आगामी आम चुनाव : बनते-बिगड़ते राजनैतिक समीकरण

जैसे-जैसे आम चुनाव करीब आते जा रहे हैं वैसे-वैसे भारतीय राजनीति का तापमान बढ़ता जा रहा है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार ने कांग्रेस में ही नहीं बल्कि विपक्षी पार्टियों में भी आशा का संचार कर दिया है। भाजपा के बड़बोले प्रवक्ताओं ने इस हार के बाद एक नया जुमला उछाला कि ‘‘भाजपा या तो जीतती है या फिर सीखती है’’। यानी कर्नाटक चुनाव में भाजपा हारी नहीं है बल्कि उसने यह सीखा कि अगले चुनाव कैसे जीतने हैं। मायूस भाजपा के कर्नाटक में सारे दांव उल्टे पड़ गये और अब हद यह हुयी कि संघ को अपने मुखपत्र में लिखना पड़ा कि मोदी और हिंदुत्व का जादू हर समय नहीं चल सकता है। संघ का एक मतलब यह भी था कि इनके साथ भाजपा को स्थानीय प्रभावशाली नेतृत्व मसलन कर्नाटक में येदुरप्पा को किनारे लगाना ठीक नहीं था। 
    

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार को विपक्षी दलों द्वारा मोदी और हिंदुत्व के पराभव के रूप में पेश किया जा रहा है। संघ इस धारणा पर एक मुहर अलग किस्म से लगा रहा है। विपक्षी दलों में यह आशा परवान चढ़ने लगी है कि यदि वे एकजुट हो जायें और अपनी चालें सधे हुए ढंग से चलें तो अगले आम चुनाव में भाजपा को सत्ता से बेदखल किया जा सकता है। पटना में 23 जून को होने वाली विपक्षी पार्टियों की बैठक इसी आशा और संभावना की अभिव्यक्ति है। 
    

चुनावी संभावना की दृष्टि से देखा जाए तो यह बहुत दूर की कौड़़ी नहीं है कि भाजपा अगले आम चुनाव में ठीक-ठाक सीटों के अंतर से हार भी जाए। और गर ऐसा होता है तो यह भारतीय समाज में भीषण गर्मी के मौसम में ठण्डी फुहारों जैसा होगा। 
    

भाजपा-संघ के हिन्दू फासीवाद का जो गठजोड़ इस वक्त भारत के सबसे बड़े पूंजीपतियों-एकाधिकारी घरानों से चल रहा है वह वक्ती तौर पर टूट जायेगा। और इन पूंजीपतियों-घरानों को सत्ता में काबिज होने वालों से नया जोड़-तोड़ बिठाना पड़ेगा। सत्ता में बैठने वाले दलों को वह सौदेबाजी करने का मौका मिल जायेगा जिस पर पिछले कई सालों से भाजपा का एकाधिकार रहा है। यह वह संभावना है जिस पर विपक्षी दल दांव लगा रहे हैं। 
    

आम चुनाव में ‘हार’ को भाजपा-संघ ‘हार’ नहीं मानेंगे बल्कि एक ‘सीख’ मानेंगे और इसका अर्थ होगा कि वह अपनी हार के बाद और अधिक खूंखार और खतरनाक हो जायेंगे। विपक्षी दल यदि अपनी एकता जीत के बाद अगले आम चुनाव तक भी भले ही बनाए रखें परन्तु वे अपने इस खूंखार विरोधी का क्या करेंगे। भाजपा-संघ ऐसी सरकार की नाक में दम करके रखेंगे और उनको शांति से शासन नहीं करने देंगे। मतलब यह कि यदि चुनाव में भाजपा जीतती है तो वह अपने हिंदू फासीवादी मंसूबों को और तेजी से आगे बढ़ायेगी और यदि वह हारती है तो वह अपनी पूरी ताकत से यह कोशिश करेगी कि वह नयी सरकार का एक दिन भी चलना मुश्किल कर दे। यानी कुल मिलाकर यह कि आने वाले दिनों में, आम चुनाव के पहले या बाद में, भारतीय राजनीति में खूब गहमा-गहमी रहनी है। हिन्दू फासीवादियों का खूब तमाशा रहना है। 
    

जो बात इस बीच में भारतीय समाज के भविष्य के दृष्टिकोण से, भारत के मजदूर-मेहनतकशों के हितों की दृष्टि से, अल्पसंख्यकों-औरतों-दलितों-आदिवासियों के जीवन के संदर्भ में सबसे खतरनाक हो रही है वह है भारतीय राजनीति का सम्पूर्ण हिन्दूकरण। भारतीय राजनीति के हिन्दूकरण को जहां भाजपा अपना मुख्य काम मानती है वहां उससे मुकाबले में नरम हिंदुत्व या बेहतर हिंदुत्व के रूप में विपक्षी पार्टियां अपने-अपने ढंग से योगदान दे रही हैं। इस मामले में क्या तो कांग्रेस पार्टी, क्या तो आप पार्टी, क्या तो समाजवादी पार्टी और क्या तो तृणमूल कांग्रेस अधिकांश विपक्षी पार्टियां भाजपा को उसी की भाषा में जवाब देने की कोशिश कर रही हैं। इस कारण से वही हो रहा है जो हिन्दू फासीवादी नेता सावरकर का सपना था। सावरकर का सपना था ‘राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दुओं का सैन्यीकरण’। भारतीय राजनीति के इस तरह से हो रहे हिन्दूकरण से सावरकर का आधा स्वप्न पूरा हो गया है। मध्य प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिए कांग्रेस पार्टी वहीं सब कुछ कर रही है जो भाजपा दशकों से करती आयी है। हद तो यह है कर्नाटक में बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की बात करने वाली कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में ‘बजरंग सेना’ का गठन कर डाला है। 
    

भारतीय राजनीति में धर्म का घालमेल हमेशा से रहा है। भारत की आजादी की लड़ाई के तीन प्रतीक पुरुषों- बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और महात्मा गांधी- ने हिन्दू धर्म के प्रतीकों, तौर-तरीकों को जिस ढंग से आजादी की लड़ाई में स्थापित करवाया था उसका देर-सवेर नतीजा यही आना था कि भारतीय राजनीति का ‘सम्पूर्ण हिन्दूकरण’ हो और हिन्दू फासीवादी राजनीति के केन्द्र में स्थापित हो जाए। ‘सर्व धर्म समभाव’ वाली कांग्रेस की हिन्दू प्रतीकों से भरी राजनीति को ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ का भी तमगा मिलता था तो ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ का भी और ‘नकली या चुनावी हिन्दुत्व’ का भी। इंदिरा गांधी से लेकर राहुल गांधी तक कांग्रेस के नेता हिन्दुओं का मत हासिल करने के लिए कम धार्मिक प्रपंच नहीं करते रहे हैं। लेकिन इस मामले में नरेन्द्र मोदी का कोई सानी नहीं है। नरेन्द्र मोदी ने धार्मिक प्रपंच और इस प्रपंच के प्रचार को उसके उच्चतम स्तर पर पहुंचा दिया है। विपक्षी पार्टियां खासकर कांग्रेस मोदी के प्रपंच का मुकाबला करने के लिए जो कुछ प्रयास करते हैं उसमें वह अपने को अक्सर ही हास्यास्पद स्थिति में डाल देते हैं। हालांकि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बजरंग दल पर प्रतिबंध की चतुर चाल चलकर उन्होंने मोदी को अपनी प्रपंच कला का पूरा प्रदर्शन करने का मौका दिया था। भले ही मोदी के वोट इससे न बढ़े हों पर कांग्रेस को एकतरफा तौर पर मुस्लिम वोट हासिल हो गये थे। इसे ही विपक्षी दलों (और एक हद तक संघ ने भी) मोदी और हिंदुत्व के जादू के न चल पाने के रूप में परिभाषित किया है। कांग्रेसियों ने बड़़ी ही धूर्तता से ‘रिवर्स टेक्नोलॉजी’ का प्रयोग कर्नाटक में कर डाला था। और भाजपाइयों को जीतने के बजाय ‘सीखने’ लिए हाल-फिलहाल मजबूर कर दिया। 
    

आगामी आम चुनाव के लिए भाजपा-संघ के पास हिंदुत्व के मुद््दे के अलावा और भी कई चीजें हैं। इनमें ‘राष्ट्रवाद’, ‘सैन्यवाद’, ‘लोकरंजक नीति और घोषणा’ आदि प्रमुख हैं। इनमें से लोकरंजक नीति-घोषणाओं के मामले में विपक्षी पार्टियों खासकर कांग्रेस ने कर्नाटक और उससे पहले हिमाचल में अच्छी चुनौती दी। ‘मुफ्त कोविड वैक्सीन’ का प्रचार करने वाले मोदी को विपक्षी पार्टियों द्वारा की जा रही ऐसी ही घोषणाओं को ‘मुफ्त की रेवडी’ घोषित करके निंदा करनी पड़ी। अपनी मुफ्त की रेवड़ियों को उन्होंने एक भला सा नाम जनकल्याण दिया। विपक्षी पार्टियां भी कोई कच्चे खिलाड़ी तो हैं नहीं। उन्होंने इस मामले में वही कर डाला जो उन्होंने हिन्दुत्व के मुद्दे पर किया है। 
    

मोदी, भाजपा, संघ के तरकश में अभी भी दो ऐसे तीर हैं जो उसकी आम चुनाव में जीत की संभावनाओं को बढ़ा देते हैं। पहला तीर घोर धार्मिक ध्रुवीकरण का है और दूसरा प्रायोजित राष्ट्रवाद का है। 2019 में ‘पुलवामा हमले’ और बालाकोट जैसी सर्जिकल स्ट्राइक ने आम चुनाव का रुख भाजपा की ओर जोरदार ढंग से मोड़ दिया था। चुनाव के पहले पाकिस्तान के साथ छोटा-मोटा युद्ध या युद्धोन्मादी माहौल मोदी के तरकश में एक ऐसा तीर है जो विपक्षी दलों की सारी मेहनत पर एक झटके में पानी फेर सकता है। 

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