वैज्ञानिक उपलब्धि; श्रेय का चक्कर

चन्द्रयान-3 के चांद के दक्षिणी ध्रुव पर सफलतापूर्वक पहुंचना और फिर उसके बाद प्रज्ञान रोवर का भी सफलतापूर्वक काम करना निःसंदेह एक बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि है। यह वैज्ञानिक उपलब्धि भारत जैसे पिछड़े पूंजीवादी देश के लिए बहुत बड़ी हो जाती है। और यह बड़ी इसलिए भी हो जाती है कि भारत सरकार शिक्षा, विज्ञान, अनुसंधान पर अपने बजट का बेहद मामूली हिस्सा ही खर्च करती है। जितने धन में चन्द्रयान-3 चन्द्रमा पर पहुंच गया उससे कई गुना धन तो भारत सरकार कर्जखोर उद्योगपतियों-पूंजीपतियों का यूं ही माफ कर देती है। 
    
भारत के इसरो वैज्ञानिको की इस उपलब्धि का श्रेय लेने में भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने कोई कसर नहीं छोड़ी। पिछली बार वे चन्द्रयान-2 के समय इसरो मुख्यालय ही पहुंच गये थे। परन्तु जैसा कि ऐसे प्रयोगों में होता है सफलता, असफलता की सीढ़ियां लांघ कर पहुंचती है। उस वक्त मोदी जी ने जो कुछ सबक सीखा होगा उसका इस बार नतीजा यह निकला कि चन्द्रयान-3 की सफल लैण्डिंग के बाद ही उन्होंने टेलीविजन के पर्दे पर आना उचित समझा। ब्रिक्स सम्मेलन में मोदी जी का स्वागत वैसे नहीं हुआ जैसी कि उन्हें अपेक्षा थी। चन्द्रयान-3 की सफलता की खबर ठीक ब्रिक्स सम्मेलन के बीच आयी और इसने मोदी जी को प्रचार व प्रपंच कला के लिए श्रेय लेने के लिए शानदार मौका उपलब्ध करा दिया। उन्हें वैसे भी श्रेय लेने की बीमारी है। 
    
सफलता का श्रेय लेने में कुछ कसर रह गयी थी इसलिए मोदी जी ब्रिक्स सम्मेलन व ग्रीस दौरे से सीधे बैंगलुरू पहुंच गये और अपनी हिन्दुत्ववादी फासीवादी राजनीति का प्रदर्शन करने लगे। जिस जगह पर चन्द्रयान-3 पहुंचा वहां का नाम ‘शिव शक्ति प्वाइंट’ कर दिया। यह गैर जरूरी था। और पौराणिक हिन्दू देवता शिव जो कि चन्द्रमा को अपने शरीर पर धारण करते हैं का एक तरह से उपहास भी था। यह उपहास इसलिए भी था यह वैज्ञानिक उपलब्धि जिन धार्मिक-अंधविश्वासों का खण्डन कर रही थी मोदी जी ठीक उन्हीं धार्मिक अंधविश्वासों की पुनर्स्थापना कर रहे थे। हद तो तब हो गयी जब मोदी के एक मूर्ख अंधभक्त ने मोदी जी से यह मांग कर डाली कि चन्द्रमा को ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित कर दिया जाए। ठीक ही है ‘जैसा गुरू वैसा चेला’। होना तो चाहिए था कि इस वैज्ञानिक उपलब्धि के समय पूरे देश में विज्ञान, तर्क का उत्सव मनाया जाना चाहिए था। कूपमंडूकता, धार्मिक पाखण्ड व अंधविश्वासों की पोल खोली जानी चाहिए थी। चन्द्रग्रहण व सूर्यग्रहण के समय किये जाने वाले धार्मिक प्रपंचों-कुप्रथाओं को तिलांजलि दी जानी चाहिए थी। 
    
हुआ बिल्कुल उलट! देश के प्रधानमंत्री अपनी हिन्दुत्ववादी-फासीवादी राजनीति की नुमाइंदगी करने लगते हैं तो इसरो प्रमुख मंदिरों के चक्कर काटने लगते हैं। एक वैज्ञानिक कार्य, वैज्ञानिक उपलब्धि को धार्मिक प्रपंचों का अनुचर बना देते हैं। 
    
धर्म किसी भी व्यक्ति का निजी मामला है। यहां किसी व्यक्ति को यह हक नहीं मिल जाता है कि वह अपनी धार्मिक आस्था को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करे और अपनी आस्था को दूसरों की आस्था के ऊपर थोप दे। एक वैज्ञानिक उपलब्धि को अपने इष्ट का आशीर्वाद साबित करने लगे। 
    
स्पष्ट तौर पर यह एक विरोधाभास है। कैसे कोई एक वैज्ञानिक व्यक्ति अपने निजी जीवन में घोर पाखण्डी, कर्मकाण्डी व प्रपंची हो सकता है। और ऐसा विशेषकर भारत और भारत जैसे पिछड़े देशों में ही संभव है। और हो सकता है कि ऐसे वैज्ञानिकों को अपने कर्मकाण्ड, पाखण्ड प्रपंच पर गर्व भी हो। ऐसा इसलिए ही होता है कि एक वैज्ञानिक हो जाने मात्र से कोई जरूरी नहीं है कि उसकी सोच, जीवन दर्शन, व्यवहार भी वैज्ञानिक हो। उलट वह आराम से वैज्ञानिक कार्य करते हुए दकियानूसी, जातिवादी, मर्दवादी, हिन्दुत्ववादी हो सकता है। और इसलिए यह होता है कि भारत में वैज्ञानिक उपलब्धि सामाजिक-वैज्ञानिक-तार्किक आंदोलन को जन्म नहीं दे पाती है। और इतिहास के कूड़े-कबाड़ को साफ नहीं कर पाती है। 
    
वैज्ञानिकों के इतर इसमें सबसे बड़ी बाधा आज का पाखण्डी-प्रपंची-कूपमंडूक शासक वर्ग है जो कुछ तो अचेत ढंग से परन्तु अधिकांशतः सचेत ढंग से समाज में पिछड़ेपन, दकियानूसीपन, मध्ययुगीन मूर्खता का वाहक व प्रचारक बन गया है। भारत सहित दुनिया का पूंजीवादी शासक वर्ग जानता है कि विज्ञान, तर्क, सच्चाई का वास्तविक प्रचार उसके शासन की नींव खोद डालेगा। वह अपनी गद्दी तब ही अधिक सुरक्षित रख सकता है जब आम मजदूर-मेहनतकश धर्म, अंधविश्वास, कर्मकाण्ड, प्रपंच के नशे में डूबे रहें। अपने जीवन के कष्ट, मुसीबत और बुरे हालात के लिए स्वयं को ही दोषी ठहराते रहें। वे कभी इस बात को न समझ पायें कि उनके जीवन की बुरी से बुरी होती परिस्थितियों के लिए पूंजीवादी व्यवस्था और उसे चलाने वाला शासक वर्ग-पूंजीपति वर्ग जिम्मेवार है। 
    
धार्मिक कूपमंडूकता के आगोश में चन्द्रयान-3 की वैज्ञानिक उपलब्धि को धकेलने के अलावा एक अन्य कार्य यह किया गया कि मोदी जी सहित उनकी पार्टी व मीडिया ने पूरे देश में अंधराष्ट्रवादी माहौल तैयार करवाया। अंधराष्ट्रवादी माहौल तैयार करने के लिए इस तथ्य को उछाला गया कि भारत पहला देश है जो चन्द्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचा है। 
    
कोई भी विवेकशील व्यक्ति जानता है कि कोई भी वैज्ञानिक कार्य किसी एक व्यक्ति, एक देश की नहीं बल्कि मानवजाति के सम्पूर्ण प्रयास, अनुभव व ज्ञान का परिणाम होता है। चन्द्रयान-3 की सफलता में भारत सहित पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों के सफल-असफल ज्ञान व प्रयोग की भूमिका है। भारत के चन्द्रयान-3 की सफलता का श्रेय भले ही कोई मोदी और कोई नेहरू (जिन्होंने इसरो की स्थापना में विशेष योगदान दिया) को दे परन्तु सच्चाई यह है कि यह इसरो के वर्तमान वैज्ञानिकों से कहीं-कहीं ज्यादा उन वैज्ञानिकों की मेहनत का परिणाम है जिन्होंने सदियों पूर्व खगोल विज्ञान की नींव रखी। और उस नींव पर ही आज के अनुसंधान सम्भव हो पा रहे हैं। आज भी एक यान को बनाने में सैकड़ों मनुष्यों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष योगदान होता है। यह बात राष्ट्रों के संदर्भ में भी लागू हो जाती है। 
    
इस तरह से देखें तो चन्द्रयान-3 की वैज्ञानिक उपलब्धि कहां तो विज्ञान-तर्क पर आधारित जनांदोलन का जरिया बनती है और कहां यह कूपमंडूकता, धार्मिक पाखण्ड को स्थापित करने का जरिया बन गयी। ठीक इसी तरह इसे कहां इस बात की घोषणा का वक्त होना चाहिए था कि ज्ञान सामाजिक सम्पत्ति है और चन्द्रमा कुछेक राष्ट्रों का नहीं बल्कि पूरी मानवजाति के लिए है और कहां यह सब अंधराष्ट्रवाद और श्रेष्ठताबोध के प्रदर्शन का अवसर बन गया। 
    
फिर भी कोई शासक चाहे कितना ही वैज्ञानिक उपलब्धि का विरूपीकरण करे परन्तु वैज्ञानिक प्रयोग, उपलब्धि चाहे-अनचाहे उसकी नींव की खुदाई का काम कभी खुलेआम तो कभी चुपचाप करती जाती है। 

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