2024 के लोकसभा चुनाव को अब बहुत ज्यादा वक्त नहीं रह गया है। इसी के हिसाब से पक्ष और विपक्ष दोनों ही अपने-अपने दांव चल रहे हैं। इस बीच जैसे-जैसे मोदी सरकार ने विपक्ष को धराशायी करने के लिए तमाम हथकंडे अपनाये, वैसे-वैसे विपक्ष में खलबली मची और एकता की बातें फिर से परवान चढ़ने लगीं। राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता से निष्कासन के मौके पर केजरीवाल से लेकर अन्य पीड़ित पार्टियों ने मोदी सरकार की तानाशाही के खिलाफ चीख पुकार भी की। यहां से फिर से विपक्ष की एकता की बातें होने लगीं।
ऐसा नहीं कि पहली बार विपक्ष की पूंजीवादी पार्टियों के बीच एकता की बातें सामने आई हों। इससे पहले भी अलग-अलग मौके आये जब ‘एकता’ की बातें हुई हैं। जब-जब भी ऐसी ‘एकता’ की बातें हुईं, कई लोगों या समूहों को लगने लगा कि बस अब एकता हो गयी है और हिन्दू फासीवादियों से उन्हें निजात मिल जाएगी। लेकिन हर बार उन्हें निराशा ही हाथ लगी।
ऐसे लोग जिसमें अपने को मार्क्सवादी कहने वाले बुद्धिजीवी हैं और फिर सुधारवादी व पूंजीवादी जनवादी किस्म के लोग हैं, उन्हें पूरी उम्मीद है कि इस बार ‘विपक्षी एकता’ होकर रहेगी व यह ‘एकता’ इन्हें ‘हिन्दू फ़ासीवादियों’ की गिरफ्त से मुक्ति दिला देगी।
इनमें से कुछ को तो यह शिकायत भी है कि क्यों नहीं, वे संगठन और लोग जो दृढ़तापूर्वक क्रांतिकारी विचारधारा पर खड़े हैं और अपनी क्षमताभर काम कर रहे हैं, हिन्दू फासीवादियों के विरोध में कांग्रेस के पक्ष में खड़े हो जाते। क्योंकि इनकी नजर में फासीवाद कायम हो गया है और ‘राहुल गांधी’ ने इसके खिलाफ दृढ़तापूर्वक मोर्चा लिया हुआ है और वह इस मोर्चे पर डटे हुए हैं।
राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद और फिर अडाणी व मोदी के गठजोड़ को संसद में निशाने में लेने के बाद ऐसे लोगों की उम्मीदों को पंख लग गए हैं। इन्हें जनता पर और जनता के संघर्षों पर भरोसा नहीं है बल्कि वे फिर उसी कांग्रेस की गोद में बैठने को तैयार हैं एक हद तक जिसके सहयोग से भाजपा और आर.एस.एस. आज इस स्थिति में पहुंचे हैं।
हकीकत क्या है! क्या विपक्षी पूंजीवादी पार्टियों के बीच कोई एकता मुमकिन है? क्या यह एकता वास्तव में हिन्दू फ़ासीवादियों का मुकाबला करने के लिए है? क्या यह विपक्षी गठजोड़ उस स्थिति में है कि हिन्दू फासीवादियों का मुकाबला कर सके?
वास्तव में इन सभी सवालों का जवाब ‘नहीं’ है। ज्यादा से ज्यादा इंदिरा गांधी के जमाने में आपातकाल के बाद जैसा गठजोड़ बना था, वैसा ही गठजोड़ बन सकता है। मगर वक़्त ने साबित किया कि उस वक़्त कई पार्टियों से बनी जनता पार्टी भानुमति का कुनबा था। इस गठजोड़ में समाजवादी से लेकर जन संघ (भाजपा) जैसी पार्टी थी। दो तिहाई बहुमत होने के बावजूद जल्द ही यह ढह गया। तीन साल में ही सरकार गिर गई और इंदिरा गांधी की कांग्रेस फिर 1980 के आम चुनाव में बहुमत से जीत गयी थी।
आज एक तरफ ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस है जो कुछ वक़्त पहले तक खुद को केंद्र में रखकर तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद में लगी हुई थी तो दूसरी तरफ केजरीवाल की आम आदमी पार्टी है जिसका आधार कांग्रेस के आधार को खिसकाकर ही आगे बढ़ रहा है तीसरी तरफ नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड है जो कुछ वक्त पहले भाजपा से गठबंधन कायम करके बिहार की सरकार चला रही थी। अब लालू यादव की राजद के साथ गठबंधन कायम कर राज्य की सरकार चला रहे हैं। मायावती की बसपा तो कब से भाजपा की गोद में बैठी हुई है। अखिलेश की समाजवादी पार्टी का हाल किसी से छुपा नहीं है।
इसी तरह महाराष्ट्र की शरद पवार की एन सी पी है और उद्धव ठाकरे वाली बची-खुची शिव सेना है। ये दोनों ही माफीवीर सावरकर के मामले में कांग्रेस को जब-तब घेरते रहते हैं। शिव सेना तो हिंदुत्व के मुद्दे पर कई दफा भाजपा से होड़ लेती रहती है। इसके अलावा सरकारी वामपंथी इस बीच और सिकुड़ गए हैं। ये भी चुनाव में कांग्रेस के साथ गठजोड़ बनाकर ही हिन्दू फासीवादियों से मुक्ति पाना चाहते हैं।
यदि ऐसा हो तो भी यह गठबंधन हिन्दू फासीवाद के खिलाफ नहीं होगा। यदि जनता में असन्तोष हिन्दू फासीवादी एजेन्डे के खिलाफ भी बनता है तो ज्यादा संभावना है कि विपक्षी गठबंधन सत्ता में आ जाये। मगर यह गठजोड़ केवल सत्ता हासिल करने के लिए होगा। यह हिन्दू फासीवादियों के खिलाफ नहीं होगा।
मनमोहन, नरसिंहराव के दौर में तीन दशक पहले घोर पूंजीपरस्त उदारीकरण की जिन नीतियों को लागू किया गया था, उस मामले में भाजपा-कांग्रेस में कोई मतभेद नहीं हैं। इसलिए जनता को राहत देने के लिए कांग्रेस के पास कुछ विशेष नहीं है। आम जनता को सिवाय तबाही-बर्बादी और लूट-खसोट के इनसे कुछ भी हासिल नहीं होना है।
इसके अलावा यदि इनकी मौकापरस्ती, भ्रष्टाचार और दमनकारी रुख को अभी छोड़ भी दिया जाय तो कम से कम यह तो जरूरी है कि राजनीतिक मामलों में हिन्दू फ़ासीवादियों के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता पर डट कर खड़ा हुआ जाये और इसके लिए संघर्ष किया जाये। मगर यहां भी विपक्षियों की क्या स्थिति है। ये ‘नरम हिन्दुत्व’ की चादर ओढ़े हुए हैं। ‘उग्र हिंदुत्व’ का जवाब ‘नरम हिंदुत्व’ कहीं से भी नहीं हो सकता। बल्कि यह अपनी बारी में ‘उग्र हिंदुत्व’ को ही मजबूत करता है।
इसके विपरित हिन्दू फासीवादी एकजुट हैं, संगठित हैं। एकाधिकारी पूंजी और इसके मीडिया के साथ ही सत्ता की ताकत इसके साथ है। इससे बढ़कर आज का भयानक तौर पर संकटग्रस्त पूंजीवाद इनकी ताकत है। यह संगठित भ्रष्टाचारियों, अपराधियों और षडयंत्रकारियों का दस्ता है जिसके पास दंगा वाहिनी से लेकर तमाम किस्म के संगठन हैं। आज सत्ता में हर जगह इसके लोग मौजूद हैं।
इस स्थिति में विपक्षी पार्टियां यदि गठबंधन बनाकर और जनता के असन्तोष पर सवार होकर सत्ता पर पहुंच भी जाती है तो राजनीतिक तौर पर भी इनके लिए हिन्दू फासीवाद विरोधी कुछ मामूली कदम उठाना (जैसे राजनीति में धर्म की पाबंदी) भी संभव नहीं होगा।
इनकी गिरफ्त से समाज को तभी छुटकारा मिल सकता है जब एकजुट, संगठित होकर पूंजीवाद को निशाने पर लिया जाय और समाजवाद के लिए संघर्ष किया जाय। यही संघर्ष अपने तात्कालिक कार्यभार के रूप में समाज के सभी जुझारू और जनवादी ताकतों को समेटते हुए हिन्दू फासीवाद को ध्वस्त कर सकता है।
इस संघर्ष का नेतृत्व मजदूर वर्ग का क्रांतिकारी नेतृत्व ही कर सकता है। इसलिए जरूरी है कि पूंजीवादी पार्टियों के विपक्षी गठजोड़ से आस लगाने के बजाय जमीनी स्तर पर मजदूर वर्ग व जनता के बाकी हिस्सों को फासीवाद के खिलाफ एकजुट किया जाए। हां, क्रांतिकारी मजदूर वर्ग के नेतृत्व में बनने वाले फासीवाद विरोधी मोर्चे में शामिल हो सुधारवादी-पूंजीवादी तत्व भी अपनी कुछ सार्थक भूमिका निभा सकते हैं।