एक साथ चुनाव

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा पिछले कुछ समय से देश में लोक सभा और विधान सभा के चुनाव एक साथ कराने की वकालत कर रहे हैं। अब इसके पक्ष में मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम कुरैशी भी आ गये हैं। लगता है कि मोदी और भाजपा बार-बार के चुनावों से थक चुके हैं। नसीम कुरैशी का थकना तो स्वाभाविक है क्योंकि उन्हें बार-बार चुनाव के सिलसिले में काफी मेहनत करनी पड़ती है। <br />
    एक समय भारत में चुनाव एक साथ ही होते थे परंतु जैसे-जैसे भारत की राजनीतिक व्यवस्था का संकट गहराने लगा खासकर आजादी की लड़ाई का नेतृत्व देने वाली पार्टी कांगे्रस की साख दांव पर लगने लगी तो यह व्यवस्था भंग हो गयी। कांगे्रस का राजनीतिक वर्चस्व 1967 के चुनाव आते-आते टूटने लगा। तब कई राज्यों में संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकारें अस्तित्व में आयी थीं। <br />
    <span style="font-size: 13px;">कांग्रेस</span> के राजनैतिक वर्चस्व के टूटने की शुरूआत के साथ यह भारत में नई पार्टियों व राजनैतिक गोलबंदी की शुरूआत भी थी। कई तरह से घटी यह राजनैतिक परिघटना, समाज में नये उभरते वर्गों की महत्वाकांक्षाओं को व्यक्त कर रही थी।। देहाती व क्षेत्रीय पूंजी के हितों को स्वर देने वाली ये पार्टियां, सत्ता में, अपनी भागीदारी चाहती थीं। <span style="font-size: 13px;">कांग्रेस</span> पार्टी में नेहरू की मृत्यु के कुछ समय बाद विभाजन हो गया था। कांग्रेस पार्टी अब उस दिशा में बढ़ गयी थी जहां वह भारत के समग्र शासक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने की स्थिति में नहीं थी। <br />
    राजनैतिक संकट के कारण असमय चुनाव सामान्य परिघटना बनते चले गये। और जो स्थिति इस समय है उसमें पूरे देश में एक साथ चुनाव कराना महज दिवास्वप्न है। यदि एक बार किसी तरह से यह काम कर भी दिया जाय तो इसकी क्या गारंटी है कि किसी विधानसभा के चुनाव समय से पहले नहीं करवाने पड़ेंगे। नब्बे के दशक में तो लोकसभा के चुनाव दो बार असमय करवाने पड़े थे। <br />
    एक साथ चुनाव तभी हो सकते हैं जब देश की पूंजीवादी राजनैतिक व्यवस्था में स्थिरता हो। पांच साल तक के लिए किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला हो। राज्यों में विपक्षी पार्टी की सरकार को केन्द्र <span style="font-size: 13px;">में</span> काबिज होने वाली सरकार बर्दाश्त करने को तैयार हो। मोदी सरकार का व्यवहार इस मामले में खासा उल्टा ही रहा है। अरूणाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड की <span style="font-size: 13px;">कांग्रेस</span> सरकारों को गिराने के लिए सारे तिकड़म बैठाये गये। ऐसे  तौर-तरीके इंदिरा गांधी-राजीव गांधी के समय भी थे। ऐसे में कोई कैसे उम्मीद कर सकता है कि एक साथ चुनाव हों, और बार-बार ऐसा हो। <br />
    एक साथ चुनाव की मांग भारत के बड़े पूंजीवादी घरानों की भी मांग है। उसे बार-बार चुनाव में परेशानी महसूस होती है। पूरी व्यवस्था उसकी सेवा करने के बजाय चुनाव में लग जाती है। प्रधानमंत्री से लेकर अफसर चुनाव की तैयारियों में लग जाते हैं। लोकलुभावन घोषणाएं और काम सरकार के खजाने पर बोझ बढ़ाते है। और जो धन उसकी जेब में आना चाहिए वह कहीं और लग जाता है। <br />
    भाजपा-संघ परिवार का मंसूबा है कि वह पूरे देश की राजनैतिक व्यवस्था पर पूरा व स्थायी कब्जा कर ले। केन्द्र की सरकार ही नहीं बल्कि हर प्रांत में उसी की सरकार हो। चुनाव के जरिये वह देश में हिन्दू फासीवादी मंसूबों को परवान चढ़ा सके। इसमें एक साथ चुनाव इस मंसूबे से फायदेमंद हो सकता है। <br />
    एक साथ चुनाव भारतीय समाज में उस अवस्था में संभव होता जब समाज में विभिन्न किस्म की विविधताएं खत्म हो जायें और एकरूपता कायम हो जाये। यानी बिहार, गुजरात, झारखण्ड, असम, तमिलनाडु आदि बहुभाषी, बहुवर्गीय, बहुसमुदाय वाले समाज एक जैसे हो जायें। बहु पार्टी व्यवस्था का स्थान दो पार्टियां या एक ही पार्टी ले ले। यानी पूंजीवाद बहु पार्टी संसदीय जनतंत्र का स्थान एक ऐसी व्यवस्था ले ले जो फासीवाद के अनुरूप हो। हिटलर का जर्मनी या मुसोलिनी का इटली भारत बन जाये। <br />
    लगातार चुनाव होने से राजनैतिक दलों पर खासकर राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस पर दबाव बना रहता है। उन्हें वे बातें या कुछ काम ऐसे करने पड़ जाते हैं जो आम मतदाताओं को प्रभावित करें। <br />
    लगातार चुनाव हों या एक साथ चुनाव किसी भी सूरत में भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था का संकट हल नहीं हो सकता है। फासीवादी मंसूबे रखने वाली भाजपा इस तरह की बातें करके अपना चरित्र ही अधिक उजागर करती है। कभी वह सबके लिए मतदान अनिवार्य करना और दण्डनीय करने की बात करती है तो कभी अमेरिका की तरह ही राष्ट्रपति प्रणाली वाली व्यवस्था की तो कभी दो दलीय व्यवस्था की। 

आलेख

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अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।

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इसके बावजूद, इजरायल अभी अपनी आतंकी कार्रवाई करने से बाज नहीं आ रहा है। वह हर हालत में युद्ध का विस्तार चाहता है। वह चाहता है कि ईरान पूरे तौर पर प्रत्यक्षतः इस युद्ध में कूद जाए। ईरान परोक्षतः इस युद्ध में शामिल है। वह प्रतिरोध की धुरी कहे जाने वाले सभी संगठनों की मदद कर रहा है। लेकिन वह प्रत्यक्षतः इस युद्ध में फिलहाल नहीं उतर रहा है। हालांकि ईरानी सत्ता घोषणा कर चुकी है कि वह इजरायल को उसके किये की सजा देगी। 

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया।