सिलक्यारा : सुरंग में धकेलने वाले ही मुक्तिदाता बने

सिलक्यारा

सिलक्यारा

सिलक्यारा की सुरंग में फंसे 41 मजदूर काफी जद्दोजहद के बाद सकुशल बचा लिये गये। पूंजीवादी मीडिया ने क्रिकेट विश्व कप के बाद सुरंग में फंसे मजदूरों को बचाने के आपरेशन को ही मुख्य खबर बना लिया था। पूरे ताम-झाम के साथ मीडिया ने पूरे देश को बताया कि कैसे मोदी से लेकर धामी तक दिन-रात मजदूरों को बचाने में एक किये हुए हैं कि कैसे मजदूरों के सुरंग से बाहर निकलते ही मुख्यमंत्री धामी ने माला पहनाकर उनका स्वागत किया। इस सबके बीच इस सवाल को मीडिया ने बड़ी चालाकी से गायब कर दिया कि मजदूरों को सुरंग में फंसाने का दोषी कौन है? और अब तक उन पर क्या कार्यवाही हुई? 
    
क्रिकेट विश्व कप फाइनल से अनुभव हासिल कर बचाव का सारा श्रेय लेने खुद प्रधानमंत्री मोदी सिलक्यारा नहीं पहुंचे। पर श्रेय लेने में माहिर प्रधानमंत्री ने अगले ही दिन आनलाइन मजदूरों से बात कर इस कमी की भरपाई जरूर कर दी। 
    
मीडिया मैनेजमेंट में माहिर संघ-भाजपा ने सुरंग में फंसे मजदूरों की आपदा को भी अवसर में बदलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। जगह-जगह यज्ञ-हवन से लेकर एक मंत्री-मुख्यमंत्री की निरंतर तैनाती से मजदूरों को बचाने का सारा श्रेय लूटने में संघ-भाजपा ने पूरी तत्परता दिखाई। लगे हाथ थोड़ा श्रेय देवताओं को भी दे दिया गया। 
    
वास्तविकता यही है कि पहाड़ का सीना चीर सुरंग बनाने वाले भी मजदूर थे और सुरंग में सुराख कर मजदूरों की जान बचाने वाले भी मजदूर थे। मजदूरों ने ही मजदूरों की जान बचाई।
    
सवाल उठता है कि मजदूरों को सुरंग में फंसाने का दोषी कौन है? कौन हिमालय में आल वैदर रोड बनाने को तत्पर है? किसने नवयुग इंजीनियरिंग को बगैर मानक पूरा किये मजदूरों की जान जोखिम में डालने की छूट दी? किसने पर्यावरणवादी-वैज्ञानिकों की चेतावनियों कि पहाड़ में इस तरह का विकास आत्मघाती होगा, को नजरअंदाज किया? अगर इन सवालों का जवाब तलाशेंगे तो एक ही उत्तर सामने आयेगा- मोदी-धामी।
    
यही हकीकत है कि केन्द्र और राज्य की भाजपा सरकारें केदारनाथ से लेकर उत्तरकाशी तक की आपदा को संज्ञान में लेने को तैयार नहीं हैं। उत्तराखण्ड में कच्चे पहाड़ों का सीना चीर ये नये खतरों को पैदा कर रही हैं। पर्यावरणविदों-वैज्ञानिकों की चेतावनियों को नजरदांज कर रही हैं। पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देने के नाम पर यह सब किया जा रहा है। पूंजीवादी विकास अक्सर ही प्रकृति का अंधाधुंध दोहन कर उसे चौपट करता है पर भाजपा-संघ तो शायद बदरी-केदार धाम पर इतनी आस्था रखे हैं कि मानो इन दोनों धामों के नीचे के सारे पहाड़ दरक भी जायें तो दैवीय कृपा से ये धाम बचे रहेंगे। 
    
इस पर भी सड़क निर्माण का ठेका ऐसी कंपनी को दे दिया जाता है जो मजदूरों के सुरक्षा मानकों को भी पूरा नहीं करती। खर्च बचाने के लिए सुरंग खोदने में तय मानकों को भी पूरा नहीं करती और मजदूरों की जान को हर दिन खतरे में डालती है। 41 मजदूरों के फंसने पर भी कंपनी पर कोई कार्यवाही नहीं होती।
    
ये सब बातें दिखलाती हैं कि मजदूरों को सुरंग में फंसाने वाली केन्द्र व राज्य की भाजपा सरकार व नवयुग इंजीनियरिंग ही थी। वैसे भी पूंजीपतियों के लिए काम करने वाली सरकारें हर रोज फैक्टरी दुर्घटनाओं, सड़क निर्माण, खदानों सभी जगह मजदूरों की जान लेती रहती हैं। मजदूरों की जान का उनके लिए कोई मोल ही नहीं है। 
    
मजदूर वर्ग इस बात को समझता है कि सिलक्यारा में 41 मजदूरों को बचाने की नौटंकी करने वाले ही दरअसल सुरंग में धकेलने के असली दोषी हैं।  

आलेख

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।