असली अमेरिका कौन है? -मदन मोहन पाण्डेय

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किसी एशियावासी के आगे यदि कोई अचानक ‘अमेरिका’ शब्द का उच्चारण करे तो अधिक संभावना यही है कि उसके दिमाग में पहले संयुक्त राज्य अमेरिका का नक्शा उभरेगा- दुनिया का महाबली देश। फिर उससे जुड़ी कुछ अन्य छवियां दिमाग में उतर सकती हैं, जैसे एंपायर स्टेट बिलि्ंडग, नियाग्रा फाल, टाइम्स स्क्वायर, वहां का कोई तूफान, डोनाल्ड ट्रंप आदि। हम में से अधिकांश इस तरह न जाने कब से बड़ी खामोशी के साथ दुनिया के इस दबंग देश से इंप्रेस्ड हैं। यह अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में दिखाई जाने वाली सामग्री का असर है। इस बात का अंदेशा कम ही है कि ‘अमेरिका’ शब्द सुनते-पढ़ते हुए हमारे मन में ‘मैक्सिको से सुदूर दक्षिण तक फैले अर्जेंटाइना’ के किसी भाग का नक्शा या उसकी कोई चिंतित कर देने वाली तस्वीर भी आए। फुटबॉल में कभी-कभार पेले की वजह से ब्राजील और माराडोना की वजह से अर्जेंटाइना का नाम जुबान पर आ जाता है। या फिर रियो डि जेनेरो के रंगारंग कार्निवाल की फुटेज हमें इन देशों की एक रोमानी छवि दे देती है। कभी साहित्य का कोई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार किसी लैटिन/दक्षिण अमेरिकी देश को दो-चार रोज के लिए सुर्खियों में ला देता है। वरना देशी-विदेशी मीडिया में दक्षिण का यह विराट भूभाग लगभग अदृश्य ही रहता है। लेकिन सच क्या है? सच यही है कि आज मैक्सिको से दक्षिण अमेरिका के आखिरी सिरे तक फैला अमेरिका ही वहां के मूलवासियां का अमेरिका है। दक्षिण ही क्यों फ्रांस का उपनिवेश बनने से पहले कनाडा और ब्रिटेन का उपनिवेश बनने से पहले आज का संयुक्त राज्य अमेरिका भी नेटिव इंडियंस (विभिन्न रेड इंडियन कबीलों) की सम्पत्ति था। अपनी किताब ‘लैटिन अमेरिका के रिसते हुए जख्म’ में उरुग्वे मूल के अंतर्राष्ट्रीय लेखक और पत्रकार एदुआर्दो गालिआनो इसी अमेरिका की कहानी कहते हैं। उनकी कहानी कोलंबस के अमेरिका पहुंचने से शुरू होती है और आज पर खत्म होती है। यह कथा पिछले 700 वर्ष के अमेरिकी इतिहास, राजनीति, संस्कृति और एक तरह से साहित्य की भी कथा है। यह इस भूभाग को परत दर परत किस्सागोई के अंदाज में खोलती है और यूरोप को इतिहास के ‘स्पार्किंग जोन’ की तरह देखने के आदी हम समझ पाते हैं कि इतिहास को गति देने के लिए विख्यात यूरोपीय और अमेरिकी क्रांतियां जिस अकूत दौलत की वजह से संभव हुई- वह किस जनगण के श्रम से संभव हुई थी। जिस समूचे उŸारी-दक्षिणी अमेरिका के मूलवासियों के परिश्रम ने यूरोप के माथे पर समृद्धि के ताज पहनाए वह तो आज भी दुखों से कराहता है। करीब ढाई दशक तक यूरोप, अमेरिका के अभिलेखों को खंगालने व लैटिन अमेरिका के साधारणजनों के साक्षात्कारों को आधार बनाकर लिखी गई यह किताब बताती है कि यूरोप के चेहरे पर अब तलक दमकता नूर दरअसल मूल लैटिन अमेरिकी आबादी (जो अब मैक्सिको, ग्वाटेमाला, निकारागुआ, पनामा, वेनेजुएला, कोलंबिया, गुयाना, फ्रेंच गुयाना, सूरीनाम, इक्वाडोर, पेरू, ब्राजील, चिली, बोलिविया, पराग्वे, उरुग्वे, अर्जेंटीना और क्यूबा तथा छोटे-छोटे अटलांटिस द्वीपों/देशों के रूप में है) के पसीने, रक्त-मांस और हड्डियों की कीमत पर आया है और यह प्रक्रिया अब भी कायम है।
    
गालिआनो की मानें तो कोलंबस जिसकी तीसरी दुनिया के देशों और स्वयं यूरोप में वीर और साहसी नाविक के रूप में ख्याति है, मूलतः स्पेन और पुर्तगाल के नव दौलतियों का प्रतिनिधि था। यह 12 अक्टूबर 1492 का दिन था जब भारत की खोज में भटकते कोलंबस के (मनहूस) चरण पश्चिमी मध्य अटलांटिक के एक द्वीप गुआनाहानी (बहामास) पर पड़े। बेशक उसने एक जोखिमभरी यात्रा की थी, लेकिन इस यात्रा का मानवीय और सामाजिक रूप से नैतिक होना संदिग्ध है। यह पूरी तरह से यूरोप के व्यापारिक हितों को समर्पित थी। कोलंबस ने उसके बाद अमेरिका की तीन यात्राएं और कीं। 1493 में उसने लेसर एंटीलीज (वेस्ट इंडीज) की खोज की। 1498 में त्रिनिदाद और 1502 में मध्य अमेरिका का पूर्वी तट खोजा। कोलंबस मूल अमेरिकावासियों के प्रति कैसी मंशा रखता था और उनके प्रति उसने कैसा व्यवहार किया होगा इसका अनुमान बाद में उसके द्वारा हैती में किए गए एक जनसंहार से लगाया जा सकता है। अपने अभियानों के बीच उसने एक छोटी घुड़सवार सेना, 200 पैदल सिपाहियों और कुछ प्रशिक्षित कुत्तों के साथ हैतीवासियों पर हमला किया और उन्हें लगभग तबाह कर दिया। उसने 500 से ज्यादा हैतीवासी गुलाम बनाकर यूरोप भेजे- वे सभी भूख, अभाव और तकलीफें सहते हुए मरे। 20 मई 1506 को कोलंबस मर गया पर उसकी यात्राओं ने यूरोप द्वारा अमेरिका के आगे के अन्वेषण, शोषण और मूल अमेरिकियों के लिए औपनिवेशिक गुलामी के द्वार खोल दिए।
    
कोलंबस के बाद अमेरिका पर स्पेनिश और पोर्तुगीज के चरण पड़े। फिर थोड़ा आगे-पीछे ब्रिटिश, फ्रांसीसी और डच वहां पहुंचे। ब्रिटिश उपनिवेशवादी व्यापारी 1608-09 में अमेरिका पहुंचे। 1609 से 1664 तक डच व्यापारियों ने वहां ‘कब्जा अभियान’ चलाएं। वे ‘डच वेस्ट इंडिया कंपनी’ के रूप में वहां मौजूद रहे। कनाडा क्षेत्र में फ्रांसीसी 1535 से 1763 तक रहे। उत्तर अमेरिका के कुछ भागों और मध्य तथा दक्षिणी अमेरिका के बड़े भागों पर स्पेनिश और पुर्तगाली व्यापारी काबिज रहे। लेकिन ब्रिटिश व्यापारियों ने अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अपने दबदबे और तिकड़मों के चलते फ्रांसीसियों को कनाडा से चलता कर दिया। गालिआनो के शब्दों में स्पेन की हालत उस मालिक की तरह बना दी ‘‘जो गाय का मालिक तो था पर उस गाय का दूध ब्रिटेन पीता था।’’ खुद स्पेनी सामंतों, अमीरों, पादरियों ने लूटी हुई कमाई का बड़ा हिस्सा फिजूलखर्ची में उड़ाया।
    
यूरोपीय आक्रांताओं के पास बंदूकें, प्रशिक्षित सैनिक, सधाए हुए घोड़े, व्यापारिक धूर्तता और क्रूरता थी। उन्होंने इन सभी का भरपूर उपयोग किया। पर रेड इंडियन कबीलों ने भी आसानी से गुलामी स्वीकार नहीं की। वे लड़े और बड़ी तादाद में मारे गए। गालिआनो अनुमान लगाते हैं कि यूरोपियन हमलां से पहले उत्तर से दक्षिण तक मूल अमेरिकियों की आबादी 7 करोड़ से ज्यादा रही होगी। उनके मुताबिक 16 वीं सदी में एजटेक इंडियन कबीलों की राजधानी ‘तेनाच्तीलियन’ (मेक्सिको) की जनसंख्या स्पेन के मैड्रिड और सेविल्ले शहरों से ज्यादा थी। एक लैटिन अमेरिकी दस्तावेज स्पेनिश व्यापारी-सैनिकों के मूल अमेरिकियों पर हमले का वर्णन इस प्रकार करता है, ‘‘1523 में एक सूअर पालक फ्रांसिस्को पिजारो मूल अमेरिकियों का संहार करता या उन्हें गुलाम बनाता पूर्व से पश्चिम की ओर गया। एक अन्य स्पेनिश कमांडर पेड्रो डी अल्वार्डां और उसके आदमी ग्वाटेमाला पर टूट पड़े। उन्होंने मूल निवासियों को इतनी तादाद में मारा कि उससे खून की एक नदी ही बन गई और वह दिन रक्तिम हो उठा। निर्णायक लड़ाई से पहले यातनाओं से डरे हुए मूलवासियों ने स्पेनिश कमांडरों से उन्हें और यातना न देने का अनुरोध किया। उन्होंने अपने दो नायकों नेहिब और इब्सकुइन को एक बाज और एक शेर के भेष में इस स्पेनी कमांडरों के पास भेजा। ये अपने साथ ढेर सारा सोना, चांदी, हीरे और पन्ने ले गए तथा उन्हें स्पेनी सेनापतियों को सौंप दिया। बदले में उनसे मूलवासियों को और यातना न देने का अनुरोध किया।’’
    
स्पेनी सेनापति पिजारो को पेरू पर हमले के समय एक लाख मूलवासियों की सेना का सामना करना पड़ा था। इससे भी वहां रेड इंडियंस की बड़ी आबादी का संकेत मिलता है।
    
यूरोपियन व्यापारियों ने मूल अमेरिकियों का संहार तीन तरह से किया। एक लड़ाइयां में, (जिसका अभी जिक्र किया है), दूसरा उन्हें गुलाम बनाकर नारकीय दशाओं में रखकर, तीसरा, स्वयं यूरोप से वहां लाई गई बीमारियों द्वारा। संहार के दूसरी प्रकार के बाबत गालिआनो इस प्रकार बताते हैं, ‘‘तीन सदियों (16वीं से 18वीं) के दौरान पोतोसी (बोलीविया का चांदी खनन केंद्र) के सेर्रोरिको ने 80 लाख जिंदगियों को लील लिया। मूल निवासियों को औरतों और बच्चों समेत उनके कृषिगत समुदायों से नोच लिया गया और उन्हें सेर्रां (चांदी की खानों) में भेज दिया गया। उस बेहद ठंडे बीहड़ में गए हर दस में से सात कभी वापस नहीं आए। स्पेनवासी मजदूरों की तलाश में ग्रामीण क्षेत्रों में सैकड़ों मील तक घूमते थे। गुलाम मजदूरों में बहुत से पोतोसी पहुंचने से पहले रास्ते में ही मर जाते थे। लेकिन वह खानों में काम करने के भयंकर हालात थे जिन्होंने ज्यादातर लोगों को मारा। बेगार और गुलामी की भयानकता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि मूलवासी उनसे बचने के लिए सैकड़ां की तादाद में सामूहिक आत्महत्याएं कर लेते थे।
    
गालिआनो के अनुसार गुलामी-बेगारी के कारण 16वीं-17वीं सदियों में इतने श्रमिक मरे कि मैक्सिको को अपनी इस आबादी को प्राप्त करने में 400 साल लगे।
    
लेखक बताते हैं कि यूरोपियन आक्रांता अपने साथ बाइबिल में उद्धत ये बीमारियां भी लाए थे - प्लेग, चेचक, टिटनेस, कोढ़, ट्रेकोमा, टाइफस, फेफड़ों, आंतां और सेक्स से संबंधित कई बीमारियां तथा दांतों की सड़न से पैदा होने वाला क्षय। चेचक सबसे पहले प्रकट हुआ। इसे खुद लैटिन अमेरिकी आध्यात्मिकों और यूरोपियन चर्च के विद्वानों ने देवताओं द्वारा दिए जाने वाले दंड के रूप में प्रचारित किया। एक स्रोत के हवाले से गालिआनो ने लिखा है, ‘‘आक्रमणकारियों ने ‘टक्लासकाला’ में प्रवेश किया और उसके बाद महामारी फैल गई। खांसी, दहकते हुए मवाद से भरे छाले। मूल निवासी मक्खियों की तरह मरे। उनके शारीरिक गठन में इन नई बीमारियों के खिलाफ कोई प्रतिरोध नहीं था।’’ ब्राजीली मानवविज्ञानी डारसी रिबेरो का अनुमान है कि ‘‘अमेरिका, आस्ट्रेलिया और ओसेनिया की आधे से ज्यादा आदिवासी जनसंख्या श्वेत लोगों के पहली बार संपर्क में आने के दूषित परिणाम के कारण मरी।’’
    
एक दस्तावेज के हवाले से लेखक एदुआर्दो यूरोपियन व्यापारियों (स्पेनिश) के सोने के प्रति लालच का चित्र यों उद्धत करते हैं ‘‘स्पेनवासी सातवें आसमान पर थे उन्होंने सोने को इस प्रकार उठाया मानो वे बंदर हों- खुशी से झूमते हुए, मानो उसने उनमें नए जीवन का संचार कर दिया हो और उनके दिलों को जगमग कर दिया हो। मानो वह निश्चित रूप से कुछ ऐसा था जिसके लिए उन्हें अथाह प्यास थी। वे उसे पाकर फूले नहीं समा रहे थे और उसके लिए वह हिंसक रूप से भूखे थे। वे भूखे सुअरों की तरह सोना पाने को बेताब थे। बाद में जब कोर्टेस (स्पेनी सैनिक कमांडर) 3 लाख निवासियों की अजटेक राजधानी तेनोच्तीलियन (मैक्सिको) पहुंचा तब स्पेनवासियों ने कोषागार में प्रवेश किया और उन्होंने सोने को पिघलाकर उसका एक विशालकाय गोला बना लिया और उसके बाद जो कुछ भी शेष था उसे आग की लपटों के हवाले कर दिया, भले ही वह कितना ही मूल्यवान क्यों न हो।’’
    
करीब तीन सदियों तक यूरोपियन व्यापारियों ने लैटिन अमेरिका का चांदी, सोना, हीरे, पारा और टिन लूटा। श्रम लगभग मुफ्त था इसलिए मुनाफा अकूत था। 17 वीं सदी के अंत में राष्ट्रवादी क्रांति सम्पन्न होने के बाद स्वतंत्र अमेरिका भी दक्षिण की इस लूट में शामिल हुआ। जब धातुएं लूट ली गईं तो वे जंगलों और जमीन की ओर मुड़े। उन्होंने ब्राजील का विशाल उत्तर पूर्वी वन क्षेत्र पकड़ा। लाखों वर्ग किलोमीटर वन काटकर यूरोप के लिए फर्नीचर तैयार हुआ, बाकी लकड़ी विश्व बाजार में बेची गई। इसके बाद और इसके साथ मूलवासियों से छीनी गई जमीनों तथा काटे गए वनों की जमीनों पर खेती शुरू हुई। यूरोप ने लैटिन अमेरिकी भूमि पर गन्ना और कोक और कॉफी उगाई। जाहिर है सारा कुछ मुनाफे के लिए था। एक भूभाग या मनुष्यों के रूप में लैटिन अमेरिकियों की जरूरत क्या थी -यह पूछने का समय  उपनिवेशवादियों के पास नहीं था।
    
एदुआर्दो लिखते हैं, ‘‘लूट (अंदरूनी और बाह्य) पूंजी के संचय का सबसे महत्वपूर्ण साधन थी। एक ऐसा संचय जिसने मध्य युग के पश्चात विश्व आर्थिक विकास के एक नए ऐतिहासिक चरण को संभव बनाया। जैसे-जैसे पैसे की अर्थव्यवस्था का विस्तार हुआ वैसे ही दुनिया भर से ज्यादा से ज्यादा सामाजिक स्तर और क्षेत्र असमान लेन-देन में शामिल होते गए।’’ एक अर्थशास्त्री अर्नेस्ट मेंडेल को उद्धत करते हुए वे कहते हैं, 1660 तक लातिन अमेरिका से छीने गए सोने और चांदी का दाम 1650 से 1780 तक डच ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा इंडोनेशिया से छीने गए लूट के माल, फ्रांसीसियों द्वारा 18वीं सदी में गुलामों के व्यापार से हासिल मुनाफे और भारत में आधी सदी तक की गई ब्रिटिश लूट के कुल जोड़ से ज्यादा था। इस सारी लूटां का योग यूरोपीय उद्योगों में सन् 1800 में लगी कुल पूंजी से ज्यादा था। पूंजी के इस प्रचुर भंडार ने यूरोपीय औद्योगिक क्रांति को तेजी से बढ़ावा दिया।’’
    
मूल अमेरिकियों के लिए शायद धातुएं सम्मान और समृद्धि का पैमाना नहीं थे। लेकिन यूरोपीय व्यापारियों ने अपने बीच ‘अल डोराडो’ का मिथक पैदा किया- यानि सोने-चांदी का मालिक एक लैटिन अमेरिकी (काल्पनिक) राजा।
    
जहां तक योरोपीय चर्च का सवाल है वह योरोपियन व्यापारियों का दायां हाथ बना रहा। उसने सुनियोजित ढंग से इस आशय की अफवाहें फैलाइंर् कि ईश्वर ने तुम्हारी धातुओं को बहुत दूर से आने वालों के लिए सुरक्षित रखा था और अब वे आ गए हैं। लैटिन अमेरिकियों के धर्म परिवर्तित किए गए। चर्च ने जिन्हें अपधर्मी पाया उन्हें जिन्दा जला दिया गया। मूलवासियां के नाश के साथ लैटिन अमेरिका जितना खाली हुआ उसे भरने को अफ्रीका से गुलाम लाए गए। यूरोप से भारी तादाद में गोरी आबादी का प्रवासन अमेरिका में हुआ। गालिआनो के अनुसार सन् 1700 में ब्राजील में 3 लाख निवासी थे। एक सदी बाद सोने के भंडारों के निचुड़ने तक इसकी जनसंख्या 11 गुणा बढ़ गई। 18वीं सदी में कम से कम 3 लाख पुर्तगाली ब्राजील में आकर बस गए। अमेरिका में गुलाम प्रथा के उन्मूलन होने तक लगभग 1 करोड़ काले लोग अफ्रीका से लाए गए।
    
क्या लैटिन अमेरिका असभ्य था? नहीं। उनकी सांस्कृतिक संपन्नता अपने तरह की थी और वह किसी पर आतताई नहीं था। गालियानो उनकी सांस्कृतिक विशेषताएं इन शब्दों में बताते हैं, ‘‘जब स्पेनवासियों ने लैटिन अमेरिका पर आक्रमण किया तब इंका का मजहबी साम्राज्य अपने शीर्ष पर था। वह पेरू, बोलीविया और इक्वाडोर तक फैला हुआ था। उसमें कोलंबिया और चिली का भी कुछ हिस्सा शामिल था। उसकी पहुंच उत्तरी अर्जेंटीना और ब्राजील के जंगलों तक थी। मैक्सिको घाटी में एजटेक महासंघ ने उच्च दर्जे की दक्षता हासिल कर ली थी। यूकाटन और मध्य अमेरिका में माया लोगों की असाधारण सभ्यता थी जिसे युद्ध और काम के लिए संगठित किया गया था। इन समाजों ने अपनी महानता के कई प्रमाण छोड़े हैं। जैसे कि धार्मिक स्मारक जिन्हें मिस्र के पिरामिडों से ज्यादा कुशलता से बनाया गया है। लीसा के संग्रहालय में सैकड़ों खोपड़ियां रखी हैं जिनका इंका शल्य चिकित्सकों द्वारा सोने और चांदी की प्लेटों से कपालछेदन और अलंकरण किया गया है। मायावासी महान खगोलविद् थे। वे आश्चर्यजनक सूक्ष्मता के साथ समय और स्थान की माप कर सकते थे। उन्होंने इतिहास में किन्हीं भी अन्य लोगों से पहले शून्य संख्या के मायने खोज लिए थे। एजटेकों की सिंचाई व्यवस्था और झीलों के बीच बने कृत्रिम द्वीपों ने स्पेनिश आक्रमणकारी कोर्टेस को चौंधिया दिया था’’। इस महाद्वीप के प्रशांत सागरीय तट पर मूल अमेरिकी, मक्का, राजमा, छोले, मूंगफली और शकरकंद की खेती करते थे। उन्होंने पहाड़ी ढालों पर खेती को संभव बनाया था। बेशक वे पहियों, घोड़ों और लोहे के बारे में नहीं जानते थे, लेकिन उन्होंने जलबंधों, पुलों और खेतों में सिंचाई की एक अनोखी प्रणाली विकसित की थी। मैक्सिको में अजटेकों ने झीलों के बीच सरकंडों और गीली मिट्टी की मदद से ऐसे द्वीप बनाए थे जिन पर से नहरें बहती थीं। उनके अपने आडंबरहीन शानदार महल और सीढ़ीदार पिरामिड थे। ऐसे लोगों को यूरोपीय व्यापारियों ने मनुष्य से मनुष्य को कमतर देखने की अपनी तहजीब थोपी। वे अपने मूल निवासी घरेलू नौकरों (पैगोस) को कुत्तों के साथ सुलाते थे। मूलवासी मालिक का रात का बचा हुआ खाना खाते थे और किसी भी सफेद चमड़ी वाले से बात करते हुए घुटने टेक लेते थे। चार्ल्स तृतीय ने 18वीं सदी के अंत में लैटिन अमेरिकी स्त्री-पुरुषों के लिए यूरोपीय फैशन के लिबास पहनना अनिवार्य कर दिया।
    
मूल अमेरिकी कबीले लड़ते और हारते रहे। जीत एक अपवादिक तथ्य थी। अपने पारंपरिक हथियारों से ही सही वे जितना संभव हुआ जूझते रहे। 1781 में एक इंका मुखिया तुपाक अभारू ने अपने राजा को इसलिए फांसी पर चढ़ा दिया कि वह यूरोपियन आक्रांताओं के खिलाफ मूल अमेरिकियों के विद्रोह का नेतृत्व नहीं कर रहा था। हजारों की तादाद में मूलवासी और गुलाम-मजदूर उसके साथ हो लिए। उसने कहीं जीतते तो कहीं हारते हुए गुरिल्ला लड़ाई चलाई। जीते हुए इलाकों में उसने गुलामी प्रथा (स्थानीय भाषा में ‘मिता’) का अंत कर दिया। उसने यूरोपियन द्वारा शासित कुज्को शहर (पेरू) को घेर लिया और लड़ा। आखिरकार वह हारा। यूरोपीय व्यापारी-सेना का कैदी बना। यातनाएं सहने के बावजूद उसने अपने साथियों का भेद नहीं खोला। कुंठित यूरोपीय सेना ने उसके अलग-अलग अंगों को काटकर अलग-अलग स्थानों पर ‘विजय चिन्ह’ के रूप में भेजा। यूरोपियन सेना ने तय किया कि उसके वंशजों को चार पीढ़ी तक मिटा दिया जाए। 
    
मैक्सिको में एक स्थानीय पादरी मिगुएल हिडाल्गो ने विद्रोह की आवाज उठाई। 18वीं सदी के आखिरी दशकों में उसने मूलवासियां को संगठित किया। चाकू, गुलेल, बरछे और धनुष-बाण धारी मूल अमेरिकियों ने यूरोपियंस से टक्कर ली। इस क्रांतिकारी पादरी ने जीते क्षेत्रों में यूरोपियंस द्वारा लगाए गए सभी करों को खत्म कर दिया और गुलामों को आजाद कर दिया। उसके बाद लड़ाई की परंपरा एक स्थानीय विद्रोही पादरी जोसे मारिया मोरलेस ने आगे बढ़ाई। 1910 से 1920 में एमिलियानो जपाटा और पांचां विला के नेतृत्व में हुई मैक्सिको की राष्ट्रवादी क्रांति कुछ समय तक टिकी रही। इसने मैक्सिकन किसानों-नागरिकों को अनेक अधिकार दिए।
    
क्यूबा की क्रांति ने 20वीं सदी में स्पेनिश साम्राज्यवाद को खदेड़ बाहर किया और एक सफल समाजवादी राज्य की स्थापना की। आज बाकी लैटिन अमेरिकी राज्य राजनैतिक रूप से भले ही स्वायत्त हो गए हों - लेकिन यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका के व्यापारियों की गिद्ध दृष्टि उन पर लगी ही रहती हैं। ये राष्ट्रवादी सरकारों और यूरोप-अमेरिका समर्थक सरकारों के बीच पेंडुलम की तरह झूलते रहते हैं। यूरोप और अमेरिका के व्यापारियों की यहां की राजनीतिक उठापटक में खासी दिलचस्पी रहती है। अब भी समूचे लैटिन अमेरिका में- खासकर मैक्सिको से दक्षिण के भाग में अमीरी-गरीबी की बड़ी खाई मौजूद है। इन देशों का एक समृद्ध तबका हमेशा इस कोशिश में रहता है कि यहां यूरोप-अमेरिका समर्थित सरकारें बनें। संयुक्त राज्य अमेरिका में अब स्पष्टतः यूरोपीय मूल के गोरों का बहुमत है। काले और मूल अमेरिकी (रेड इंडियन्स) अल्पमत में है।
    
गालियानों की यह किताब एक साथ लैटिन अमेरिका का इतिहास, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र व राजनीतिशास्त्र बताती है। वे किताब लिखते हुए बार-बार समय में आगे-पीछे जाते हैं, पर सन् और दशकों-सदियों में ज्यादा नहीं उलझते। ये दुनिया के एक उपेक्षित और शोषित भू-भाग के साम्राज्यवादी शोषण को उकेरने पर ज्यादा ध्यान देते हैं। किताब ही बताती है कि उन्होंने इसे लिखने के लिए कितना गहरा और व्यापक अध्ययन किया होगा। दिनेश पोसवाल ने इसका प्रभावशाली अनुवाद किया है और भाषा की इसकी रवानी बनाए रखी है (अंग्रेजी में मूल पुस्तक का नाम ओपन वेन्स आफ लैटिन अमेरिका 1971) है। गार्गी प्रकाशन ने कायदे से इसे छापा है और हिंदी के पाठकों को एक शानदार पुस्तक सुलभ कराई है। समूचे अमेरिका और खासकर मध्य व दक्षिणी अमेरिका की मुश्किलों को समझने के लिए यह एक मर्मस्पर्शी दस्तावेज है। काश, कोई ब्रिटिश व फ्रांसीसी उपनिवेशवादियां द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप के शोषण पर भी ऐसी किताब लिखता! 

आलेख

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो। 

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ट्रम्प द्वारा फिलिस्तीनियों को गाजापट्टी से हटाकर किसी अन्य देश में बसाने की योजना अमरीकी साम्राज्यवादियों की पुरानी योजना ही है। गाजापट्टी से सटे पूर्वी भूमध्यसागर में तेल और गैस का बड़ा भण्डार है। अमरीकी साम्राज्यवादियों, इजरायली यहूदी नस्लवादी शासकों और अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की निगाह इस विशाल तेल और गैस के साधन स्रोतों पर कब्जा करने की है। यदि गाजापट्टी पर फिलिस्तीनी लोग रहते हैं और उनका शासन रहता है तो इस विशाल तेल व गैस भण्डार के वे ही मालिक होंगे। इसलिए उन्हें हटाना इन साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी है। 

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आज भी सं.रा.अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक ताकत है। दुनिया भर में उसके सैनिक अड्डे हैं। दुनिया के वित्तीय तंत्र और इंटरनेट पर उसका नियंत्रण है। आधुनिक तकनीक के नये क्षेत्र (संचार, सूचना प्रौद्योगिकी, ए आई, बायो-तकनीक, इत्यादि) में उसी का वर्चस्व है। पर इस सबके बावजूद सापेक्षिक तौर पर उसकी हैसियत 1970 वाली नहीं है या वह नहीं है जो उसने क्षणिक तौर पर 1990-95 में हासिल कर ली थी। इससे अमरीकी साम्राज्यवादी बेचैन हैं। खासकर वे इसलिए बेचैन हैं कि यदि चीन इसी तरह आगे बढ़ता रहा तो वह इस सदी के मध्य तक अमेरिका को पीछे छोड़ देगा।