बढ़ती यौन हिंसा

    भारतीय समाज का वीभत्स यथार्थ एक के बाद दूसरी घटना से सामने आता रहता है। बदायूं की घटना ने निर्भया कांड जैसी राजनैतिक सनसनी और हलचल को जन्म दिया। शासक वर्ग का हर व्यक्ति, हर संस्था अपनी संवेदनशीलता का ऐसा प्रदर्शन कर रही थी कि खुद संवेदनशीलता शरमा जाए।<br />
    कठोर कानून की मांग से लेकर बेशर्म राजनीतिज्ञों की भोंथरी दलीलों के बीच यह सवाल खड़ा है कि स्त्रियों के खिलाफ यौन हिंसा क्यों बढ़ती जा रही है। भारत ही नहीं अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों में यौन हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं। ऐसा क्यों हो रहा है?<br />
    मिस्र में तो अभी चुने गये राष्ट्रपति पूर्व सैन्य कमांडर फतेह अल-सीसी के विजय समारोह में महिलाओं के साथ ऐसी घटनाएं सरेआम तहरीर चैक पर घटीं। एक घटना में किशोर उम्र के लड़कों से लेकर प्रोढ़ों के गिरोह ने एक स्त्री और उसकी किशोर उम्र की बेटी को एक घेरे में ले लिया। स्त्री को निर्वस्त्र कर उसके ऊपर खौलता पानी डाल दिया। यह भारत के भगाना गांव (हरियाणा) की घटना से ज्यादा भिन्न नहीं है।<br />
    भारत में स्त्रियों के खिलाफ यौन हिंसा जातीय और साम्प्रदायिक हिंसा से नहीं बल्कि राजकीय हिंसा से इस कदर गुंथी हुयी होती है कि उसमें कोई फर्क करना मुश्किल है या दूसरे शब्दों में किसी जाति, समुदाय या राष्ट्रीयता के लोगों का अपमान, दमन या उत्पीड़न करना हो तो स्त्रियों को निशाना बनाया जाता है। या समाज में कोई भी तनाव हो उसकी परिणति के तौर पर स्त्रियों को निशाना बनाया जाना अनिवार्य नियम है।<br />
    मुजफ्फरनगर के साम्प्रदायिक दंगों में भी एक बड़ी संख्या में स्त्रियों के साथ बलात्कार किये गये। भगाना की घटना में तो उत्पीडि़त स्त्रियों और अन्यों की गुहार सुनने को भी कोई तैयार नहीं है। बदायूं की घटना की तरह की कई घटनाएं उत्तर प्रदेश में उसके बाद घट चुकी हैं।<br />
    असल में इन सब में समस्या कठोर कानून के अभाव, शौच सुविधा का ना होना, पुलिस-प्रशासन की व्यवस्था का चुस्त-दुरूस्त न होना जैसी चीजों की नहीं है। समस्या हमारे समाज के सम्पूर्ण ढांचे और उसके चरित्र से जुड़ी हुई है। क्योंकि आज की दुनिया पूंजीवादी दुनिया है इसलिए महिलाओं के खिलाफ हिंसा की समस्या के मूल कारण भी इसी पूंजीवादी व्यवस्था और उसके मनुष्य विरोधी चरित्र से जुड़े हैं।<br />
    यही कारण है कि तथाकथित सभ्य पूंजीवादी देश हों अथवा भारत, मिस्र, पाकिस्तान जैसे पिछड़े पूंजीवादी देश हर जगह महिलाओं के खिलाफ हिंसा और दोयम दर्जे का व्यवहार आम है। हां, यहां यह तथ्य विशेष तौर पर गौर करने लायक है कि यौन हिंसा या दोयम दर्जे के व्यवहार की शिकार होने वाली महिलाएं शासक वर्ग या पूंजीपति वर्ग के तबके से नहीं होती हैं। यदा-कदा कभी कोई घटना उस वर्ग की महिलाओं पर घट भी गयी तो उन्हें कानून और व्यवस्था का पूरा संरक्षण व साथ मिल जाता है।<br />
    यौन हिंसा का शिकार होने वाली महिलाएं मजदूर, किसान और निम्न मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि से होती हैं। मजदूर महिलाओं का जीवन इस मामले में सबसे ज्यादा असुरक्षित होता है। और उन्हें न्याय शायद ही कभी मिलता है। पूंजीवादी व्यवस्था के इस आम चरित्र को पूरी दुनिया में देखा जा सकता है। अमेरिका, भारत, मिस्र, चीन कोई भी देश इस मामले में अपवाद नहीं है।<br />
    भारत में मुजफ्फरनगर, भगाना, बदायूं जैसी घटनाओं में भी मूलतः वही बात लागू होती है। यौन हिंसा की शिकार महिलाएं मजदूर वर्ग की पृष्ठभूमि से थीं। जातीय, साम्प्रदायिक या राजकीय हिंसा के समय इस वर्ग की महिलाओं को निशाना बनाना सबसे आसान होता है। उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं होता है जो उन्हें सुरक्षित कर सके। ना उनका घर ना उनकी काम की जगह और ना ही उनके शौच या प्रसाधन की जगह।<br />
    बदायूं की घटना को शौचालय के अभाव से जोड़ने वाले राजनीतिज्ञ और <span style="font-size: 12.8000001907349px; line-height: 20.7999992370605px;">पूंजी</span>वाद के टुकड़ों पर पलने वाले गैर सरकारी संगठन कभी यह कह ही नहीं सकते कि समस्या स्वयं पूरी पूंजीवादी व्यवस्था में है जहां मजदूर, किसान, निम्न मध्यम वर्गीय महिलाएं हर जगह असुरक्षित हैं। घर अगर उनकी बंद जेल है तो पूरा समाज एक खुला जेलखाना है।<br />
    पूंजीवादी समाज और उसका पूरा शासन तंत्र चाहे उसका रूप कुछ भी हो, आम महिलाओं के खिलाफ है। उसमें देश विशेष की परिस्थितियों का कुछ कम या ज्यादा फर्क हो सकता है परंतु उसका मूल चरित्र एक ही है। इस बात का अर्थ यह है कि यदि कोई पूंजीवादी व्यवस्था के मूल चरित्र पर सवाल उठाये बिना स्त्रियों को यौन हिंसा से निजात दिलाने की बात करता है तो या तो वह मूर्ख बना रहा है या फिर वह स्वयं मूर्ख है।<br />
    सवाल यह उठता है कि पूंजीवादी समाज के चरित्र में ऐसा क्या है कि यह स्त्री विरोधी है? इसका जवाब पूंजीवादी समाज की निजी सम्पत्ति पर आधारित व्यवस्था में है। निजी सम्पत्ति से वंचित वर्गों-तबकों का इस समाज में एक ही स्थान है कि वे अपनी श्रम शक्ति बेचें। उजरती गुलाम बनें। जब वे ऐसा न कर पायें तो भुखमरी-गरीबी में जीवन जीयें। उन्हें मजबूर कर दिया जाता है कि वे जीवनयापन के लिए कठोर श्रम करें और ऐसी जगह भी श्रम करें जहां जीवन बेहद असुरक्षित है। भुखमरी, गरीबी भारी संख्या में स्त्रियों को वेश्यावृत्ति में धकेलती है। <br />
    उजरती गुलामी के प्रति शासक वर्गों का दृष्टिकोण क्रूर और अमानवीय होता है। उन्हें वे या तो काम करने या फिर आमोद-प्रमोद की वस्तु ही समझते हैं। पूंजीवादी समाज में निजी सम्पत्ति की सर्वोच्चता का मूल्य उस मूल्य पैदाइश के मूल में है जो किसी भी स्त्री को सिर्फ यौन वस्तु समझता है।<br />
    पतनशील पूंजीवाद के युग में स्त्री को यौन वस्तु के रूप में स्थापित करने और देखने की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। फैशन, सौन्दर्य प्रसाधन, फिल्म, पर्यटन जैसी पूंजीवादी शाखाओं में स्त्रियों को यौन वस्तु के रूप में ही पेश किया जाता है। पोर्नोग्राफी और वेश्यावृत्ति के धंधे से अरबों रुपये कमाई तो इसी कारण है। पतनशील पूंजीवाद का यह चरित्र यौन हिंसा में तीव्र वृद्धि करता है। यही कारण है कि अमेरिका हो या फिर भारत या फिर चीन सब जगह यौन हिंसा बढ़ती जा रही है।<br />
    यौन हिंसा को यदि कोई जड़ से खत्म करना चाहता है तो उसे पूंजीवादी व्यवस्था को उलटने के लिए आगे आना ही होगा। अन्यथा शेष बातों का कोई खास महत्व नहीं है। बाकि सारी बातें थोथी हैं और बहाये गये आंसू घडियाली हैं।

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।