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हिन्दू फासीवादी इस समय लहालोट हो रहे हैं। उन्हें लगता है कि उन्होंने सरकारी पैसे और सरकारी मशीनरी के बल पर पूरे हिन्दू समाज को धार्मिकता में डुबो दिया है और आने वाले दिनों में वे अपनी साम्प्रदायिकता की राजनीति को खूब चमका सकते हैं। खासकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बम-बम कर रहे हैं।
हिन्दू फासीवादियों के खुश होने के वाजिब कारण हैं। उन्होंने जिस तरह हिन्दू समाज की धार्मिकता को साम्प्रदायिकता में बदलने में सफलता पाई है, उससे उन्हें गुमान हो सकता है कि उनकी हिन्दू साम्प्रदायिक राजनीति आगे लम्बे-लम्बे डग भरेगी।
लेकिन क्या वाकई ऐसा होगा? क्या जितने हिन्दू कुम्भ में डुबकी लगाने जा रहे हैं वे हिन्दू फासीवादियों के समर्थक या मतदाता बन जायेंगे? इससे भी आगे क्या वे हिन्दू साम्प्रदायिक या हिन्दू फासीवादी बन जायेंगे?
धार्मिकता और साम्प्रदायिकता का समीकरण कोई सीधा-सरल नहीं है। यह सही है कि साम्प्रदायिकता का आधार धार्मिकता है। बिना धार्मिकता के धार्मिक साम्प्रदायिकता नहीं हो सकती। कोई नास्तिक व्यक्ति धार्मिक साम्प्रदायिकता से ग्रस्त नहीं हो सकता। इसी तरह समाज का नास्तिकों वाला हिस्सा धार्मिक साम्प्रदायिक नहीं हो सकता। समाज के वे ही हिस्से धार्मिक साम्प्रदायिकता के प्रभाव में आ सकते हैं जो किसी धर्म में विश्वास करते हों।
लेकिन इसकी उलटी बात भी है। यह आवश्यक नहीं है कि किसी धर्म में विश्वास करने वाले सारे लोग धार्मिक साम्प्रदायिक हो जायें। पाकिस्तान और इजरायल दो ऐसे देश हैं जिनका जन्म धर्म के आधार पर हुआ। दोनों के जन्म के पीछे धार्मिक साम्प्रदायिकता बड़ी चीज थी। इसके बावजूद इन दोनों ही देशों में सारे लोग धार्मिक साम्प्रदायिक नहीं हैं। बल्कि बहुमत ऐसे ही लोगों का है जो धार्मिक साम्प्रदायिक नहीं हैं। पाकिस्तान का बाद में विभाजन हो गया पर यह विभाजन धार्मिक साम्प्रदायिक आधार पर नहीं हुआ बल्कि राष्ट्रीयता के आधार पर हुआ। राष्ट्रीयता धार्मिक साम्प्रदायिकता और धार्मिक पहचान पर हावी हो गयी।
इसी तरह अपने को इस्लामी राष्ट्र कहने वाले तमाम देशों में सारे लोग धार्मिक साम्प्रदायिक नहीं हैं। बल्कि यहां ऐसे लोगों की संख्या काफी कम है।
अस्तु, किसी समाज में धार्मिक साम्प्रदायिकता के लिए समाज का धार्मिक होना जरूरी है यानी लोगों का किसी धर्म में विश्वास जरूरी है। पर इतना ही पर्याप्त नहीं है। धार्मिक समाज के साम्प्रदायिकता की चपेट में आने के लिए कुछ और चीजों का होना जरूरी है।
असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता।
अक्सर आज धार्मिक साम्प्रदायिकता ‘धर्म खतरे में है’ के नारे के साथ आगे बढ़ती है। इसमें अपने धर्म की श्रेष्ठता का भाव निहित होता है यानी यह भाव कि अपना धर्म सबसे श्रेष्ठ धर्म है। साथ ही यह भाव भी होता है कि दूसरे धर्म या तो निकृष्ट धर्म हैं या धर्म हैं ही नहीं। यदि यह भाव न हो तो ‘धर्म खतरे में है’ का यह प्रभाव नहीं होगा।
‘धर्म खतरे में है’ का नारा तभी प्रभावित कर पाता है जब कोई समाज किसी तरह बाहरी या भीतरी खतरे का सामना कर रहा हो। यह खतरा वास्तव में आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक होता है पर यह अभिव्यक्त धार्मिक रूप में होता है। जैसा कि पुराने जमाने में कहा जाता था- ‘जब सब कुछ छिन जाये तो धर्म ही सहारा होता है’ या ‘सब कुछ तो ले लिया, अब क्या धर्म भी ले लोगे’।
बाहरी खतरे के समक्ष इस तरह की धार्मिक साम्प्रदायिकता समाज के सुरक्षा कवच का काम कर सकती है क्योंकि यह लोगों को एकजुट होकर बाहरी खतरे का सामना करने की प्रेरणा देती है। यहूदियों के इतिहास में इसे कई बार देखा जा सकता है।
लेकिन यही चीज शासकों के लिए सुविधाजनक हथियार भी बन सकती है। मध्यकाल में शासकों ने इस हथियार का खूब इस्तेमाल किया।
आज जब धार्मिक साम्प्रदायिकता ‘धर्म खतरे में है’ का नारा बुलंद करती है तो वह असल में आंतरिक संकटों की अभिव्यक्ति होता है। आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक संकटों के शिकार समाज में कुछ लोग सामने आते हैं जो पूरे समाज को अतीत के किसी स्वर्णिम काल में ले जाकर इन संकटों का समाधान करने का सपना दिखाते हैं। इसके अनुसार अतीत में कभी ऐसा समय था जब लोग धार्मिक आदर्शों के हिसाब से जीवन जीते थे और इसीलिए उस समाज में कोई संकट नहीं था। वहीं लौट कर ही वर्तमान समस्याओं से मुक्ति पाई जा सकती है। अक्सर ही स्वर्णिम काल की ये सारी बातें काल्पनिक होती हैं और आज के जमाने के हिसाब से गढ़ी गयी होती हैं।
कोई जरूरी नहीं है कि इस तरह की बात करने वाले साम्प्रदायिक नेतागण स्वयं इन पर विश्वास करें। अक्सर तो वे नहीं करते। ऐसी बातें कर वे बस लोगों को गोलबंद करते हैं।
वर्तमान संकटों से मुक्ति पाने के लिए अतीत में जाने की गोलबंदी अपने आप में ही एक राजनीतिक परियोजना है। यह कोई धार्मिक परियोजना नहीं है। वैसे यह याद रखना होगा कि अपनी पैदाइश के समय बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम तथा सिख सभी धर्म सामाजिक आंदोलन थे और इसीलिए राजनीतिक थे। हां, तब प्रवर्तकों समेत अनुयाईयों को इस बात की चेतना नहीं थी।
आज साम्प्रदायिक नेतागण सचेत हैं। वे अचेत या मासूम नहीं हैं। और कुछ नहीं तो केवल इसी कारण कि आज दुनिया बहुत सचेत है। इसमें विचारों का भयंकर टकराव है। जिस समाज में समाज के संकटों से उबरने के लिए कम्युनिज्म, समाजवाद, पूंजीवादी उदारवाद, फासीवाद इत्यादि आपस में इस तरह टकरा रहे हों, उसमें कोई नेता अचेत नहीं हो सकता। इसके ठीक विपरीत साम्प्रदायिक नेता सचेत तौर पर बाकायदा तर्क-वितर्क करते हुए दूसरी विचारधाराओं के मुकाबले अपनी सामाजिक परियोजना पेश करते हैं।
इन साम्प्रदायिक नेताओं द्वारा साम्प्रदायिक गोलबंदी जहां एक ओर उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करती है वहीं वह समाज के शासक वर्गों की जरूरतों को भी पूरा करती है। जब तक शासक वर्गों को साम्प्रदायिक गोलबंदी की जरूरत नहीं होती तब तक यह गोलबंदी भी ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाती। तब तक शासक इस गोलबंदी को प्रोत्साहित नहीं करते। उलटे वे इसको हतोत्साहित करते हैं या इसका दमन करते हैं। पर जब शासकों को इस गोलबंदी की जरूरत पड़ती है तो उनका रुख बदल जाता है। तब वे भांति-भांति के तरीके से इसे प्रोत्साहित करते हैं। अक्सर समाज में इस गोलबंदी का बढ़ता आधार तथा शासकों द्वारा इसको प्रोत्साहन समान्तर परिघटना होते हैं क्योंकि दोनों का ही कारण होता है- बढ़ता आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संकट।
इस तरह धार्मिक साम्प्रदायिकता एकदम आधुनिक राजनीतिक परिघटना है। यह आधुनिक समाज की समस्याओं के समाधान के लिए आधुनिकता पूर्व के काल में लौटने का आह्वान है। आधुनिक समाज के शासकों का इस समाधान में जरा भी विश्वास नहीं होता। पर वे अपने संकट के अपने तरीके से समाधान के लिए इस तरह की साम्प्रदायिक गोलबंदी का इस्तेमाल करते हैं।
पर यही बात धार्मिक साम्प्रदायिक गोलबंदी की चपेट में आने वाले साधारण धार्मिक लोगों के लिए नहीं कही जा सकती। इनके लिए धार्मिकता और साम्प्रदायिकता का मिश्रण अलग-अलग होता है। कुछ के लिए धार्मिकता प्रधान होती है और साम्प्रदायिकता गौण जबकि कुछ अन्य के लिए साम्प्रदायिकता प्रधान होती है और धार्मिकता गौण। कुछ बीच-बीच के भी हो सकते हैं। जिन लोगों के लिए साम्प्रदायिकता प्रधान हो जाती है वे अपने रोजमर्रा के जीवन में साम्प्रदायिक प्रचारक बन जाते हैं भले ही किसी साम्प्रदायिक संगठन के वे औपचारिक सदस्य या कार्यकर्ता न हों। उनकी सारी सोच और दृष्टि साम्प्रदायिक हो जाती है।
इनके बाहर आम धार्मिक लोगों का एक बड़ा जन समूह होता है जो बस धार्मिक होता है। अक्सर ही यह आबादी का बहुमत होता है। चूंकि साम्प्रदायिक उसी धार्मिक भाषा या मुहावरे का इस्तेमाल करते हैं जिसका आम धार्मिक लोग; इसलिए ऐसा लग सकता है कि आम धार्मिक लोग भी साम्प्रदायिक हैं। पर असल में ऐसा नहीं होता। थोड़ा ध्यान से देखने पर ही यह फर्क नजर आ जाता है।
आज कुंभ में जो जनमानस आ रहा है उसका बड़ा हिस्सा ऐसे ही आम धार्मिक लोगों का है। वे पीढ़ी दर पीढी या कहें धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत के तौर पर कुंभ के बारे में प्रचलित मान्यताओं को जानते और मानते हैं। उनका विश्वास है कि कुंभ में नहाने से उनके पाप धुलेंगे और उन्हें पुण्य मिलेगा। इसके लिए उन्हें किसी हिन्दू फासीवादी सरकार के प्रचार की जरूरत नहीं है।
हिन्दू फासीवादियों और उनकी सरकार का जहां फरक पड़ जाता है वह उनके इस प्रचार की वजह से है कि सरकार ने कुंभ के लिए बहुत शानदार इंतजाम किया है। या फिर जब हिन्दू साम्प्रदायिक खुद ही कुंभ जाने के लिए वाहन इत्यादि का इंतजाम करते हैं तब कुछ हिचक रहे लोग भी कुंभ स्नान के लिए तैयार हो जाते हैं।
यदि इस बार कुंभ में भीड़ कुछ ज्यादा है तो इसका कारण यही है। या फिर इस प्रचार में कि यह महाकुंभ है जो 144 साल बाद आता है और इसीलिए किसी को दोबारा मौका नहीं मिलेगा।
कुंभ स्नान में आमजन की धार्मिकता की यह अभिव्यक्ति साथ ही धार्मिक कूपमंडूकता की अभिव्यक्ति भी है। यह इस बात का प्रमाण है कि हिन्दू समाज का बहुलांश आज मध्यकालीन धार्मिक कूपमंडूकता का शिकार है। यहां धार्मिक कट्टरपन नहीं है। वह तो हिन्दू फासीवादियों का गुण है जो आम हिन्दुओं को खास सांचे में ढालना चाहते हैं। यही धार्मिक कूपमंडूकता या धार्मिक पोंगापंथ है।
आज भी विकसित पूंजीवादी देशों की बहुलांश आबादी आस्तिक है। यह किसी हद तक धार्मिक भी है। नास्तिक आज भी वहां अल्पमत में हैं। पर वह धार्मिक आबादी मध्यकालीन धार्मिक कूपमंडूकता या पोंगापंथ की शिकार नहीं है। वह उसे काफी पीछे छोड़ आई है। मध्यकालीन धार्मिक विश्वास आज उसके जीवन में कोई भूमिका अदा नहीं करते।
पर भारत जैसे पिछड़े समाजों के लिए यह बात सच नहीं है। यहां धर्म सुधार आंदोलनों का उस तरह व्यापक असर नहीं हुआ। आर्य समाज या ब्रह्म समाज समय के साथ निष्प्रभावी हो गये।
अलबत्ता पूंजीवाद के आम विकास का असर जरूर पड़ा। लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि लोग धार्मिक विश्वासों के मामले में अवसरवादी हो गये। वे अपनी जिन्दगी के दुःखों-कष्टों से मुक्ति के लिए हर दरवाजे पर भटकने लगे। वे गंगा स्नान करने जाते हैं और दरगाहों पर चले जाते हैं। वे तिरुपति या वैष्णों देवी जाते हैं और राम-रहीम और बागेश्वर के आश्रम भी चले जाते हैं। वे हनुमान मंदिर जाते हैं और सिरडी के साईं बाबा के मंदिर भी। वे भंडारा भी करवा लेते हैं।
यदि आज आम हिन्दू जनमानस धार्मिक मामलों में इस तरह का अवसरवादी हो गया है तो यह उसका दोष नहीं है। जब जीवन इतना कष्टमय हो तो झांड-फूंक से लेकर एलोपैथ तक सब आजमाया जाता है - कहीं से तो राहत मिल जाये।
इसकी सारी जिम्मेदारी उन शासकों की बनती है जिन्होंने आम जन का जीवन इतना कष्टमय बनाया है और जिन्होंने आम जन को मध्यकालीन धार्मिक विश्वासों से मुक्त करने की कभी कोशिश नहीं की। उलटे उन्होंने इसे सांस्कृतिक विरासत के नाम पर बढ़ावा ही दिया। वे सचेत थे कि आम जन की धार्मिक कूपमंडूकता कभी उनके काम आ सकती है। और आज वह घड़ी आ पहुंची है। आज हिन्दू फासीवादियों द्वारा साम्प्रदायिक गोलबंदी के तहत वे इस धार्मिक कूपमंडूकता का खूब फायदा उठा रहे हैं और आम जन को अपने खिलाफ विद्रोह करने से रोक रहे हैं।
लेकिन आखिर कब तक? कब तक वे सफल होंगे। क्रांति के पहले रूस की जनता यूरोप में सबसे ज्यादा धार्मिक मानी जाती थी। कुछ लोग तो इसी कारण वहां क्रांति की कोई संभावना नहीं देखते थे। पर इतिहास ने कुछ और ही साबित किया। क्या भारत इतना अनोखा है कि इतिहास की इस सच्चाई को झुठला दे?
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