
देश में बीते 10 वर्षों के मोदी काल में समूची पूंजीवादी राजनीति दक्षिणपंथ की ओर ढुलकती गयी है। अब इसका असर महिला आयोगों में भी साफ नजर आ रहा है। ताजा मामला उ.प्र. के राज्य महिला आयोग की नयी सिफारिशों का है। 28 अक्टूबर 24 को एक बैठक में इसने महिलाओं की सुरक्षा व ‘बैड टच’ की समस्या के खात्मे के सरकार को नायाब सुझाव दिये।
राज्य महिला आयोग ने सुझाव दिया कि महिलाओं के कपड़े सिलने के लिए केवल महिला दर्जी को ही माप लेनी चाहिए। वहीं सैलून में महिलाओं के बाल काटने के लिए केवल महिला हेयर ड्रेसर ही होने चाहिए। साथ ही सिलाई की दुकानों व सैलूनों में सीसीटीवी कैमरे लगाये जाने चाहिए। राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष बबिता चौहान को ये नायाब ख्याल आये और बाकी सदस्यों ने इसका समर्थन कर दिया। बबिता चौहान ने जिम में भी महिलाओं को महिला ट्रेनरों द्वारा अभ्यास कराने की मांग की।
इस तरह ‘बैड टच’ की समस्या के हल के रूप में महिला आयोग का रुख यह है कि जिन भी कामों में स्त्री शरीर को छूने की जरूरत हो वहां से पुरुषों को हटा दिया जाना चाहिए। पुरुषों को जब स्त्रियों को छूने का मौका ही नहीं मिलेगा तो ‘बैड टच’ भी नहीं होगा। यह सब कहते हुए महिला आयोग अध्यक्षा ने अंत में जोड़ दिया कि हालांकि सभी पुरुष बदनीयत नहीं होते।
दरअसल महिला आयोग का यह तुगलकी हल सामंती परम्पराओं के अनुरूप यह मानकर चलता है कि जहां भी स्त्री को छूने का पुरुष को मौका मिलेगा वह ‘बैड टच’ करेगा ही। इसलिए सामंती हल यह है कि स्त्री को पुरुषों से ही दूर कर दिया जाये।
परंतु महिला आयोग की अध्यक्षा ने जानबूझकर उन्हीं पेशों का जिक्र किया जहां मुसलमान पुरुषों की बहुतायत है। गौरतलब है कि सैलून व दर्जी के काम में बड़ी संख्या में मुसलमान हैं। इस तरह अध्यक्षा ने जानबूझकर मुसलमानों को निशाने पर लेने का काम किया है।
अगर उनकी बात को आगे तार्किक परिणति तक पहुंचाया जाये तो सैलून, दर्जियों से ज्यादा बैड टच की शिकायतें दफ्तरों, बाजारों-सड़कों, कारखानों से आती हैं। इसलिए दफ्तरों में आदमी औरत के एक साथ काम करने, एक ट्रेन-बस में सफर करने, एक कारखाने में साथ में काम करने, आदि सब पर रोक लग जानी चाहिए। और चूंकि ‘बैड टच’ पारिवारिक दायरे में सर्वाधिक होता है इसलिए परिवारों में महिला-पुरुष के आमने-सामने आने पर रोक लग जानी चाहिए। जाहिर है सार्वजनिक जीवन-रोजगार-शिक्षा-सड़क-दफ्तर सब जगह पुरुष मौजूद हैं इसलिए महिलाओं को ‘बैड टच’ से बचाने का उपाय है कि उसे घर में कैद कर दिया जाए। यही व्यवहार सामंती जमाने में महिलाओं के साथ होता था और हिन्दू फासीवादी यही व्यवहार फिर से करना चाहते हैं।
इस तरह महिला आयोग की बातों की तार्किक परिणति यही है कि उसके सदस्यों को आयोग छोड़ घर में कैद हो जाना चाहिए। पर चूंकि आयोग सदस्य अपना यह हश्र नहीं करना चाहती इसलिए इस निष्कर्ष तक नहीं पहुंचती।
दरअसल महिलाओं के साथ ‘बैड टच’ या अन्य यौन हिंसा के पीछे समाज में मौजूद पुरुष प्रधानता व पूंजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति है। अगर समाज से इन्हें दूर नहीं किया जाता तो महिलाओं को जितना भी पर्दे में ढकेल दिया जाय, उन्हें यौन हिंसा से नहीं बचाया जा सकता। इसलिए पूंजीवाद में महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में प्रवेश के रूप में जो थोड़ी आजादी मिली है उसे बनाये रखते, बल्कि बढ़ाते हुए पुरुष प्रधानता-उपभोक्तावादी संस्कृति के खिलाफ स्त्री-पुरुषों के सामूहिक संघर्ष की जरूरत है। चूंकि यह अपसंस्कृति व सामंती पुरुष वर्चस्व पूंजीवादी व्यवस्था व उसकी दक्षिणपंथी-फासीवादी संघ-भाजपा जैसी ताकतें फैलाती हैं। अतः इनके खिलाफ भी संघर्ष छेड़ने की जरूरत है।