भारत में चुनाव और भ्रष्टाचार के मुद्दे का सनातनी साथ है। चाहे आम चुनाव हों अथवा किसी राज्य के विधानसभा के चुनाव हों, भ्रष्टाचार का मुद्दा, प्रकट हो ही जाता है। चुनाव के ठीक पहले भ्रष्टाचार का मुद्दा जिस गति से प्रकट होता है, ठीक उसी गति से चुनाव के बाद लुप्त भी हो जाता है।
पिछले दिनों राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता जाने के बाद जब विपक्षी दल, इसके खिलाफ एकजुट हुए तो प्रधानमंत्री मोदी ने इसे सारे भ्रष्टाचारियों के एक साथ आने की संज्ञा दी थी। यानी विपक्षी दल इसलिए एकजुट हुए हैं ताकि मोदी उनके खिलाफ कार्यवाही न कर सके। जबकि स्वयं मोदी पर अडाणी समूह की अभूतपूर्व ढंग से प्रगति के पीछे होने के खुले आरोप हैं। शायद ही कोई इस बात पर संदेह करे कि भारत का लगभग हर पूंजीवादी राजनैतिक दल सीधे या उल्टे ढंग से भ्रष्टाचार में लिप्त है। और हर चुनाव में, जो कोई भी सत्तारूढ़ दल होता है, उसके खिलाफ विपक्ष भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े आरोप लगाता है और यह एक चुनावी मुद्दा बन जाता है।
चुनाव के बाद यदि वही पार्टी चुनाव जीत जाये जो पहले से सत्ता में थी तो इसे जनता के द्वारा ‘क्लीन चिट’ के रूप में लिया जाता है। और यदि सत्तारूढ़ पार्टी चुनाव हार गई तो इसे भ्रष्टाचार के ‘दण्ड’ के रूप में देखा जाता है। और इससे भी ज्यादा मजे की बात यह होती है कि जो पार्टी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सत्ता में आती है वह पूर्व पार्टी के भ्रष्टाचारों की या तो जांच ही नहीं करती या फिर ऐसी जांच करती है जिसका कभी कोई नतीजा नहीं आता है। या ऐसा नतीजा आता है जो आरोप, जांच व निर्णय सब पर सवाल खड़ा कर देता है।
2012 में संप्रग सरकार पर टू जी घोटाले में 2 लाख करोड़ रुपये डकारने के आरोप मोदी एण्ड कम्पनी ने लगाये। चुनाव में जीत हासिल करने के बाद जांच का जो निर्णय आया उसका कुल जमा मतलब यह था कि ऐसा कोई घोटाला हुआ ही नहीं था। टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला एक चुनावी मुद्दा था और उसने वह काम कर दिया था जिसके लिए इसका इस्तेमाल किया गया था। मनमोहन सिंह सत्ता से बाहर थे और मोदी सत्ता के शीर्ष पर विराजमान थे।
अभी कुछ दिनों में कर्नाटक विधानसभा के चुनाव होने हैं और वहां भाजपा की सरकार के दौरान व्याप्त भ्रष्टाचार एक चुनावी मुद्दा बन गया है। भाजपा के एक विधायक के घर से लोकायुक्त ने छः करोड़ रुपये नकद पकड़े हैं। और कांग्रेस तो स्वयं मुख्यमंत्री के भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘पे सी एम’ नाम से एक अभियान ही चलाती रही है। कर्नाटक के बाद जिन अन्य राज्यों में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं वहां भी भ्रष्टाचार एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बन कर उभर रहा है। सबसे मजेदार तो राजस्थान में हो रहा है। वहां कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेता सचिन पायलट अपनी ही सरकार के खिलाफ इसलिए एक दिन का अनशन कर रहे थे कि कांग्रेस के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने से पूर्व भाजपाई मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के समय में हुए भ्रष्टाचार की जांच नहीं कर रहे थे। पायलट ने एक तीर से दो निशाने साधे हैं। गहलोत और वसुंधरा राजे बारी-बारी से मुख्यमंत्री बनते रहे हैं और दोनों ही एक के समय हुए भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बनाते हैं और फिर सत्ता में आने पर चुप साध जाते हैं। और ऐसा ही कुछ अन्य राज्यों में भी होता रहता है। कभी-कभी ही इसमें कुछ अति हो जाती है जब भ्रष्टाचार के मुद्दे के कारण किसी पूंजीवादी राजनेता का राजनैतिक कैरियर समाप्त हो जाता है।
भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर बनी पार्टी ‘आम आदमी पार्टी’ ने अपने जन्म और विकास से दिखा दिया कि भ्रष्टाचार के मुद्दे को, ढंग से ‘कैश’ करने पर कैसे सत्ता पर कब्जा बनाया और बरकरार रखा जा सकता है। और पंजाब जैसे राज्य में जहां पुराने एक से बढ़कर धुरंधर हों वहां भी सत्ता हासिल की जा सकती है। आप पार्टी कितनी ईमानदार है इसकी सच्ची-झूठी कहानियां दिल्ली की सड़कों पर तैरती रहती हैं। परन्तु भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले पुराने धुरंधर भाजपा ने अब आप को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही घेरा हुआ है और उसके दो मंत्रियों (मनीष सिसौदिया और सत्येन्द्र जैन) को जेल में डलवा दिया है।
भारत में जैसे जनवाद सिर्फ चुनाव तक सीमित होता गया है, ठीक उसी तरह से भ्रष्टाचार चुनावी मुद्दे तक सीमित हो गया है। अन्यथा कभी जनलोकपाल को मुद्दा बनाने वाले या फिर उसका समर्थन करने वाले सत्ता में आने पर इसकी नियुक्ति करते। न तो आप ने दिल्ली और पंजाब में और न ही भाजपा ने केन्द्र व अपने शासित राज्यों में लोकपाल की नियुक्ति की। यह दीगर बात है कि जनलोकपाल की नियुक्ति होने पर भी भ्रष्टाचार के रक्षक का कुछ नहीं होना था।
भ्रष्टाचार पूंजीवादी व्यवस्था के साथ नाभिनालबद्ध है। जिस समाज में पूंजी ही जीवन, व्यक्तित्व, समाज का आधार हो वहां उसे प्राप्त करने, आगे बढ़ाने के लिए भ्रष्टाचार हमेशा एक साधन के रूप में रहेगा। सत्ता में यदि कोई, कभी, व्यक्तिगत रूप से ईमानदार आ भी जायेगा तो वह भी संस्थागत भ्रष्टाचार को खुले-छिपे रूप में बढ़ाता ही रहेगा। मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी भारत में संस्थागत भ्रष्टाचार के पुरोधा हैं। अम्बानी ने कभी इस बात को अपने ही अंदाज में कहा था कि कांग्रेस तो उनके घर की दुकान है। और जब वह दुकान नहीं चली तो उसने अपनी नयी दुकान खोल ली।