भारत में वामपंथ अक्सर ही गाली खाते रहता है। कई कह सकते हैं कि वे हैं ही इस लायक। ऐसा कहने वालों में सिर्फ वे ही नहीं हैं जो वामपंथ से सदा ही चिढ़ते हैं। इसमें ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो वामपंथ से कई किस्म की अपेक्षा रखते रहे हैं परन्तु वामपंथ ने उनकी अपेक्षा या आकांक्षा के अनुरूप कार्य व व्यवहार नहीं किया। वे वामपंथ से क्षुब्ध रहते हैं।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भाजपा के नेता और उनसे जुड़े हिन्दुत्व के विचारकों को तो वामपंथ फूटी आंख भी नहीं सुहाता है। वे उन्हें छूटते ही गाली देने लगते हैं। देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही, धर्म विरोधी, संस्कृति के विनाशक आदि, आदि गालियों से नवाजने लगते हैं।
वामपंथ को गलियाने में सिर्फ हिन्दू कट्टरपंथी, फासीवादी ही नहीं बल्कि हर धर्म के कट्टरपंथी, धार्मिक नेता शामिल होते हैं। और इस मामले में एक-दूसरे के खून के प्यासे लोगों के बीच भी अभूतपूर्व एकता कायम हो जाती है। हर धर्म के ठेकेदार वामपंथ को अपने लिए एक खतरा देखते हैं। धर्म के ठेकेदार ही नहीं बल्कि जाति, पंथ या सम्प्रदाय के नाम पर अपनी राजनीति करने वाले भी वामपंथ से नफरत करते हैं। ‘हरी घास में हरे सांप’ का मुहावरा, सबसे सभ्य भाषा में गाली के रूप में दशकों से प्रचलित है।
इस तरह से देखा जाये तो वामपंथ विभिन्न सरकारों, धर्म-जाति-नस्ल को आधार बनाकर राजनीति करने वालों, धर्म-जाति-संस्कृति के स्वयंभू ठेकेदारों, दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों-विचारकों आदि के निशाने पर आम तौर पर रहता है।
सवाल यह है कि वामपंथ को क्यों निशाने पर लिया जाता है। क्यों वह गाली खाता है।
वामपंथी होने का आम मतलब है कि वह मजदूरों-किसानों की बात करेगा। समाज में बराबरी, आजादी, भाईचारे की बात करेगा। तर्क विज्ञान के आधार पर अपनी बात रखेगा। अंधविश्वास, कूपमंडूकता, मध्ययुगीन सामंती मूल्यों-मान्यताओं का विरोधी होगा। दलित, आदिवासी, स्त्रियों, धार्मिक अल्पसंख्यकों आदि के दमन, उत्पीड़न का मुखर विरोधी होगा। जात-पात, छूआछूत, ऊंच-नीच का विरोधी होगा। वह अतीतजीवी न होकर बेहतर भविष्य का सपना बुनता होगा। वह किसी एक देश, एक भाषा, एक संस्कृति का पक्षधर होने के स्थान पर पूरी दुनिया की विविधता, बहुलता, उदारता से उपजने वाले मूल्यों का वाहक होगा। ये बातें कुल मिलाकर किसी व्यक्ति को वामपंथी पहचान प्रदान करती हैं।
वामपंथी किस्म-किस्म के होते हैं। वे व्यवस्था परस्त से लेकर व्यवस्था विरोधी हो सकते हैं। व्यवस्थापरस्त वामपंथी वे होते हैं जो सुधारों के जरिये शोषित-उत्पीड़ितों की भलाई का ख्वाब परोसते हैं। इसके उलट व्यवस्था विरोधी वामपंथी पहले ही क्षण घोषणा करते हैं कि वर्तमान व्यवस्था के भीतर शोषित-उत्पीड़ितों को कभी भी शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति नहीं मिल सकती है। वे खुलेआम घोषणा करते हैं कि सिर्फ और सिर्फ क्रांति के जरिये ही शोषकों-उत्पीड़कों के राज को खत्म किया जा सकता है। एक ऐसा समाज बनाया जा सकता है जहां शोषण-उत्पीड़न का खात्मा किया जा सकता है। इसकी आवश्यक शर्त है कि मजदूरों-किसानों का राज कायम हो। इसे समाजवाद की संज्ञा दी जाती है। समाजवाद के उदाहरण के रूप में 1917 की अक्टूबर क्रांति के बाद कायम समाज की अक्सर मिसाल दी जाती है।
व्यवस्था परस्त वामपंथी क्रांति को समाज के लिए अभिशाप समझते हैं। वे इसे सिर-फिरे लोगों की मूर्खतापूर्ण कवायद समझते हैं। वे क्रांति के दौरान होने वाले रक्तपात को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं। वे क्रांतिकारियों को उग्र, लड़ाकू, हिंसक, क्रूर आदि की संज्ञा देते हैं। कई बार तो ये क्रांतिकारियों की ऐसी तस्वीर खींचते हैं जिसमें वे डकैत, आतंकवादियों से कतई भिन्न नहीं दिखायी देते हैं। दुनिया के महान क्रांतिकारी लेनिन, स्तालिन, माओ इन्हें सनकी, तानाशाह दिखायी देते हैं।
यहां पर आकर व्यवस्थापरस्त वामपंथी और व्यवस्था के भीतर काम करने वाले कई किस्म के राजनैतिक समूह-संस्थाएं-दल-बुद्धिजीवी आदि सभी एक भाषा बोलने लगते हैं। उनके सुर एक होते हैं। वे एक ही राग में व्यवस्था विरोधी वामपंथियों की निंदा करने लगते हैं। हद तो यह हो जाती है कि क्रांतिकारियों के या व्यवस्था विरोधी वामपंथियों के दमन में वे एक-दूसरे से होड़ लेने लगते हैं।
व्यवस्थापरस्त वामपंथी तर्क गढ़ते हैं कि चुनाव के जरिये व्यवस्था में बदलाव लाया जा सकता है। क्योंकि समाज में मजदूरों, किसानों, शोषित-उत्पीड़ितों की संख्या अधिक है। अतः यदि वे एकजुट हो जायें और उनके दल की सरकार बन जायेगी तो इस तरह शोषित-उत्पीड़ितों का राज कायम हो जायेगा। और बिना किसी क्रांति, बिना किसी खून-खराबे के समाज बदल जायेगा।
समय ने साबित किया है कि चुनाव या संसदीय रास्ते के जरिये समाज में क्रांतिकारी बदलाव नहीं आया। अधिक से अधिक कुछेक सुधार ही संभव हो सके। भारत में केरल जैसे राज्य में भूमि-सुधार से लेकर साक्षरता आदि में कुछ लक्ष्य हासिल किये जा सके।
असल में व्यवस्थापरस्त वामपंथ भारत सहित दुनिया के शासक वर्ग के लिए एक अच्छी सुरक्षा पंक्ति ही साबित हुआ है। वे सरकारी खजाने से पलने वाले जीवों में बदल गये। अक्सर ही इन्हें सरकारी वामपंथी या सरकारी कम्युनिस्ट जैसी उपाधि से नवाजा जाने लगा।
फिर सवाल उठता है कि ये सरकारी वामपंथी भी क्यों दक्षिणपंथियों या फासीवादियों के निशाने पर रहते हैं। इसका एक कारण तो यह है कि ये सरकारी वामपंथी इनके चुनाव के दौरान प्रतिद्वन्द्वी होते हैं। और ये इनके लिए एक चुनौती बन जाते हैं। दूसरा मामला इनका अपनी साख व आधार बनाने या बनाये रखने के लिए किये जाने वाले कार्यों व नीतियों का है। आम तौर पर सरकारी वामपंथी धर्म की राजनीति नहीं करते हैं। रंग, नस्ल, जाति का खेल नहीं खेलते हैं इसलिए ये दक्षिणपंथियों के निशाने पर आ जाते हैं। भारत के सरकारी वामपंथी लम्बे समय तक अपनी सादगी, ईमानदारी और बौद्धिकता के लिए समाज व शासक वर्ग से प्रशंसा पाते रहे हैं। यह सब दक्षिणपंथियों के लिए ईर्ष्या का एक अन्य कारण बनता रहा है। उनकी उपस्थिति फासीवादियों को खास तौर पर बुरी लगती है।
व्यवस्था परस्त वामपंथी व्यवस्था विरोधी या क्रांतिकारियों के दृष्टिकोण से ईमानदारी के नहीं भ्रष्टता के प्रतीक हैं। यहां सवाल व्यक्तिगत ईमानदारी या सादगी का ना होकर मजदूरों-किसानों की मुक्ति का है। यही कसौटी है जिसके कारण क्रांतिकारी वामपंथी व्यवस्था परस्त वामपंथियों को अपने निशाने पर लेते हैं। उनके सुधारों के लिए किये जाने वाले कार्यों की पोल खोलते हैं। वे ऐसा ठीक ही करते हैं। वे इनके खिलाफ मजदूरों-किसानों, शोषित-उत्पीड़ितों को सचेत करते हैं तो ठीक करते हैं।
वामपंथ क्यों गाली खाता है
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को