हरिद्वार में सिडकुल के पास चौक पर एक लड़की चाय का स्टाल लगाती है। लड़की से बात करने पर उसने बताया कि चाय का स्टाल मैं और मेरे पति चलाते हैं। हम लोग बिहार के रहने वाले हैं। उससे पूछा कि बिहार से यहां इतनी दूर कैसे आ गए तब उसने बताया कि उसने 18 साल की उम्र में प्रेम विवाह किया। शादी करके दोनों लोग (पति-पत्नी) अपना जीवन यापन करने के लिए नौकरी की तलाश में हरिद्वार आ गए। लगभग चार साल से ये लोग यही रह रहे हैं।
बिहार की तरह यहां भी मजदूरों के लिए मुश्किल हालात बने हुए हैं। सिडकुल की फैक्टरियों में पहले तो काम मिलना ही मुश्किल है। किसी तरह काम मिल भी गया तो 12 की घंटे नौकरी उस पर कभी भी कम्पनी से निकालने का डर बना रहता है। कम्पनी में रखो-निकालो जैसी स्थिति बनी हुई है। कम्पनी में काम करना बहुत मुश्किल है। बीमारी में या घर जाने के लिए भी छुट्टी नहीं मिलती है।
लड़की ने बताया कि लगभग एक साल पहले मैंने घर जाने के लिए 10-15 दिन की कम्पनी से छुट्टी मांगी। कम्पनी मैनेजमेंट ने कहा कि 3-4 दिन की छुट्टी ही मिल सकती है। इससे ज्यादा दिन की छुट्टी करोगे तो कहीं और काम देख लेना। इस पर लड़की ने कहा कि हमारे घर जाने में 2 दिन लगते है और 2 दिन आने के; 4 दिन तो ऐसे ही हो जायेंगे। इतने दिनों बाद और इतना पैसा लगा कर घर जा रहे हैं तो कुछ दिन तो घर पर रुककर ही आयेंगे। इस पर मैनेजमेंट ने कहा कि इससे हमें कोई मतलब नहीं है। काम करना है तो हमारे हिसाब से करना होगा।
लड़की ने कहा कि हमें घर जरूरी जाना था तो हम घर चले गए और 15-20 दिन बाद लौटे। वापस आने पर जैसा कि पहले ही मैनेजमेंट ने बोल दिया था हमारी नौकरी छूट गई। एक बार फिर हमारे सामने रोजगार का संकट खड़ा हो गया।
काफी सोचने-विचारने के बाद दोनों पति-पत्नी ने तय किया कि कम्पनी में काम करने से अच्छा है कि स्वरोजगार किया जाए। इसमें अपनी मर्जी से काम करेंगे और अपना नाम भी बनायेंगे। इसके बाद ही हमने चाय का स्टाल खोला है जिसका नाम हमने चाय का ठेका रखा है। सुबह 6 बजे से रात को 9-10 तक दोनों उस पर काम करते हैं। स्टाल पर तीन चार प्रकार की जैसे सिम्पल चाय, कुल्हड़ वाली चाय, मसाला चाय, चाकलेट चाय आदि बनाकर बेचते हैं। सुबह के समय चाय के साथ पोहा बनाकर बेचते हैं और शाम को समोसे बनाते हैं। इस तरह सुबह 6 बजे से रात को 9-10 बजे तक दिन भर उसी में लगे रहते हैं। दिन का खाना बनाने-खाने, नहाने, आराम करने के लिए एक कमरे पर चला जाता है तो दूसरा वहीं दुकान पर रहता है। इस तरह दोनों बारी-बारी से स्टाल चला रहे हैं। दिन भर काम करने के बाद 500-600 रुपए बचा लेते हैं।
इस तरह का स्टाल या ठेला अपनी मर्जी से कभी लगा सकते हैं, पूछने पर उसने बताया कि जहां हम स्टाल लगाते हैं वह जगह बी एच ई एल कम्पनी के अंडर में आती है तो बी एच ई एल के कार्यालय से अनुमति लेनी होती है और साल भर का कॉंट्रेक्ट करके कुछ पैसा देना पड़ता है। इसके बाद भी किसी एक या दो ठेले वालों की गलती की सजा वहां सभी ठेले वालों को भुगतनी पड़ती है। लड़की ने बताया कि अभी कुछ दिन पहले दो ठेले वालों का आपस में झगड़ा हो गया तो उसकी वजह से सभी ठेलों को सप्ताह भर के लिए बंद कर दिया गया। दूसरी बात कि सर्दियों में तो चाय ज्यादा बिकती है लेकिन अब गर्मियां आ रही हैं तो चाय की मांग कम हो जायेगी। गर्मियों में चाय की जगह लस्सी, जूस या कुछ और रखना होगा। इस तरह अपना स्वरोजगार करने में भी काफी परेशानी उठानी पड़ती है।
चाय के ठेले पर काम करने वाली लड़की को देख कर एक-दो पत्रकारों ने उनसे बात की जिस पर उनका कहना है कि कम्पनी में काम करके कोई फायदा नहीं है। अगर जिन्दगी में कुछ करना है, अपना नाम बनाना है तो कुछ हट कर करना होगा। हमारे प्रधानमंत्री जी ने भी तो चाय का काम किया था। इसलिए हमने भी ये दुकान खोली है। और इस समय हमारा पूरा ध्यान अपनी दुकान को स्थापित करने पर है।
वैसे इस तरह चाय का स्टाल चलाना कोई नई बात नहीं है। हरिद्वार में ही कई फास्ट फूड के ठेले, खाने (कड़ी चावल, राजमा चावल, पूड़ी-सब्जी आदि) के ठेले और तो और ऑटो (विक्रम) तक महिलाएं चला रही हैं।
इस पूंजीवादी समाज में मजदूरों-मेहनतकशों के बीच भ्रम फैलाया जाता है कि अगर जीवन में कुछ करना है, अपना नाम बनाना है तो सबसे हट कर कुछ करना होगा। किसी की नौकरी करने से अच्छा अपना स्वरोजगार करो। हमारे देश के प्रधानमंत्री भी इस विचार के पक्ष में हैं इसलिए ही तो प्रधानमंत्री ने डिग्री धारकों को पकौड़ा तलने और बेचने की सलाह दी थी।
लेकिन बेहतर जीवन जीने की इच्छा, रोजगार का संकट इस तरह हल नहीं हो सकता है। जब तक समाज में अमीर (पूंजीपति) और गरीब (मजदूर) बने रहेंगे तब तक गरीब मेहनतकश लोग कितनी ही मेहनत कर लें, कितना ही कुछ हट कर कर लें ज्यादा कुछ हासिल नहीं कर सकते हैं।
अमीर (पूंजीपति) तो चाय पीने, नाश्ता करने, खाना खाने बड़े-बड़े होटलों, रेस्टोरेंट में जाते हैं। ठेलों-दुकानों पर तो मजदूर ही आते हैं और अगर मजदूरों पर आर्थिक संकट आयेगा तो इसका असर ठेलों, दुकानों पर भी पड़ेगा। इसलिए समाज से अमीर और गरीब के बीच की खाई को खत्म किए बिना मजदूरों की जिंदगी बेहतर नहीं हो सकती है।