क्या यह पश्चिमी साम्राज्यवादियों के लिए चुनौती है?
दक्षिण अफ्रीका के जोहांसबर्ग में 22-24 अगस्त को ब्रिक्स का शीर्ष सम्मेलन सम्पन्न हुआ। इस शीर्ष सम्मेलन में ब्रिक्स में 6 देशों- साउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, ईरान, मिश्र, इथियोपिया और अर्जेण्टाइना को शामिल करने का फैसला लिया गया। इस तरह ब्रिक्स में शामिल देशों की संख्या 5 से बढ़कर 11 हो गयी। हालांकि ब्रिक्स में शामिल होने के लिए 23 देशों ने रुचि दिखाई थी।
ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) देशों को संगठित करने में रूस और चीन की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ये दोनों देश पश्चिमी साम्राज्यवादियों विशेषतौर पर अमरीकी साम्राज्यवादियों के निशाने पर हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी नाटो सहयोगियों के साथ मिलकर रूस के विरुद्ध यूक्रेन युद्ध में मदद इसलिए कर रहे हैं ताकि रूस को कमजोर करके यूरोप में अपने प्रभुत्व को मजबूत कर सकें। अमरीकी साम्राज्यवादियों का मुकाबला करने के लिए रूसी साम्राज्यवादी दुनिया भर में अपने संश्रयकारी बना रहे हैं। रूसी साम्राज्यवादियों के सबसे बड़े और मजबूत संश्रयकारी चीनी साम्राज्यवादी हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी चीन को अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वन्द्वी घोषित कर चुके हैं। ऐसी स्थिति में, जब अमरीकी साम्राज्यवादी रूस और चीन पर तरह-तरह के व्यापक प्रतिबंध लगाये हुए हैं, तब ये दोनों प्रतिद्वन्द्वी साम्राज्यवादी ताकतें तरह-तरह के संश्रय बना रही हैं। इसमें ब्रिक्स सबसे बड़ा संश्रय है।
ब्रिक्स के इस विस्तार से अमरीकी साम्राज्यवादी और नाटो स्वाभाविक तौर पर परेशान हैं। अभी हाल तक अर्जेण्टाइना, मिश्र, साउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात अमरीकी साम्राज्यवादियों के साथ गहराई से संबंद्ध रहे हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी किसी भी तरह इन्हें ब्रिक्स का हिस्सा बनने नहीं देना चाहते थे। लेकिन इन देशों के शासक भी अमरीकी साम्राज्यवादियों पर एकमात्र निर्भरता नहीं चाहते। ये अपने विकल्पों का विस्तार चाहते हैं। जैसे ही चीन और रूस का विकल्प इनके सामने प्रस्तुत हुआ, इनका रूझान उधर बढ़ा और आज ये चीन के बड़े व्यापारिक साझीदार हैं। लेकिन इसका यह भी अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि ये अमरीकी या पश्चिमी साम्राज्यवादियों के विरोधी हैं।
रूसी और चीनी साम्राज्यवादी इस स्थिति को अच्छी तरह समझते हैं। इसलिए वे संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य वैश्विक संस्थाओं में अफ्रीकी और पिछड़े व गरीब देशों की भागीदारी और उनकी आवाज को और ज्यादा मुखर करने तथा उनके साथ बेहतर व्यवहार की मांग करते हैं।
अगर ब्रिक्स के अंतिम घोषणा पत्र को देखा जाए तो यह बात और ज्यादा स्पष्ट हो जाती है। ब्रिक्स की अंतिम घोषणा में वैश्विक संस्थाओं में व्यापक सुधार की बातें कही गयी हैं। उसमें कही गयी बातों में कुछ मुख्य ये हैंः
1. इस समूह के देशों और इसके अतिरिक्त देशों के बीच खाद्य सुरक्षा के बारे में ब्रिक्स सहयोग को मजबूत करेगा।
2. ब्रिक्स देशों के नेताओं ने एकतरफा प्रतिबंध के इस्तेमाल और विकासशील देशों पर इनके नकारात्मक प्रभाव पड़ने के प्रति चिंता व्यक्त की।
3. ब्रिक्स के देश संयुक्त राष्ट्र संघ को अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली का मुख्य आधार मानते हैं।
4. ब्रिक्स के देश ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका की संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में और बड़ी भूमिका अदा करने की आकांक्षाओं का समर्थन करते हैं।
5. ब्रिक्स के देश दुनिया में टकराहटों के प्रति चिंतित हैं और बातचीत के जरिए मतभेदों के शांतिपूर्ण समाधान पर जोर देते हैं।
6. ब्रिक्स के देश व्यापक विनाश के हथियारों के अप्रसार के तौर-तरीकों को मजबूत करने का समर्थन करते हैं।
7. ब्रिक्स के देश अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और बहुपक्षीय मंचों में विकासशील देशों को और ज्यादा प्रतिनिधित्व देने की मांग करते हैं।
8. ब्रिक्स के देश पर्यटकों के परस्पर देशों में आने-जाने को बढ़ावा देने के लिए मिलकर काम करेंगे।
9. ब्रिक्स के देश अफ्रीकी संघ के 2063 एजेण्डा का, जिसमें महाद्वीपीय स्वतंत्र व्यापार क्षेत्र की स्थापना शामिल है, समर्थन करते हैं।
यहां यह उल्लेखनीय है कि ब्रिक्स में शामिल देश इस बात पर आम सहमत थे कि सदस्य देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में राष्ट्रीय मुद्राओं का इस्तेमाल किया जायेगा। नया विकास बैंक भी दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील की मुद्राओं में उधार देना शुरू करेगा। नया विकास बैंक ब्रिक्स देशों का बैंक है।
इसके अतिरिक्त, अर्जेण्टाइना, मिश्र, इथियोपिया, ईरान, संयुक्त अरब अमीरात और साउदी अरब के शामिल होने के बाद ब्रिक्स और बड़ा हो गया है। ये देश आधिकारिक तौर पर 1 जनवरी 24 से इसके सदस्य बन जायेंगे। इनके शामिल होने के बाद, ब्रिक्स की आबादी दुनिया की आबादी का 45 प्रतिशत हो जायेगी। दुनिया की गेहूं और चावल की आधी फसल ब्रिक्स देशों की होगी। दुनिया का 17 प्रतिशत सोना यहां निकाला जायेगा और दुनिया का 80 प्रतिशत तेल उत्पादन ब्रिक्स के देशों में होगा।
बड़े तेल उत्पादक ब्रिक्स के देश (रूस, साउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और ईरान) तथा बड़े तेल उपभोक्ता ब्रिक्स के देश (चीन और भारत) हैं और इनका व्यापार देशी मुद्राओं या युआन में होगा तो इससे अमरीकी मुद्रा डॉलर के वर्चस्व में कमी आयेगी। यह गैर-डालरीकरण तो नहीं होगा लेकिन जिस तरीके से अमरीकी साम्राज्यवादी डॉलर को हथियार के बतौर इस्तेमाल करते रहे हैं, उसमें एक हद तक कमी आयेगी।
ब्रिक्स देशों ने 2015 में नया विकास बैंक का गठन किया था। इसने साम्राज्यवादियों के नेतृत्व में गठित विश्व बैंक द्वारा कर्ज पर लगाई गयी शर्तों के विपरीत देशों को आसान शर्तों पर कर्ज देना शुरू किया था। इससे नये विकास बैंक की स्वीकार्यता कई गरीब देशों के बीच काफी बढ़ गयी थी। यह ब्रिक्स की एक विशेष उपलब्धि है। इसके बावजूद इसकी कर्ज देने की सामर्थ्य विश्व बैंक की तुलना में बहुत कम हैं। 2021 में इसने 7 अरब डॉलर के कर्ज दिये जबकि विश्व बैंक ने इसी वर्ष में 100 अरब डॉलर के कर्ज दिये। यह विश्व बैंक के प्रभुत्व को खत्म तो नहीं कर सका, लेकिन इसने उसके प्रभुत्व को कमजोर करने में एक हद तक भूमिका निभायी। इसी प्रकार ब्रिक्स की एक आकस्मिक रिजर्व निधि है। यह भी किसी देश में आर्थिक संकट से निपटने के लिए बनायी गयी है। इसको तरलता संकट में घिरे किसी देश को उबारने के लिए बनाया गया है। हालांकि इसका इस्तेमाल अभी बहुत कम हुआ है। लेकिन यह बड़ी सम्भावना लिए हुए है और ये दोनों निधियां विश्व बैंक व अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रभुत्व को चुनौती देने की संभावनाएं लिए हुए हैं।
जैसे कि पहले कहा जा चुका है कि ब्रिक्स के देश वैश्विक प्रणाली और संस्थाओं को चुनौती नहीं दे रहे हैं और ये उन्हीं के ढांचे के अंतर्गत काम करना चाहते हैं। ये उस ढांचे के भीतर अपनी हिस्सेदारी बढ़ाना चाहते हैं। ये जी-7 के विरोधी नहीं हैं। बल्कि जी-7 द्वारा लादी गयी नीतियों का यहां-वहां विरोध करते हैं। ये जी-20 के समर्थक हैं। इनमें से कई देश जी-20 में भी हैं। जी-20 का गठन भी जी-7 के देशों ने यद्यपि 97-98 के संकट के काल में किया था पर इसने महत्व 2007-08 के विश्व आर्थिक संकट के बाद इससे निपटने के लिए संयुक्त प्रयासों के तौर पर हासिल किया था। जी-7, जी-20 और ब्रिक्स के दस्तावेज भी सभी संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत विकास लक्ष्य, 2030 को पूरा करने के संकल्प को दोहराते हैं।
ये संस्थायें यथा ब्रिक्स और जी-20 समूह दुनिया के शासक वर्गों के अलग-अलग समूह हैं। ये सभी देश अपने-अपने यहां मजदूर-मेहनतकश आबादी के दुश्मन हैं। ये सभी अपने-अपने यहां पूंजीवाद के समर्थक हैं। इसके बावजूद ये अलग-अलग विकास की मंजिल में हैं। जी-7 के देश पश्चिमी साम्राज्यवादी देश हैं। इनका अभी तक दुनिया की अर्थव्यवस्था, राजनीति और कूटनीति में वर्चस्व रहा है। लेकिन द्वितीय विश्व युद्धोत्तर काल में इनका विरोध एक हद तक गुट निरपेक्ष आंदोलन कर रहा था। लेकिन सोवियत साम्राज्यवाद के विघटन के बाद गुट निरपेक्ष आंदोलन की भी भूमिका समाप्त हो गयी। आज दुनिया में दो साम्राज्यवादी खेमे फिर से अस्तित्व में आ रहे हैं। चीन के साम्राज्यवादी होने के बाद आज दुनिया भर में अमरीकी साम्राज्यवाद की स्थिति पहले से कमजोर हो रही है। लेकिन यह अभी भी आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक तौर पर दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति है। चीन एक बढ़ती हुयी साम्राज्यवादी शक्ति है। लेकिन चीन उसे अकेले चुनौती नहीं दे सकता। इसलिए वह विभिन्न क्षेत्रीय संगठनों के जरिए अपनी ताकत बढ़ा रहा है। रूस इसमें उसका सबसे बड़ा सहयोगी है।
ब्रिक्स, शंघाई सहकार संगठन और अन्य क्षेत्रीय संगठनों के जरिए विश्व संस्थानों में सुधार की मांग के जरिए वह अमरीकी व पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतों को एक तरीके से चुनौती दे रहा है। इसमें उसका बड़ा सहयोगी रूस है।
यही मोटे तौर पर ब्रिक्स के विस्तार का लक्ष्य है और इसीलिए अमरीकी साम्राज्यवादी और नाटो देश इसे अपने लिए खतरा मान रहे हैं।