यौन हिंसा और ‘‘आठ मार्च’’

    आज भारत में महिलाओं की सबसे बड़ी समस्या को चिह्नित किया जाय तो वह महिलाओं के खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा है। इस हिंसा का शिकार मासूम अबोध बच्चियों से लेकर अति वृद्ध महिलाएं तक बन रही हैं। सरकारें, समाज महिलाओं को वह स्थान देने में एकदम अक्षम साबित हो रहे हैं जहां वे सुरक्षित व सम्मान के साथ जीवन जी सकें। वे हर जगह असुरक्षित हैं चाहे वह परिवार हो, अडोस-पड़ोस हो अथवा काम या सामाजिक जगहें हों। और हकीकत तो यह है कि वे सबसे ज्यादा अपने घर और अड़ोस-पड़ोस में ही असुरक्षित हैं। वहां वे असुरक्षित हैं जहां उन्हें सबसे ज्यादा सुरक्षित माना जाता है। जहां बनाये रखने के लिए पूरा परिवार, पूरी बिरादरी, पूरा समाज, पूरा धर्म पूरा जोर लगा देते हैं। <br />
    यौन हिंसा का सबसे खतरनाक रूप सामूहिक बलात्कार हैं। गैंग रेप की घटनाएं देश की राजधानी से लेकर उन समाजों में तक फैलती जा रही हैं जिनके बारे में मिथक है कि ये समाज महिलाओं के लिए ज्यादा बेहतर हैं। निर्भया कांड में पूरे देश में लाखों लोग आंदोलित और व्यथित हुए थे परंतु उसके बाद ऐसी घटनाओं में कोई कमी आने के बजाय बढ़ोत्तरी ही हुई है। दिल्ली में ऐसी वीभत्स घटनाओं की झड़ी लगी हुई है। दिल्ली, जहां चप्पे-चप्पे पर पुलिस और सेना की मौजूदगी हो वहां यदि महिलाएं असुरक्षित हैं तो फिर वे कहां सुरक्षित हो सकती हैं। <br />
    असल में यह महिलाओं के लिए होने वाली हिंसा, अपराधों के बारे में सबसे ज्यादा प्रचारित भ्रम है कि मजबूत सरकार, सख्त पुलिस-कानून, सजा से महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा, अपराधों को रोका जा सकता है। यह असंभव है। निर्भया कांड ने यह स्पष्ट रूप से दिखला दिया कि यह चंद अपराधी व्यक्तियों की सोच व नजरिये की बात नहीं है बल्कि पूरी व्यवस्था ही उन विचारों, मूल्यों से लैस है जिनसे अपराधी लैस थे। अपराधियों को बचाने वाला वकील वही भाषा बोल रहा था जो अपराधी बोल रहे थे। ओर ऐसी भाषा बोलने वाले समाज में पुरुष ही नहीं बल्कि कई महिलाएं भी मिल जाती हैं जो नब्बे वर्ष की वृद्ध महिला से बलात्कार करने वाले नौजवान लड़के के बारे में यह कह सकती हैं कि उनका पहले से कोई चक्कर था। या सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई महिला के बारे में कह सकती हैं कि उसी ने मर्दों को उकसाया होगा। यानी जब समाज में शीर्ष में बैठे लोगों से लेकर आम लोग यौन हिंसा व अपराधों के लिए महिलाओं से सहानुभूति रखने के स्थान पर अपराधियों की तरफदारी करते हों तो सवाल पूरे समाज के चरित्र व संरचना पर खड़ा हो जाता है। इस पूरे समाज का ताना-बाना इस ढंग से बना हुआ है जहां कोई कानून, कोई पुलिस, कोई सरकार, कोई अदालत, किसी भी तरीके से यौन हिंसा समाप्त नहीं कर सकती है और यहां तक कि लगाम भी नहीं लगा सकती है। <br />
    महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा आज के पूंजीवादी समाजों में ही नहीं पूर्व के समाजां में भी मौजूद थी और अतीत में जायें तो यौन हिंसा वहां से दिखाई देने लगती है जहां महिलाओं को सामाजिक उत्पादन व सामाजिक जीवन में पददलित किया जाने लगा था। यानी वर्गीय समाजों की उत्पत्ति के साथ यह यौन हिंसा प्रारंभ होने लगती है और आज यह व्यापक और विकराल रूप धारण करती जा रही है। <br />
    वर्गीय समाज की उत्पत्ति के साथ यौन हिंसा के दो संगठित और भिन्न रूप सामने आये। दोनों रूप एक-दूसरे से विपरीत थे परंतु उनमें कई एकरूपताएं थीं। ये रूप थे एकनिष्ठ विवाह और वेश्यावृत्ति। एक में स्त्री सिर्फ एक पुरुष के लिए थी तो दूसरे में स्त्री का कोई पति नहीं होता था। और दोनों ही रूपों में स्त्री कहीं नहीं थी। और स्त्री को हासिल करने का अर्थ था धन, सम्पत्ति सत्ता। स्त्री मनुष्य से एक जीवित वस्तु में बदलती चली गयी। एक ऐसी वस्तु जिसको काबू में रखने के लिए समाज ने कई नियम-उपनियम, रीति-रिवाज, आचार संहिता व मूल्य बनाये। कानून धर्म आदि के जरिये इसको संगठित व पवित्र रूप दिया गया। आज भारत में महिलाओं के खिलाफ होने वाली यौन हिंसा पर जैसे ही गहराई से विचार किया जायेगा तो ये बातें तीक्ष्णता से महसूस होती व समझ में आती हैं। इसलिए यदि कोई मानव जाति से यौन हिंसा व अपराधों के कलंक को मिटाना चाहता है तो उसे उस दायरे से कहीं और बहुत ज्यादा पार सोचना पड़ेगा जिसे कानून, अदालत, सजा, पुलिस व सरकार आदि कहते हैं। यह हिंसा, अपराध तब तक खत्म नहीं हो सकते हैं जब तक वर्गीय समाज खासकर आज के पूंजीवादी समाज की पूर्ण तौर पर नींव न खोदी जाय। <br />
    और यह बात पूरे बीसवीं सदी के इतिहास से और भी प्रखर ढंग से समझ में आती है। बीसवीं सदी में उन्हीं समाजों ने स्त्रियों के साथ होने वाली सामाजिक गैर बराबरी से लेकर यौन हिंसा को खत्म करने में कामयाबी पायी जो वर्गीय समाजों की नींव खोदने की ओर बढ़े। ओर वहां भी ऐसा तभी तक होता रहा जब तक वहां यह काम जारी था। जिस दिन वे दुबारा से पूंजीवादी समाज में तब्दील हुए हालात वैसे ही होने लगे जैसे पहले थे।<br />
    यहां बात महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति के बाद कायम सोवियत संघ की समाजवादी व्यवस्था की की जा रही है। मजदूर वर्ग के नेतृत्व में हुई इस क्रांति ने मानव जाति के इतिहास में पहली बार ऐसी व्यवस्था कायम की जहां महिलाएं आजाद, बराबर और यौन हिंसा से मुक्त थीं और जब तक समाजवाद कायम रहा तब तक यहां ऐसी चीज देखी नहीं गयी जो पूंजीवादी समाजों में आम है। सोवियत संघ में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद और खासकर सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस के आज हालात वैसे ही हैं जैसे किसी अन्य यूरोपीय देश में। यही बात चीन, कोरिया, वियतनाम, क्यूबा आदि देशों के बारे में कही जा सकती है जहां एक समय समाजवाद रहा। आज का पूंजीवादी चीन महिलाओं के लिए फिर से सामाजिक जेलखाना बन गया है। भू्रण हत्या, यौन हिंसा एकदम आम हो गये हैं जबकि समाजवादी चीन में इनका नामोनिशान भी खत्म कर दिया गया था। <br />
    आठ मार्च - अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक महिला दिवस के दिन कोई भी यदि महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा पर गंभीरता से विचार और काम करना चाहता है तो उसे उपरोक्त ढंग से सोचने को बाध्य होना पड़ेगा। पूंजीवाद में महिला मुक्ति, बराबरी, आजादी असंभव है। यह रास्ता सिर्फ और सिर्फ समाजवाद से होकर जाता है। महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति के दिखाये रास्ते से होकर जाता है। 

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