पंतनगर विश्वविद्यालय में ठेका मजदूर कल्याण समिति, पंतनगर कर्मचारी संगठन, विश्व विद्यालय श्रमिक कल्याण संघ, राष्ट्रीय शोषित परिषद एवं राष्ट्रीय सफाई मजदूर कांग्रेस के द्वारा संयुक्त मोर्चा बनाकर ठेका एवं स्थाई मजदूरों की समस्याओं के समाधान हेतु 15 नवम्बर 2016 से संघर्ष चलाया जा रहा है। इस दिन वि.वि. प्रशासन को पिछले 10-15 वर्षों से लगातार कार्यरत कर्मियों को गैर कानूनी ठेका प्रथा समाप्त कर नियमित करने या विभागीय संविदा पर रखने, श्रम नियमों द्वारा देय आवास-अवकाश-चिकित्सा-ई.एस.आई.-वेतन बढ़ोत्तरी-नौकरी की सुरक्षा-सुरक्षा उपकरण आदि प्रदान करने व 30-40 वर्षों से विश्वविद्यालय की परियोजनाओं में लगातार कार्यरत तमाम नियमित कर्मचारियों की वेतन बंदी खत्म करने, सेवानिवृत्ती के बाद पेंशन बंद करने जैसे शासन-प्रशासन के मजदूर विरोधी फैसले के खिलाफ, सामूहिक बीमा सुविधा देने, चिकित्सा प्रतिपूर्ति 10,000 में बढ़ोत्तरी कर राज्यकर्मियों की भांति करने आदि 12 सूत्रीय मांग पत्र सौंपा गया था। <br />
विश्व विद्यालय द्वारा मांग पत्र पर उचित कार्यवाही नहीं करने पर संयुक्त मोर्चा के तहत 29 नवम्बर 2016 से मजदूर आंदोलन पर हैं जिसके तहत रोजाना सभी केन्द्रों पर नारेबाजी, परिसर में जुलूस, धरना प्रदर्शन किया गया फिर क्रमिक अनशन किया गया। जनवरी 2017 से शासन-प्रशासन द्वारा आचार संहिता का हवाला देकर पीएसी-पुलिस के तमाम लाव-लश्कर का भय दिखाकर आंदोलन समाप्त करा दिया गया था। मोर्चा द्वारा आंदोलन स्थगित किया गया था। इस बीच मजदूरों की एकता और संघर्षों की बदौलत शासन-प्रशासन के बीच तमाम दौर की वार्ताओं में बनी सहमति पर कोई आदेश जारी न होने पर 25 अप्रैल 2017 से मजदूर पुनः आंदोलन पर हैं। साप्ताहिक हाजिरी लगाकर दो चार घंटे धरना प्रदर्शन-क्रमिक अनशन जारी है। पर प्रशासन आदेश करवाना तो दूर उलटा और हमलावर हुआ है। <br />
मजदूर अपने अनुभव से जानता है कि उसे बिना एकता और जुझारू संघर्ष के आज तक कुछ नहीं मिला है सो आंदोलन तेज कर काम बंदी, हड़ताल करने का स्वर मजदूरों में तेजी से उठता रहा है। परन्तु राजनीतिक चुनावबाज पार्टियों की पिछलग्गू ट्रेड यूनियन सेंटरों की वजह से मजदूर आंदोलन कमजोर पड़ा हुआ है। पूरे देश में ठेका प्रथा चरम पर है। सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थानों में ठेकेदारी के तहत निर्मम शोषण किया जा रहा है। स्थाई मजदूरों की यूनियनें संघर्ष की धार खो चुकी हैं। आज समझौतापरस्त यूनियनों द्वारा संघर्ष को उग्र नहीं किया जा रहा है तथा उनका नेतृत्व पार्टियों, मंत्रियों की दया पर मांगों को हासिल करना चाहता है। <br />
पंतनगर के मजदूरों के संघर्षों का जुझारू इतिहास रहा है। 1978 में मजदूरों ने अपने नारकीय जीवन व शोषण के खिलाफ संघर्ष में अपने 14 साथियों का बलिदान देकर स्थाई नियुक्ति एवं श्रम कानूनों का पालन, सुविधाएं देने हेतु वि.वि. प्रशासन को बाध्य किया था। पर दुर्भाग्य रहा कि वि.वि. में कई सारी यूनियनों की उपस्थिति के बावजूद 2003 में शासन-प्रशासन द्वारा ठेका प्रथा लागू कर हजारों मजदूरों को पुनः श्रम कानूनों से वंचित कर नारकीय जीवन जीने को मजबूर कर दिया गया। समझौता परस्त यूनियनों ने न 2003 में विरोध किया और 2016 के अंत तक मजदूरों के शोषण पर चुप रहे। <br />
शासन-प्रशासन द्वारा अनदेखी के खिलाफ पंतनगर वि.वि. के ठेका मजदूर अपने शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ लगातार संघर्षरत रहे। ठेका मजदूर कल्याण समिति के नेतृत्व में 30 नवम्बर 2012 को न्यूनतम मजदूरी रुपये 10,000 करने, ई.एस.आई. सुविधा देने की मांग पर श्रमायुक्त कार्यालय हल्द्वानी में सैकड़ों मजदूरों ने घेराव व प्रदर्शन किया। 5 मार्च 2014 को सहायक श्रमायुक्त कार्यालय रुद्रपुर तक साइकिल रैली निकालकर धरना प्रदर्शन किया जिसमें करीब 1000 मजदूर शामिल रहे। स्थाई करने की मांग एवं शासन-प्रशासन की हठधर्मिता के खिलाफ सितम्बर 2014 में ठेका मजदूरों ने स्वतः स्फूर्त जुझारू आंदोलन किया। शासन-प्रशासन ने मजदूरों की समस्याओं को हल करने के बजाय आंदोलनकारियों पर भयंकर लाठीचार्ज कर भारी दमन कर 24 मजदूरों को मौके से गिरफ्तार कर फर्जी मुकदमे लादकर जेल में डाल दिया गया। कुल मिलाकर 42 मजदूरों पर फर्जी मुकदमे दर्ज किये गये। अब स्थिति वहां पहुंच गयी है कि बगैर ठेका मजदूरों को साथ लिए वि.वि. में कोई जुझारू आंदोलन खड़ा नहीं किया जा सकता। <br />
ठेका मजदूरों के इन सारे संघर्षों की बदौलत श्रम एवं रोजगार मंत्रालय भारत सरकार को ईएसआई विभाग से दो बार पंतनगर का सर्वे कराकर पंतनगर वि.वि. में ईएसआई लागू करने का शासनादेश करना पड़ा। वर्ष 2013 में न्यूनतम मजदूरी पुनरीक्षित कर बढ़ानी पड़ी। हर छः माह में महंगाई भत्ता लागू करना पड़ा। वर्तमान संघर्षों से शटल पर बैठने का आदेश, अवकाश का अधूरा ही सही आदेश जारी करना पड़ा। जब यूनियनों द्वारा मोर्चा बनाया गया तो परिस्थितिवश ठेका मजदूरों को तभी आंदोलन में साथ लिया गया पर शासन-प्रशासन की हठधर्मिता के खिलाफ मजदूरों में आंदोलन उग्र करने के तमाम स्वर उठने के बावजूद आंदोलन तेज नहीं किया गया। चुनाव पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के शासन काल में पंतनगर के ठेका मजदूरों को उपनल के समान मजदूरी देने का शासनादेश जारी होता है। आदेश लागू करने को प्रशासन द्वारा शासन से धन की मांग की गयी। मुख्यमंत्री द्वारा कहा गया कि हमारी सरकार के पास पैसा नहीं है। वोट बैंक की खातिर 7-8 वर्ष लगातार कार्य कर चुके, ठेका मजूदरों को संविदा पर घोषित करने का आदेश, शिगूफा उछाला गया। इतने पर भी यूनियनों द्वारा उत्तराखण्ड सरकार मुर्दाबाद के नारे से परहेज था। कल्याण समिति ने साथियों द्वारा उत्तराखण्ड सरकार मुर्दाबाद नारा लगाने पर एटक, इंटक नेतृत्व झगड़े पर उतारू हो गया। मजदूरों की एकता पर भरोसा न करने वाला नेतृत्व अब सत्ता पक्ष-भाजपा नेताओं का पिछलग्गू बना हुआ है। <br />
दिशाहीन आंदोलन में न तो मजदूरों के कहने से आंदोलन तेज किया गया और न ही मजदूरां की आवाज को स्वर देने वाली कल्याण समिति की बात सुनी गयी। समिति मजदूरों की सही बातें, मांगें हर जगह-मंच, वार्ताओं में उठाते रही जिसके पुराने ट्रेड यूनियन नेता हमेशा विरोधी रहे। वे समिति को मोर्चे से बाहर निकालने को धमकाते अपमानित करते रहे। इनकी हां में हां न मिलाने पर अंतरविरोध और बढ़े समिति के शुभ चिंतकों को भी यह अपना निजी दुश्मन समझने लगे। <br />
16 मई 17 को प्रशासनिक भवन पर मजदूरों की सभा में आंदोलन को समर्थन देने पहुंची इंकलाबी मजदूर केन्द्र की महिला नेत्रियों ने आंदोलन को समर्थन हेतु मंच पर अपनी बात कहने को समय देने को कहा। संचालन कर रहे इंटक नेता ने कहा आप बाहर के लोगों को बोलने नहीं दिया जायेगा। कोई समर्थन नहीं चाहिए। सवाल करने पर अपमान किया गया, हंगामा खड़ा कर माओवाद, नक्सलवाद मुर्दाबाद के नारे लगाकर इमके के लोगों को बोलने से रोका गया। <br />
इतना ही नहीं पिछले 9-10 वर्षों से ठेका प्रथा के खात्मा, श्रम नियमों द्वारा देय सुविधाओं के लिए एक मात्र ठेका मजदूरों की प्रतिनिधिक संस्था को ही मोर्चा आंदोलन से बाहर कर दिया गया। (यूनियनों एटक, इंटक, बी.एम.एस. की भाषा में मोर्चा द्वारा समिति को प्रतिबंधित कर दिया गया।)<br />
अवसरवादी यूनियनों ने मजदूरों को हमेशा अपनी मांगों को लेकर धोखा दिया, इस्तेमाल किया सो इनके कुकर्मों की लिस्ट मई 2003 से लम्बी थी। चाहे ठेका प्रथा में फंसे मजदूरों की बात हो, छठा वेतनमान का 2009 का संघर्ष, ठेका मजदूरों की एक माह की गैर हाजिरी या फिर वर्ष 2014 के ठेका मजदूरों में स्वतः स्फूर्त आंदोलन में मजदूरों पर लगे फर्जी मुकदमे हर समय इन यूनियनों के व्यवहार से मजदूर वाकिफ थे। कमजोर होती यूनियनों, हमलावार प्रशासन से नियमित मजदूरों की मांगें हासिल करने के संघर्ष में ठेका मजदूर कैसे आयें इस हेतु शातिर नेतृत्व द्वारा ठेका मजदूर कल्याण समिति को मोर्चे में शामिल करके उसकी साख और आधार का इस्तेमाल किया गया और जब कल्याण समिति के कार्यकर्ताओं की दौड़ भाग, मेहनत से मजदूर आंदोलन में आने लगे तो यूनियनें समिति के साथ भेदभाव, गैर बराबरी कर आंदोलन को अपने कब्जे में लेकर ठेका मजदूरों को अपने प्रभाव में लेते रहे। अंततः ठेका मजदूर कल्याण समिति को आंदोलन से बाहर कर ठेका मजदूरों को नेतृत्व विहीन कर दिया गया। उन्हें ठेका मजदूरों की ताकत चाहिए पर हर जगह ठेका मजदूरों की मांगें उठाने, दखल देने वाला नेतृत्व नहीं चाहिए था। <br />
ठेका मजदूर 2003 में नेतृत्व विहीन था। ठेका प्रथा लागू होते समय किसी यूनियन संगठन द्वारा शोषण उत्पीड़न पर बात नहीं की गयी थी। वर्ष 2009 से ठेका मजदूर कल्याण समिति अपनी स्थापना के समय से ही इनकी मांगे उठाते हुए नेतृत्व देती रही तो यह प्रशासन की आंखों की किरकिरी बनी हुयी थी। <br />
आज फिर समझौता परस्त अवसरवादी यूनियनों द्वारा ठेका मजदूरों को, कल्याण समिति को आंदोलन से बाहर करके नेतृत्व विहीन किया जा रहा है। इतना ही नहीं मजदूरों के शोषण उत्पीड़न को सही तरह से उठाने वाले मजदूर संगठन, समिति को माओवाद-नक्सलवाद कहकर कमजोर करने के लिए पुरानी यूनियनें जहर उगल रही हैं। <br />
अब जबकि समिति को मोर्चे से अलग कर ठेका मजदूरों की मांगों को हाशिए पर डाल दिया गया है। अब ठेका मजदूरों को अपनी मांगों हेतु आंदोलन नेतृत्व से सवाल करना होगा- <br />
1. 4 अक्टूबर 2016 को शासन द्वारा उपनल के समान मजदूरी का जारी आदेश लागू क्यों नहीं किया गया। मजदूरों को उपनल के समान मजदूरी क्यों नहीं मिली। 10-12 प्रतिशत की बात क्यों चल रही है?<br />
2. वर्ष 2003 से पूर्व से लगातार 10-15 वर्षों से कार्यरत कर्मियों को ठेका प्रथा से हटाकर संविदा पर रखने की सहमति बनी थी। संविदा पर रखने के आदेश क्यों नहीं हुए। क्यों नहीं संविदा पर रखा गया? दिसम्बर माह से साप्तहिक दो चार घंटे का धरना प्रदर्शन से आगे बढ़कर आंदोलन उग्र क्यों नहीं किया गया। <br />
3. सारे कानूनी साक्ष्य उपलब्ध कराने पर आवास, अवकाश, ई.एस.आई. लागू करने की सहमति बनी थी। उसका क्या हुआ? इसमें वार्ता कमेटी से भी अलग छोटी कमेटी ने क्या किया खुलासा किया जाय?<br />
4. प्रशासन की उच्च समिति, वार्ता समिति, जिसमें सारे विशेषज्ञ हैं से इतर मामले को टालने, उलझाने, एवं अवसर वादियों के निजी स्वार्थों के लिए बनने वाली कमेटियों का विरोध किया जाए। <br />
5. ठेका मजदूरों की प्रतिनिधि संस्था ठेका मजदूर कल्याण समिति के नेताओं को यूनियनें शासन से वार्ता हेतु देहरादून क्यों नहीं ले गयीं? क्यों प्रशासन की वार्ता में नहीं ले जा रहीं? क्यों ठेका मजदूरों को नेतृत्व विहीन कर रही हैं?<br />
6. मई 2003 में ठेका प्रथा लागू होने से अब तक ठेका मजदूरों के शोषण-उत्पीड़न पर चुप रहने वाली यूनियन, वर्ष 2009 से लगातार ठेका मजदूरों की मांगें शासन प्रशासन को उठाती रही, संघर्षरत रही समिति को आज आंदोलन से बाहर कर (यूनियनों की भाषा में प्रतिबंधित करने वाली) कौन होती हैं। आंदोलन में जाने से रोकने वाले कौन होते हैं? इनको यह अधिकार किसने दिया है? <br />
ठेका मजदूरों को अपनी मांगों को हासिल करने के लिए जुझारू संघर्ष करते हुए अपने संगठन को मजबूत करना होगा। शासन-प्रशासन एवं मजदूर विरोधी यूनियनों व दलाल नेतृत्व मंसूबों को नेस्तनाबूत करके ही एकता और संघर्षों की बदौलत अपनी मांगें पूरी की जा सकती हैं। ठेका प्रथा खत्म की जा सकती है। <strong> - पंतनगर संवाददाता</strong>
पंतनगर विश्वविद्यालय एवं ठेका मजदूरों का संघर्ष
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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।