दिल तोड़ते छोटे-छोटे नायक

/dil-todate-chote-chote-naayak

मोदी और राहुल गांधी जैसे बड़े नायकों के अलावा आज ढेरों छोटे-छोटे नायक भी हैं जो अपने चाहने वालों का दिल तोड़ दे रहे हैं। अभी अवध ओझा नामक नायक ने आम आदमी पार्टी में शामिल होकर कईयों का दिल तोड़ दिया। इसके पहले विकास दिव्यकीर्ति ने कईयों का दिल तोड़ा था। इसी तरह दिलीप मंडल ने भी कईयों का दिल तोड़ा था। 
    
ये सारी हालिया छुटभैया हस्तियां हैं जो वैसे ही लोगों की जमात के लिए नायक हैं। पहली दो ऐसे लोगों के लिए नायक थीं जो भारत की सिविल सेवा में शामिल होने का ख्वाब देखते हैं। ये सारे लोग सरकारी विभागों में लूट-पाट के शीर्ष पर बैठना चाहते हैं। तीसरी वाली हस्ती तथाकथित सामाजिक न्याय का झंडा बुलंद करती थी और इस तरह गैर-सवर्ण मध्यमवर्गीय जमात के लिए नायक थी। इसने अचानक पाला बदल कर सबसे ज्यादा सवर्णवादी पार्टी यानी भाजपा का दामन पकड़ लिया। 
    
ये सारे दिल तोड़ने वाले लोग हैं। पर दोष इनका नहीं है। दोष तो उनका है जिनका दिल टूट रहा है। उन्होंने ऐसे लोगों को अपना नायक मान लिया था जो किसी भी तरह इस गरिमा के हकदार नहीं थे। पूछे जाने पर वे बेहद सहजता से इससे इंकार भी कर सकते हैं। वे दावा कर सकते हैं कि उन्होंने तो कभी खुद को इस रूप में पेश नहीं किया। यदि लोगों ने उन्हें नायक या आदर्श मान लिया तो भला वे क्या करें?
    
नायक विहीन इस दुनिया में बेतहाशा नायकों की खोज जारी है। हर कोने-अंतरे में झांक कर नायक तलाश किये जा रहे हैं। ऐसे में सारे नटवरलालों की चांदी हो गयी है। वे नये रंग-रूप के साथ खुद को पेश करते हैं और नायकों की तलाश में लगे लोगों द्वारा लपक लिये जाते हैं। पर जल्दी ही इन नायकों की कलई खुल जाती है और निराश-हताश लोग नये नायकों की खोज में निकल पड़ते हैं। 
    
आधुनिक मध्यम वर्ग विश्वास विहीन है। उसकी कोई दृढ़ आस्थाएं नहीं हैं। लगातार नैतिकता की बातें करने वाले इस वर्ग की वास्तव में कोई स्थिर नैतिकता भी नहीं है। लगातार चमक-दमक और फैशन के पीछे भागने वाला यह वर्ग बेपेंदी का लोटा है। यहां तक कि इस धर्मभीरू वर्ग में ईश्वर के प्रति भी कोई दृढ़ आस्था नहीं है। उससे उसका रिश्ता लेन-देन का ही है। 
    
अपने में या किसी और में किसी दृढ़ विश्वास से वंचित इस वर्ग की यह नियति होती है कि वह अपने आदर्शों को किसी और में प्रक्षेपित करता है। किसी और में उसकी झलक उसे आकर्षित करती है और वह अपनी डोर उसके साथ बांध देता है। वह अपने नायक की उड़ान में अपनी उड़ान देखता है। 
    
इस वर्ग की इस कमजोरी का ही सारे धूर्त फायदा उठाते हैं। ये धूर्त इस बात को जानते हैं कि वास्तविक नायकों से खाली इस दुनिया में नायकों का एक भारी बाजार है। और चूंकि बाजार में असली माल नहीं तो नकली मालों की अच्छी आपूर्ति हो सकती है। बस जरूरत इस बात की है कि माल की ‘ब्रांडिंग’ अच्छी हो। उसकी ‘पैकेजिंग’ अच्छी हो। इसी के साथ ‘मार्केटिंग’ तो जरूरी है ही। जब तक व्यवहार में इस्तेमाल होकर माल का नकलीपन साबित नहीं होता तब तक धंधा किया जा सकता है। बाजार के ये धूर्त खिलाड़ी बाजार के इस चलन को अच्छी तरह समझते हैं। 
    
इन छुटभैये नायकों की समस्या यह है कि इन्हें किसी बड़े पूंजीपति का समर्थन हासिल नहीं होता। इसीलिए वे नायकों के बाजार से जल्दी बाहर हो जाते हैं। यदि उन्हें मोदी की तरह बड़े पूंजीपतियों का समर्थन हासिल हो तो वे बाजार में लम्बा टिक सकते थे। लेकिन मोदी जैसे नायकों की भी एक ‘एक्सपायरी डेट’ है। तब बड़ा पूंजीपति वर्ग किसी और को सामने ले आयेगा। पूंजीवाद के रहते यह सिलसिला चलता रहेगा। 

आलेख

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।