भाजपा के राज्यपाल

कहने को राज्यपाल का पद एक संवैधानिक पद होता है और उसका दायित्व होता है कि वह संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करे। राज्य का औपचारिक प्रधान होने के नाते वह इस बात के लिए बाध्य है कि वह विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर अपनी सहमति दे। यदि उसकी कोई आपत्ति है तो वह पुनर्विचार के लिए विधानसभा के पास वापस भेजें। राज्यपाल को प्रदेश के मंत्रिमण्डल की सिफारिशों को मानना ही होता है। राज्यपाल केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त होता है। उसके एजेण्ट के तौर पर उसे यह भी निगरानी करनी होती है कि राज्य में ऐसा कुछ न हो जो संविधान के प्रावधानों के अनुरूप न हो और भारतीय संघ के हितों के खिलाफ कुछ न जाये। कुल मिलाकर उसे केन्द्र व राज्य के बीच तारतम्य बिठाना होता है।
    
राज्यपाल की भूमिका के बारे में जो कुछ भी अच्छी-अच्छी बातें लिखी हों परन्तु असल में, राज्यपाल केन्द्र में काबिज सरकार की मर्जी के अनुरूप ही चलते हैं। वे केन्द्र सरकार के एजेण्ट के बजाय उसके एक लठैत की भूमिका में उतर आते हैं। और जब से मोदी के नेतृत्व में हिन्दू फासीवादी केन्द्र की सत्ता में काबिज हुए हैं तब से राज्यपाल संघ-भाजपा के सड़कछाप कार्यकर्ता के रूप में व्यवहार कर रहे हैं। अक्सर ही वे गुस्सैल सांड की तरह उन प्रदेशों में व्यवहार करते हैं जहां विपक्षी पार्टियों की सरकारें हैं। राज्यपाल भवन विपक्षी सरकारों को गिराने के लिए षड्यंत्र का अड्डा और भाजपा-संघ के नेताओं व कार्यकर्ताओं के आरामदेह कार्यालय में तब्दील हो गया है। जगदीप धनखड़ ने तो साबित ही कर दिया कि मोदी-शाह के राज में इसका अच्छा इनाम भी मिलता है। 
    
पं.बंगाल, तमिलनाडु, केरल, पंजाब, झारखण्ड, दिल्ली आदि राज्य ऐसे हैं जहां विपक्षी दलों की सरकारों के सामान्य कामकाज में भी भाजपा के राज्यपालों ने उनकी नाक में दम किया हुआ है। राज्यपाल रोजमर्रा के कामों में ही दखल नहीं देते हैं बल्कि वे राज्य की विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर कुण्डली मार कर बैठ जाते हैं। हालत यह हो गई है कि इन राज्यपालों के व्यवहार के खिलाफ एक के बाद एक राज्य सरकारें, सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे पर गुहार लगाने पहुंच चुकी हैं। दिल्ली, पंजाब, तमिलनाडु और अब केरल सरकार राज्यपालों के व्यवहार के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमे दायर कर चुकी हैं। 
    
भाजपा के राज्यपालों का व्यवहार मोदी-शाह के व्यवहार के अनुरूप है। वे किसी भी प्रकार से अपना वर्चस्व भारत के सम्पूर्ण राजनैतिक तंत्र में कायम करना चाहते हैं। उनका आदर्श है कि पूरे भारत में हिन्दू फासीवादी भाजपा-संघ का शासन हो। फासीवादी शासन कायम करने में किसी न किसी रूप में ये विपक्षी पार्टियां आड़े आती हैं। भाजपा-संघ की कोशिश रही है कि या तो हर ओर इनके आदमी बैठे हों या फिर उन संस्थाओं को खत्म कर दिया जाये जो इनके हितों व मांगों के अनुरूप न हों। हिन्दू फासीवादी राक्षस की भूख बढ़ती जा रही है। वह दिन दूर नहीं जब ये भारत को हिटलर के नाजी शासन में बदल देंगे। 

आलेख

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संघ और भाजपाइयों का यह दुष्प्रचार भी है कि अतीत में सरकार ने (आजादी के बाद) हिंदू मंदिरों को नियंत्रित किया; कि सरकार ने मंदिरों को नियंत्रित करने के लिए बोर्ड या ट्रस्ट बनाए और उसकी कमाई को हड़प लिया। जबकि अन्य धर्मों विशेषकर मुसलमानों के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया। मुसलमानों को छूट दी गई। इसलिए अब हिंदू राष्ट्रवादी सरकार एक देश में दो कानून नहीं की तर्ज पर मुसलमानों को भी इस दायरे में लाकर समानता स्थापित कर रही है।

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आजादी के दौरान कांग्रेस पार्टी ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद वह उग्र भूमि सुधार करेगी और जमीन किसानों को बांटेगी। आजादी से पहले ज्यादातर जमीनें राजे-रजवाड़ों और जमींदारों के पास थीं। खेती के तेज विकास के लिये इनको जमीन जोतने वाले किसानों में बांटना जरूरी था। साथ ही इनका उन भूमिहीनों के बीच बंटवारा जरूरी था जो ज्यादातर दलित और अति पिछड़ी जातियों से आते थे। यानी जमीन का बंटवारा न केवल उग्र आर्थिक सुधार करता बल्कि उग्र सामाजिक परिवर्तन की राह भी खोलता। 

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अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

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पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

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उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता