याराना पूंजीवाद : तब और अब

आजकल क्रोनी कैपिटलिज्म यानी याराना पूंजीवाद की काफी चर्चा है। मोदी-अडाणी के रिश्तों के संबंध में हर कोई (संघियों को छोड़कर) इसका इस्तेमाल कर रहा है। विपक्षी पार्टियों ने इस पर और जोर देने के लिए ‘मोडानी’ शब्द गढ़ लिया है यानी मोदी और अडाणी एक ही हैं। भारत ही नहीं, दुनिया भर में याराना पूंजीवाद की बात हो रही है, खासकर पिछड़े पूंजीवादी देशों के मामले में।

याराना पूंजीवाद शब्द का जिस तरह का इस्तेमाल हो रहा है उससे साफ जाहिर होता है कि यह कोई बुरी चीज है। ठीक इसी कारण यह भी अर्थ निकलता है कि आज याराना पूंजीवाद के अलावा दूसरे किस्म का पूंजीवाद भी हो सकता है, जो बेहतर होगा। लेकिन क्या वाकई ऐसा है? क्या आज याराना पूंजीवाद कोई अपवाद चीज है? क्या इससे अलग कोई साफ-सुथरा पूंजीवाद भी हो सकता है?

याराना पूंजीवाद शब्द का जिस तरह इस्तेमाल हो रहा है उससे यह मतलब निकलता है कि यह कोई खास किस्म का पूंजीवाद है जिसमें राजनेता और पूंजीपति आपस में सांठ-गांठ किये होते हैं और एक-दूसरे को फायदा पहुंचाते हैं। राजनेता समूची सरकारी मशीनरी और संसाधनों का इस्तेमाल कर पूंजीपतियों के व्यवसाय को आगे बढ़ाते हैं जबकि पूंजीपति राजनेता को व्यक्तिगत और राजनीतिक हित में धन देते हैं। एक सरकारी खजाने से दूसरे पर लुटाता है तो दूसरा अपने व्यवसाय के खजाने से पहले पर। दोनों आम जनता और देश की कीमत पर फलते-फूलते हैं।

इसी से यह भी मतलब निकलता है कि ऐसा नहीं होना चाहिए। सरकार को अलग होना चाहिए और पूंजीपतियों को अलग। सरकार को छोटे-बड़े सारे पूंजीपतियों के साथ एक समान व्यवहार करना चाहिए- दो गज की दूरी रखकर। पूंजीपतियों को आपस में प्रतियोगिता के द्वारा व्यवसाय में सफलता हासिल करना चाहिए और सरकार को इस प्रतियोगिता में किसी के साथ पक्षपात नहीं करना चाहिए। जो बाजार की प्रतियोगिता में टिकता है वह टिके, जो न टिक सकता हो वह पिट जाये। इसी में सारे समाज का भला है। आज भी छात्रों को किताबों में पूंजीवाद के बारे में यही पाठ पढ़ाया जाता है।

क्या पूंजीवाद के पिछले पांच सौ सालों के इतिहास में कभी ऐसा पूंजीवाद रहा है? क्या कभी ऐसा रहा है कि राज्य सत्ता का पूंजीवाद के साथ ‘दो गज की दूरी’ का संबंध रहा हो? आज आम तौर पर ही राज्य सत्ता का पूंजीवाद के साथ क्या संबंध है? क्या याराना पूंजीवाद वास्तव में आज अपवाद है?

आज पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बारे में छात्रों को जो पढ़ाया जाता है उसे अर्थशास्त्र कहते हैं। लेकिन कभी समय था जब इस विषय को अर्थशास्त्र नहीं बल्कि राजनीतिक अर्थशास्त्र कहा जाता था। बल्कि सत्रहवीं सदी में इस विषय की पैदाइश ही इसी नाम से यानी राजनीतिक अर्थशास्त्र नाम से हुई। ऐसा क्यों हुआ? ऐसा इसलिए हुआ कि तब माना जाता था कि समाज की आर्थिक गतिविधियों को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता। इसके वाजिब कारण थे।

पूंजीवाद की उत्पत्ति पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी में व्यापारिक पूंजीवाद के तौर पर हुई। तब पूंजीवादी गतिविधियों में उत्पादन के बदले व्यापार ज्यादा प्रमुख था। उत्पादन में परिवर्तन हो रहे थे पर अभी ज्यादातर उत्पादन पुराने तरीके से ही था। अठाहरवीं-उन्नीसवीं सदी की औद्योगिक क्रांति अभी दूर थी। दस्तकारों-किसानों के उत्पाद को व्यापारी दूर-दूर तक बेच रहे थे और मुनाफा कमा रहे थे। पलटकर वे दस्तकारों-किसानों के उत्पादन को भी प्रभावित कर रहे थे।

पन्द्रहवीं सदी के अंत में भारत के समुद्री रास्ते की खोज और ‘अमेरिका की खोज’ ने व्यापारिक पूंजीवाद को नयी गति दे दी। अमेरिका में सोने-चांदी की खानों की खोज ने इसमें बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अमेरिका में कपास और गन्ने की खेती व सोने-चांदी के उत्पादन ने न केवल यूरोपीय लोगों को वहां जाकर बसने को प्रेरित किया बल्कि उसने अफ्रीका से काले लोगों को गुलाम बनाकर वहां बेचने का बड़ा धंधा भी पैदा किया।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यवसाय का यह ताना-बाना छोटे-मोटे व्यवसाईयों के बस की बात नहीं थी। इसके लिए बड़ी-बड़ी कंपनियां गठित की गईं। इन कंपनियों को राजाओं की अनुमति (चार्टर) और संरक्षण हासिल था। अक्सर ही राजघराने खुले या छिपे तौर पर इन कंपनियों में साझीदार होते थे। भारत के लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के कारण इस धंधे से अच्छी तरह परिचित हैं जो भारत में व्यापार करने आई थी पर बाद में भारत पर कब्जा कर उसने सौ साल तक राज किया (इसके बाद ब्रिटेन के राजकीय शासन ने इसे सीधे अपने हाथ में ले लिया)। स्पेन, पुर्तगाल, ब्रिटेन, फ्रांस और हालैण्ड की ऐसी कई कंपनियां थीं। इनके व्यापारिक बेड़े के साथ फौजी बेड़े भी होते थे। शुरू में इन्होंने दूसरे देशों पर कब्जा किया जिसे बाद में उनके देश के शासन ने अपने हाथ में ले लिया।

इन कंपनियों के काम और राज्य सत्ता के साथ उनके संबंध को देखते हुए किसी के लिए भी स्पष्ट था कि आर्थिक मामले को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता। स्वयं इन कंपनियों के देश में भी आर्थिक मामलों को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता था। यह सामंतवाद के अंत और पूंजीवाद के पैदा होने का काल था। यह पूंजीवादी क्रांतियों का दौर था।

इस काल में यदि कोई याराना पूंजीवाद की बात करता तो लोगों को यह अजीब लगता। तब राज्य सत्ता और पूंजीवादी व्यवसाय आपस में घुले-मिले थे। ब्रिटेन की संसद में बैठने वाले अभिजात साथ ही पूंजीवादी भूस्वामी तथा भेड़ पालन व ऊन के व्यवसाई भी थे। तब राज्य सत्ता, बड़े पूंजीवादी व्यापारियों तथा वित्तपतियों के बीच बहुत नजदीकी संबंध था। कहा जा सकता है कि पूंजीवाद की उत्पत्ति ही याराना पूंजीवाद के रूप में हुई थी।

जब अठारहवीं सदी में औद्योगिक पूंजीवाद का क्रमशः जन्म हुआ तो स्थिति कुछ बदली। दस्तकारों से विकसित होने वाले औद्योगिक पूंजीपति छोटे-छोटे थे। एक लम्बे समय तक इनको छोटा ही रहना था- राज्य सत्ता के संदर्भ में। इनके बीच बाजार में होड़ थी। अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक इनका इतना विकास हो गया कि एडम स्मिथ ने अपने पूंजीवादी अर्थशास्त्र को इन्हीं के हिसाब से प्रस्तुत किया। ‘बाजार की अदृश्य शक्ति’ का जुमला इन्हीं के मामले में अस्तित्व में आया। आज भी अर्थशास्त्र में जो कुछ पढ़ाया जाता है वह इन्हीं की तरह के छोटे व्यवसाईयों को ध्यान में रखकर पढ़ाया जाता है। माना जाता है कि ये छोटे-छोटे व्यवसाई इतने छोटे होते हैं कि न तो अकेले और न मिलकर बाजार को अपने हिसाब से चला सकते हैं। उन्हें आपस में होड़ करनी ही होगी। ये इतने छोटे-छोटे होते हैं कि राज्य सत्ता को भी प्रभावित नहीं कर सकते। ऐसे में होड़ में जो टिकेगा वही आगे बढ़ेगा। ‘अस्तित्व के लिए संघर्ष’ तथा ‘सर्वोत्तम का जीवित रहना’ जुमला यहीं से पैदा हुआ। यही समाज के लिए भी सबसे फायदेमंद स्थिति मानी गई। होड़ के जरिये जो विकास होता वह समूचे समाज को आगे बढ़ाता।

औद्योगिक पूंजीवाद में सौ-डेढ़ सौ साल तक यही स्थिति रही। औद्योगिक पूंजीपतियों को याराना पूंजीवाद की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। लेकिन उन्नीसवीं सदी के अंत में स्थिति बदल गई। अब धीमे-धीमे उसी होड़ के कारण बड़े-बड़े औद्योगिक पूंजीपति पैदा हो गये। कुछ एक पूंजीपतियों का उद्योग की किसी शाखा में एकाधिकार होने लगा यानी वे आपस में मिलकर बाजार को प्रभावित कर सकते थे। इसी तरह छोटे-छोटे बैंक भी बड़े होकर एकाधिकारी हो गये। इतना ही नहीं, इन दोनों क्षेत्र की पूंजी आपस में मिल गई। इससे एक नये किस्म का पूंजीवाद पैदा हुआ जिसे एकाधिकारी पूंजीवाद या इजारेदार पूंजीवाद कहा गया। नये जमाने के साम्राज्यवाद का यही आधार था क्योंकि एकाधिकारी पूंजी हर चीज पर कब्जा करना चाहती थी- चाहे कच्चे माल के स्रोत हों, माल के लिए बाजार या फिर निवेश के लिए जगहें।

इस एकाधिकारी पूंजी का राज्य सत्ता के साथ घुल-मिल जाना स्वाभाविक था। एक तो साम्राज्यवादी होड़ ने पूंजीपतियों और सरकार के बीच दूरी को समाप्त कर दिया- सरकारें अपने देश की एकाधिकारी पूंजी के लिए दूसरे देशों पर कब्जा करने लगीं और इसके लिए आपस में युद्ध में उलझने लगीं। दूसरे स्वयं देशों के भीतर पूंजीपतियों और नेताओं के बीच घनिष्ठ संबंध स्थापित हो गये। एकाधिकारी पूंजीपति सीधे राजनेताओं के साथ सांठ-गांठ करने लगे। इस सबसे एक नया किस्म का पूंजीवाद पैदा हुआ जिसे राज ईजारेदार पूंजीवाद कहा गया। बीसवीं सदी की शुरूआत से सारी दुनिया में यही राज ईजारेदार पूंजीवाद कायम है।

राज ईजारेदार पूंजीवाद एक किस्म का याराना पूंजीवाद ही है। यदि याराना पूंजीवाद का मतलब राज्यसत्ता और पूंजीपतियों का आपस में घुल-मिल जाना है तो राज ईजारेदार पूंजीवाद के समूचे दौर में यानी पिछले सौ-सवा सौ साल से दुनिया में याराना पूंजीवाद ही रहा है। अब यदि राज्य सत्ता और पूंजीपति इस तरह आपस में घुले-मिले होंगे तो स्वाभाविक तौर पर कुछ पूंजीपति इसका ज्यादा फायदा उठायेंगे और कुछ कम। पूंजीवाद में इसके अलावा कुछ और नहीं हो सकता है क्योंकि इसमें इजारेदारी के बावजूद होड़ बनी रहती है। बड़े एकाधिकारी पूंजीपति भी एक-दूसरे को पछाड़ने में लगे रहते हैं।

साम्राज्यवाद के इस दौर में भारत जैसे गुलाम देशों में जब पूंजीवाद पैदा हुआ तो वह एकाधिकारी पूंजीवाद के रूप में ही पैदा हुआ। यहां पूंजीवाद हमेशा ही याराना पूंजीवाद रहा। यह अंग्रेजों के जमाने में भी याराना पूंजीवाद था और आजाद भारत में भी। मोदी इसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं और चरम पर पहुंचा रहे हैं।

दुनिया में एकाधिकारी पूंजीवाद के पैदा होने के बाद एकाधिकार की प्रवृत्ति क्रमशः बढ़ती गई। नयी सदी तक पहुंचते-पहुंचते स्थिति यह हो गई कि कई क्षेत्रों में तो महज एक या दो कंपनियां ही सारे कुछ का नियंत्रण करने लगीं। आज एयरबस और बोईंग नामक दो कंपनियां ज्यादातर हवाई जहाजों का निर्माण करती हैं। माइक्रोसाफ्ट, गूगल, फेसबुक इत्यादि का लगभग पूरा एकाधिकार है। स्थिति यहां पहुंच गई है कि इन कंपनियों ने ‘टू बिग टू फेल’ की स्थिति हासिल कर ली है। यानी ये कंपनियां इतनी बड़ी हो गई हैं कि इनके ध्वस्त होने पर समूची अर्थव्यवस्था के ध्वस्त होने का खतरा पैदा हो सकता है। ऐसे में सरकार को इन्हें बचाना ही होगा चाहे फिर जनता से इसकी जितनी कीमत वसूली जाये। यह स्थिति इन कंपनियों को और ज्यादा उद्दंड व्यवहार करने की ओर ढकेलती है। 2007-08 के विश्व आर्थिक संकट से अब तक इसे बखूबी देखा जा सकता है। इन कंपनियों के मामले में याराना पूंजीवाद सरकारी भ्रष्टाचार नहीं बल्कि सरकारी कर्तव्य बन गया है।

ऐसी अवस्था में याराना पूंजीवाद की बात करना कितना बेमानी है इसे समझा जा सकता है। अमेरिकी सरकार पिछले पन्द्रह सालों में अमेरिकी सकल घरेलू उत्पाद के बराबर (बीस हजार अरब डालर से ज्यादा) बड़े एकाधिकारी पूंजीपतियों पर लुटा चुकी है जिसे उसने जनता से वसूला है। भारत सरकार इस बीच दस लाख करोड़ रुपये से ज्यादा बैंकों को दे चुकी है - एकाधिकारी घरानों के कर्जों की भरपाई के लिए। अन्य तरीकों से जितना सरकार ने इन पर लुटाया है, उसका हिसाब ही नहीं है।

मोदी सरकार इस याराना पूंजीवाद को नयी ऊंचाई तक ले जाना चाहती है। वह एक नीति के तहत एक-दो या चार-पांच पूंजीपति घरानों को ‘नेशनल चैंपियन’ के तौर पर विकसित करना चाहती है। अंबानी-अडाणी इनमें प्रमुख हैं। ये ही देश के ज्यादातर क्षेत्रों में ज्यादातर व्यवसाय के मालिक होंगे। फिर ये दुनिया में विदेशी कंपनियों से होड़ करेंगे। यह मोदी सरकार की अघोषित नीति रही है। यह कांग्रेसियों द्वारा तीन दशक पहले लागू की गई उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों का नया चरण है। यह मोदी सरकार और अंबानी-अडाणी दोनों के फायदे में है। चूंकि यह मोदी और संघियों के फायदे में है इसलिए कांग्रेसियों और बाकी पूंजीवादी पार्टियों को इससे चिढ़ है। पर वे इसे छिपा ले जाते हैं कि यह उन्हीं की नीतियों का स्वाभाविक परिणाम और आगे का विकास है।

याराना पूंजीवाद मोदी या संघियों की ईजाद नहीं है। बस उन्होंने इसे नये चरण में पहुंचाया है। वैसे भी कहा जाता है कि फासीवाद इजारेदार पूंजीवाद की नंगी तानाशाही है। इस इजारेदार पूंजीवाद के लिए वे भी जिम्मेदार हैं जो आज याराना पूंजीवाद पर मातम बना रहे हैं। इनके द्वारा पैदा की गई स्थितियों में ही देश के ईजारेदार पूंजीपतियों ने इनका साथ छोड़कर हिन्दू फासीवादियों को आगे बढ़ाना तय किया और इस तरह नया गठजोड़ कायम हुआ। आज के याराना पूंजीवाद का समाधान किसी ‘स्वस्थ पूंजीवाद’ की स्थापना में नहीं बल्कि स्वयं पूंजीवाद के खात्मे में है क्योंकि आज पूंजीवाद याराना पूंजीवाद के अलावा और कुछ नहीं हो सकता।

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