मणिपुर में हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। यह स्थिति तब है जब एक तरह से मणिपुर में सैन्य शासन लागू है। मणिपुर के सभी संवेदनशील जगहों पर सेना व अर्द्धसैनिक बल तैनात हैं। इण्टरनेट पर पाबंदी है। अब तक 75 जानें जा चुकी हैं। हजारों लोग अपने घर से बेघर हो गये हैं। वे कठिन हालात में सेना-पुलिस द्वारा संरक्षित कैम्पों में रह रहे हैं। आगजनी की घटनाओं में सैकड़ों लोगों के घर, दुकान आदि चपेट में आ चुके हैं।
मणिपुर में जारी हिंसा के बीच देश के गृहमंत्री व प्रधानमंत्री का व्यवहार ऐसा है मानो उन्हें कोई फर्क न पड़ता हो। गृहमंत्री पहले कर्नाटक चुनाव में व्यस्त रहे अब वे मणिपुर छोड़कर हर कहीं जा जा रहे हैं। सबसे खराब तो उनका बयान है। वे कहते हैं, ‘‘मैं जल्द ही मणिपुर जाऊंगा और वहां तीन दिन रहूंगा लेकिन उससे पहले दोनों गुटों को आपस में अविश्वास और संदेह दूर करना चाहिए और सुनिश्चित करना चाहिए कि राज्य में शांति बहाल हो।’’
जो कोई अमित शाह के बयान को गहराई से देखेगा तो वह समझ जायेगा यह किसी शहंशाह के बयान जैसा है। जो मानो कह रहा हो, अगर आप मेरे दर्शन करना चाहते हो तो पहले अपने आपसी झगड़े निपटा लो। अब यदि सब कुछ मणिपुर के लोग ही कर लेंगे तो फिर आप या आपका मुख्यमंत्री अथवा सेना-पुलिस की क्या जरूरत है।
मणिपुर की आज की बुरी हालत के लिए भाजपा व संघ के लोग ही जिम्मेवार हैं। उन्होंने ही हिंसा को धार्मिक रंग से भरा। ऐसे समाज में जहां पहले से ही नृजातीय साम्प्रदायिक तनाव हमेशा से मौजूद रहा है। गौरतलब है कि मणिपुर की इम्फाल घाटी में रहने वाले मैतेई समुदाय में प्रकृति पूजक, वैष्णव मत मानने वाले हिन्दू व मुस्लिम हैं। वर्चस्व हिन्दू मत मानने वालों का है। जबकि मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले कूकी, नागा व जूमी मूलतः ईसाई धर्म को मानने वाले हैं। कई प्रकृति पूजक भी हैं। उ.पू. भारत में अपने प्रचार व प्रभाव को बढ़़ाने के लिए भाजपा-संघ ने हिन्दू धर्म को आधार बनाया है। मणिपुर, त्रिपुरा व असम में इन्होंने घोर साम्प्रदायिक प्रचार किया है और मुस्लिम व ईसाईयों को अपने निशाने पर लिया है। मणिपुर में पहली दफा इतने बड़े पैमाने पर धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुंचाया गया।
यह बात ठीक है कि वर्तमान तनाव व हिंसा की मूल वजह मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति के दर्जे की मांग रही है। मणिपुर में कूकी, नागा व अन्य जनजातियों को अनुसूचित जनजाति के दर्जे का हक हासिल है। वहां उनकी जमीन को गैर अनुसूचित जनजाति के लोग नहीं खरीद सकते हैं। इसका अर्थ मैतेई समुदाय के लोगों के लिए यह निकलता है कि वे तो कूकी व नगा बहुल इलाकों में जमीन नहीं खरीद सकते हैं परन्तु वे लोग मैतेई बहुल इम्फाल घाटी में जमीन खरीद सकते हैं। मैतेई समुदाय मणिपुर का सबसे प्रमुख राजनैतिक-सामाजिक रूप से सशक्त समुदाय है हालांकि अमीर-गरीब का देशव्यापी बंटवारा यहां भी लागू होता है। मैतेई समुदाय की स्थिति ठीक वैसी ही है जैसे कि असम में असमिया लोगों की है। एक तरफ वे भारतीय राज्य व शासक वर्ग से अपने को उत्पीड़ित-दमित पाते हैं परन्तु दूसरी तरफ अपने राज्य के भीतर वे स्वयं उत्पीड़न व दमन करने वाली भूमिका में होते हैं। कूकी व नागा लोगों के मैतेई समुदाय से गहरे अंतर्विरोध रहे हैं।
भाजपा व संघ ने मणिपुर के नृजातीय अंतरविरोधों को हल करने के स्थान पर उसे धार्मिक रंग से भर दिया। नृजातीय साम्प्रदायिक तनाव को धार्मिक-साम्प्रदायिक रंग से रंग दिया है। यही काम भाजपा व संघ ने असम, त्रिपुरा और यहां तक कि अरुणाचल प्रदेश में भी किया है।
मणिपुर की समस्या जिस जगह पर उलझ चुकी है वहां एक तरफ कुंआ और दूसरी तरफ खाई है। मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति दर्जे के लिए भड़काने में मूल भूमिका भाजपा व उसके नेतृत्व में कायम राज्य सरकार की है। यदि उसे यह दर्जा दिया जाता है तो हिंसा और ज्यादा भड़केगी तथा उ.पू. के राज्य अशांति व हिंसा के नये चरण में पहुंच जायेंगे। अनेकानेक समुदाय जो कि गैर जनजातीय हैं वे भी यही मांग करेंगे।
अमित शाह को भी ठीक से पता है कि वह अभी मणिपुर जाकर क्या करेंगे। और कौन है जो उनकी आवाज सुनेगा। उनकी शांति की अपील एक खोखली अपील है।