभायी है। लेबनानी मुद्रा पाउंड की 2019 से डालर के तुलना में कीमतें 98 प्रतिशत तक गिर चुकी है और वार्षिक मुद्रा स्फीति दर अप्रैल 23 में 269 प्रतिशत थी। 
    

एशिया में पाकिस्तान गंभीर राजनैतिक व आर्थिक संकट में है। फिलहाल यह आई एम एफ से बेल आउट हेतु बातचीत कर रहा है। इस पर 126 अरब डालर का विदेशी कर्ज है जिसमें 80 अरब डालर इसे अगले 3 वर्षों में चुकाना है। इसकी मुद्रा रुपया डालर के सापेक्ष 50 प्रतिशत तक गिर चुकी है। विदेशी मुद्रा भण्डार खाली होकर महज 4.5 अरब डालर रह गया है। सकल घरेलू उत्पाद गिर रहा है। भूकम्प, बाढ़ व सैन्य खर्च के साथ भारी महंगाई ने इसकी अर्थव्यवस्था को चूस लिया है। 
    

अर्जेण्टीना जो कभी तेजी से आगे बढ़ रही अर्थव्यवस्था था, आज गंभीर कर्ज संकट में फंसा है। महंगाई आसमान छू रही है। देश पुराने कर्ज की अदायगी न कर पाने के चलते भुगतान संकट की अवस्था में है। 
    

श्रीलंका जो बीते वर्ष काफी चर्चा में था, वहां स्थिति में कुछ खास सुधार नहीं हुआ है। राष्ट्रपति को तो जनता ने भगा दिया पर वह कर्ज को नहीं भगा पायी। श्रीलंका के संकट के लिए चीनी साम्राज्यवादियों को जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है। पर चीनी साम्राज्यवादी श्रीलंका के महज 14 प्रतिशत कर्जों के लिए जिम्मेदार हैं। 43 प्रतिशत कर्ज पश्चिमी बैंकों सरीखे निजी बांड होल्डर्स के हैं। 16 प्रतिशत कर्ज अमेरिकी प्रभाव वाले एशियन डेवलपमेंट बैंक व 10 प्रतिशत कर्ज विश्व बैंक का है। इस तरह अमेरिकी प्रभुत्व वाली संस्थाओं का श्रीलंका पर कर्ज कहीं ज्यादा है। कुल सरकारी कर्ज 34.8 अरब डालर है। 
    

आखिर तीसरी दुनिया के ये गरीब मुल्क कर्ज संकट तक की स्थिति में कैसे पहुंचे? कर्ज संकट की स्थिति में कुछ बड़े देश भारत-ब्राजील भी आ सकते हैं पर इनका निर्यात व यहां आने वाला विदेशी निवेश इनके विदेशी मुद्रा भण्डार को ऊंचा बनाये हुए है। इससे इनका कर्ज संकट छुप जाता है। ये किसी तीखे भुगतान संकट का सामना नहीं करते हैं। इन सभी देशों को कर्ज संकट में धकेलने के प्राथमिक तौर पर साम्राज्यवादी देश व संस्थायें जिम्मेदार हैं जिन्होंने इन देशों पर निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियां थोप तरह-तरह से इन्हें कर्ज जाल में फंसाया। ब्याज के नाम पर मूल से भी अधिक वसूल लिया। साथ ही इस कर्ज संकट के लिए इन गरीब मुल्कों का शासक पूंजीपति वर्ग भी दोषी है जो कर्ज लेकर उसे पूंजीपतियों के हित में लुटाता रहा है। साम्राज्यवादियों व देशी पूंजीपतियों के गठजोड़ द्वारा थोपी गई नीतियों से गरीब मुल्कों का आर्थिक विकास बुरी तरह संकटग्रस्त रहा है जिसका खामियाजा इन देशों की जनता को उठाना पड़ रहा है। 
    

गरीब मुल्कों का यह हाल दिखला रहा है कि साम्राज्यवाद कैसे आज भी तरह-तरह से गरीब देशों को चूस रहा है।
    (तथ्य माइकल राबर्ट के लेख डेवलपिंग डेब्ट डिजास्टर से लिये गये हैं)

आलेख

/idea-ov-india-congressi-soch-aur-vyavahaar

    
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

/ameriki-chunaav-mein-trump-ki-jeet-yudhon-aur-vaishavik-raajniti-par-prabhav

ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

/brics-ka-sheersh-sammelan-aur-badalati-duniya

ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती। 

/amariki-ijaraayali-narsanhar-ke-ek-saal

अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को