सरकार द्वारा घोषित अमृतकाल में हम लोग रह रहे हैं। इस पर सवाल उठना लाजिमी है कि यह तथाकथित अमृतकाल किसके लिए अमृतकाल है और किसके लिए विषकाल?
ऑक्सफैम की वर्ष 2022 की रिपोर्ट के अनुसार एक प्रतिशत ऊपर के धनपतियों के पास देश की कुल सम्पत्ति का 40 प्रतिशत है और नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के पास देश की कुल सम्पत्ति का मात्र 3 प्रतिशत हिस्सा है। इससे स्पष्ट है कि देश में अमीरों और गरीबों के बीच की खाई कितनी गहरी है।
वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (ग्लोबल मल्टीडाइमेंशनल पावर्टी इंडेक्स) के अनुसार भारत में लगभग 16 प्रतिशत आबादी अर्थात् 22.4 करोड़ जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे नारकीय जीवन जी रही है। ऐसी स्थिति के बावजूद केन्द्र सरकार गरीबों के विषय में बात तक नहीं करती। 1 फरवरी 2023 को 90 मिनट के लम्बे अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री ने केवल दो बार ‘गरीब’ शब्द का प्रयोग किया। सरकार को गरीबों से कोई लेना-देना नहीं है। भारत की इतनी बड़ी जनसंख्या की गरीबी सरकार के लिए चिंता का विषय नहीं बनती।
सीएमआईइ के अनुसार भारत में श्रम शक्ति लगभग 43.6 करोड़ की है। यानी श्रम शक्ति की भागीदारी दर 40 प्रतिशत की है। श्रम शक्ति की भागीदारी उन लोगों की मानी जाती है जो काम कर रहे हैं या रोजगार की तलाश में प्रयासरत हैं। दिसम्बर अंत में भारत में रोजगाररत लोगों की संख्या 40.4 करोड़ थी। इस तरह लगभग 3.2 करोड़ लोग बेरोजगार थे व बेरोजगारी दर 7.5 प्रतिशत थी। भारत में बीते 2 दशकों में सरकार रोजगार ढूंढ़ने वाली आबादी को कम दिखा बेरोजगारी दर नीचे रखती रही है। श्रम शक्ति भागीदारी दर 2 दशकों में 48 प्रतिशत से 40 प्रतिशत आ गयी है। वास्तविक बेरोजगारी दर अनुमानतः 20 प्रतिशत से अधिक है। यानी कुल बेरोजगार आबादी 24 करोड़ से अधिक है। इसके बावजूद वित्तमंत्री अपने लम्बे बजट भाषण में बेरोजगारी का नाम भी नहीं लेती हैं। इसका मतलब है कि सरकार की चिंता का विषय बेरोजगारी नहीं है। ऊपर से जब भी देश के किसी कोने में अगर छात्रों एवं नौजवानों ने रोजगार को लेकर प्रदर्शन किया तो सरकार ने उनका बर्बर दमन किया।
वैसे तो भाजपा सरकार हर साल 2 करोड़ नये रोजगार देने का वादा करके सत्ता में आयी थी लेकिन सत्ता में आने के बाद मौजूदा गृह मंत्री अमित शाह ने खुद स्वीकार किया कि यह वादा वास्तविक नहीं बल्कि नरेन्द्र मोदी जी द्वारा लोगों के सामने फेंका गया एक जुमला था।
भाजपा सरकार ने नया रोजगार पैदा तो नहीं किया बल्कि पहले के जो रोजगार स्वीकृत हैं उसे भी खत्म कर रही है। जैसे इस समय पूरे देश में 117000 ऐसे प्राथमिक विद्यालय हैं जिसमें केवल एक अध्यापक नियुक्त हैं जिन्हें अकेले 5 कक्षाओं के बच्चों को पढ़ाना पड़ता है। इन विद्यालयों में किस तरह की शिक्षा बच्चों को मिल रही होगी? शिक्षा का क्या स्तर होगा? इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
भारत में 23 आई आई टी हैं जिनमें कुल 8153 शिक्षकों के पद स्वीकृत हैं। यहां पर कुल 3253 पद खाली चल रहे हैं। देश में कुल 55 केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैं जिनमें सब 18956 शिक्षकों के पद स्वीकृत हैं लेकिन इस समय 6180 शिक्षकों के पद खाली चल रहे हैं। देश में बड़ी संख्या में नौजवान एवं नवयुवतियां केन्द्रीय सशस्त्र बल में अपना भविष्य देखते हैं लेकिन इस समय केन्द्रीय सशस्त्र बल में 84,405 पद खाली हैं। इसी तरह से विभिन्न केन्द्रीय विभागों, आई आई टी और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों जिनका नियंत्रण केन्द्र सरकार करती है उनमें इतनी बड़ी संख्या में पद खाली होने के बावजूद उन पदों पर नियुक्ति नहीं दी जा रही है। जबकि बेरोजेगारी अपने चरम पर है। पढ़े-लिखे बेरोजगार मारे-मारे फिर रहे हैं और समाज में बार-बार बेइज्जत हो रहे हैं।
वैश्विक भूख सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) 2021 में 116 देशों में भारत का रैंक 101वां था। वैश्विक भूख सूचकांक 2022 के अनुसार 121 देशों की सूची में भारत का रैंक 6 अंक और गिरकर 107वां हो गया है। इसमें जिस देश का जितना ज्यादा रैंक होता है उतना ही ज्यादा देश में बदहाली होती है। इस तरह से केवल 14 देश ही पोषण के मामले में भारत से पीछे हैं। सरकार के नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे-5 के अनुसार हमारे देश की 57 प्रतिशत अर्थात् आधे से ज्यादा 15 से 49 साल उम्र की महिलाएं एनीमिया यानी शरीर में खून की कमी से जूझ रही हैं। 6 से 23 माह के केवल 11.3 प्रतिशत बच्चों को ही पर्याप्त खुराक मिल पा रही है। 31.1 प्रतिशत बच्चे अपेक्षाकृत कम वजन के हैं, 35.5 प्रतिशत बच्चे अपेक्षाकृत कम लम्बाई के हैं, 19.3 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं और 7.7 प्रतिशत गम्भीर रूप से कुपोषित हैं। ये 5 साल से कम उम्र के बच्चे गरीब परिवारों के हैं। इन्हें पर्याप्त भोजन नहीं मिलता है। सरकार अपनी योजनाओं को भले ही अच्छा-अच्छा नाम दे लेकिन इनके पोषण पर बिल्कुल ध्यान नहीं देती। इसीलिए पोषण पर अर्थात् ‘मिड डे मील’ स्कीम पर सरकार वर्ष 2023-24 के बजट में वर्ष 2022-23 के संशोधित बजट की तुलना में 1200 करोड़ रुपये कम खर्च हेतु रखा है। जहां एक ओर देश में छोटे बच्चों में कुपोषण बढ़ रहा है वहीं सरकार मिड डे मील स्कीम पर खर्चे में कटौती कर रही है।
सरकार जरूरत से ठीक उल्टा निर्णय ले रही है। वर्ष 2022-23 के संशोधित खाद्य सब्सिडी की तुलना में वर्ष 2023-24 के बजट में 80 हजार करोड़ रुपये की कटौती की गयी है।
ग्रामीण बेरोजगारों को कुछ दिन का काम मनरेगा के तहत मिल जाता है। यह ग्रामीण मजदूरों के पोषण का कुछ आधार बनता है लेकिन सरकार ने वर्ष 2022-23 के संशोधित बजट की तुलना में 33 प्रतिशत की कमी मनरेगा के वर्ष 2023-24 के बजट में की है। इससे ग्रामीण मजदूरों विशेषकर महिला मजदूरों में कुपोषण और बढ़ेगा। इसी तरह स्वास्थ्य बजट में वर्ष 2022-23 के संशोधित बजट की तुलना में वर्ष 2023-24 में सरकार ने कटौती की है। जबकि भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था कैसी है इसकी स्थिति नंगे रूप में कोरोना के दौरान सबके सामने स्पष्ट हो चुकी है जब सैकड़ों लोग बिना ऑक्सीजन के मारे गये।
पिछले 9 साल से लगभग एक लाख लोग प्रतिवर्ष भारत की नागरिकता त्याग कर दूसरे देशों की नागरिकता ले रहे थे। इसमें ज्यादातर उच्च शिक्षा प्राप्त लोग हैं। लेकिन वर्ष 2022 में 2 लाख 25 हजार लोगों ने भारत की नागरिकता को छोड़ा है। ऐसा कौन सा राष्ट्रवाद का पाठ भाजपा सरकार उच्च पढ़े-लिखे लोगों को पढ़ा रही है जिससे लोग देश की नागरिकता छोड़कर विदेश का रुख तेजी से किए हुए हैं।
अतः यह स्पष्ट है कि मौजूदा समय पूंजीपतियों के लिए अमृतकाल हो सकता है पर आज आम मेहनतकश एवं पढ़े-लिखे युवाओं के लिए यहां परेशानियां ही परेशानियां हैं। आम लोगों की आय तेजी से गिर रही है जबकि पूंजीपतियों की आय एवं सम्पत्ति दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़़ रही है। वास्तव में यह समय पूंजीपतियों के लिए अमृतकाल है जबकि मजदूरों, मेहनतकशों एवं पढ़े-लिखे नौजवानों के लिए विषकाल है।