यह एक जानी-पहचानी बात है कि शासक वर्ग जब जिस वक्त जो नारे उछालता है हकीकत में वह स्वयं या तो उस पर यकीन नहीं रखता है या फिर वह अपने नारे के जरिये हकीकत पर पर्दा डालने का काम करता है। नारों का लेना-देना सिर्फ और सिर्फ कथनी से होता है। करनी से उसका दूर-दूर का भी नाता नहीं होता है।
ऐसे नारे सामाजिक विद्रूपता पर पर्दा डालने में इस हद तक तो कामयाब हो ही जाते हैं कि किसी धूर्त पूंजीवादी नेता का राजनैतिक कैरियर परवान चढ़ जाता है और कई दफा तरह-तरह के नारों के जरिये ही वाक्जाल में माहिर नेता निरापद ढंग से अपना पूरा राजनैतिक जीवन जी लेता है।
नारे उछालने और जुमले फेंकने में नरेन्द्र मोदी का कोई सानी नहीं है। इन महाशय का पूरा राजनीतिक जीवन इस बात की जीती-जागती मिसाल है कि कैसे बड़ी ही कलात्मकता और सूक्ष्मता के साथ जनता को मुगालते में रखकर धनलोलुप पूंजीपतियों की सेवा की जाती है। कैसे मीठी छुरी से जनता को हलाल किया जाता है।
नारे उछालने और जनता को धोखा देने की कला ही किसी सफल पूंजीवादी राजनेता की सफलता-दर-सफलता की कुंजी है। और यदि यह कला चूक गयी या फिर बड़ा कलाकार आ गया तो समझो सारी राजनीतिक पूंजी मिट्टी में मिल गयी।
मोदी की कलाकारी से उपजे किसी भी नारे को हकीकत की कसौटी में कस के देखिए आप पायेंगे कि जमीन व आसमान का अंतर है। मोदी ने अपने राजनैतिक जीवन में ‘बाइब्रेंट गुजरात’, ‘सबका साथ सबका विकास’ (बाद में इसमें सबका विश्वास और जुड़ गया)’, ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ जैसे न जाने कितने नारे निरन्तर उछाले हैं।
पूंजीवादी राजनीतिज्ञ के रूप में वही कामयाब है जो सबसे ज्यादा लफ्फाज है। सबसे ज्यादा नारेबाज है। सबसे ज्यादा जुमलेबाज है।
इसी सिलसिले में 9-10 सितम्बर को नई दिल्ली में हो रहे जी-20 के शिखर सम्मेलन के नारे को लिया जा सकता है।
इस शिखर सम्मेलन के लिए नारा उछाला गया है, ‘‘एक धरती, एक परिवार, एक भविष्य’’।
इसमें कोई शक नहीं है कि नारा आकर्षक है। काफी मेहनत से गढ़ा गया है और जी-20 की बैठक के लिए एक उद्देश्य प्रकट करता है। इस नारे की कई ढंग से व्याख्या की जा सकती है और लम्बे-लम्बे व्याख्यान अलग-अलग संदर्भों में दिये जा सकते हैं। राजनैतिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि पर्यावरण के दृष्टिकोण से भी इस नारे की व्याख्या की जा सकती है। और यहां तक कि पुरानी भारतीय वैदिक उक्ति ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’’ के आधार पर लम्बी-लम्बी हांकी जा सकती है।
इस नारे को यदि हकीकत की कसौटी में कसा जाये तो आप पायेंगे कि यह किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके जीवित पारिवारिक जनों को दी जाने वाली झूठी सांत्वना के अलावा कुछ नहीं है।
हकीकत यही है कि न तो धरती एक है, न वह एक परिवार है और न ही उसका एक भविष्य है।
और साथ ही यह भी सच है कि जी-20 या संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे समूह या संस्था के द्वारा न तो धरती को एक रखा जा सकता है और न ही एक भविष्य की गारण्टी की जा सकती है।
आज पूरी दुनिया दो विशाल शिविरों में बंटी हुयी है। एक तरफ पूंजीपति वर्ग है और दूसरी तरफ मजदूर-मेहनतकश वर्ग है। एक तरफ शोषक हैं दूसरी तरफ शोषित हैं। एक तरफ उत्पीड़क दूसरी तरफ उत्पीड़ित हैं।
एक ओर सं.रा. अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी, रूस जैसी साम्राज्यवादी ताकतें हैं और दूसरी इन साम्राज्यवादी ताकतों से शोषित-उत्पीड़ित मजदूर-मेहनतकश जनता और तीसरी दुनिया के देश हैं।
एक तरफ आये दिन एक के बाद एक युद्ध थोपने वाले सं.रा. अमेरिका, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम, रूस जैसे साम्राज्यवादी देश हैं तो दूसरी तरफ इन थोपे गये युद्धों से तबाह इराक, सीरिया, लीबिया, अफगानिस्तान जैसे देश हैं।
कोई तो बताये कि यह कैसे संभव है कि एलन मस्क, बिल गेट्स, मुकेश अंबानी जैसे धनपशु और रात-दिन कल-कारखानों और खेतों में काम करने वाले मजदूर एक हो जायें। कैसे संभव है कि सं.रा.अमेरिका और तबाह-बर्बाद सीरिया एक हो जायें। किसी काल्पनिक दुनिया में ही संभव है कि बाघ और बकरी एक घाट में एक ही समय पानी पियें।
जो दुनिया वर्ग, नस्ल, लिंग, जाति, रंग, धर्म आदि में किस्म-किस्म के भेद-उपभेदों में बंटी हो वह भला एक कैसे हो सकती है। दुनिया तभी एक हो सकती है जब वर्ग भेद बुनियादी तौर पर मिटा दिया जाये। यानी पूंजीपति वर्ग का वर्ग के बतौर अस्तित्व मिटा दिया जाये। इस मूल अंतरविरोध के मिटने के साथ ही यह संभव हो सकेगा कि पूरी दुनिया का एकीकरण हो।
एक धरती और कम से कम हम मनुष्यों के लिए एक ही धरती है। फिलहाल इस वैज्ञानिक संभावना को नजरअंदाज कर दिया जाए कि हमारे ब्रह्माण्ड में कम से कम एक हजार पृथ्वी संभव हैं। हमारी धरती को सबसे ज्यादा नुकसान कौन पहुंचा रहा है। निःसंदेह व्यवस्था के रूप में साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था और इसके नियामक के रूप में दुनिया का शासक वर्ग- पूंजीपति वर्ग। इस वर्ग के मुनाफे की हवस ने पूरी दुनिया के पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचा दिया है। जमीन, जल, वायु कोई भी आज इस लालची धनपशु वर्ग के द्वारा पहुंचाये जाने वाले नुकसान से नहीं बचा है। यदि धरती को कोई बचाना ही चाहता है तो उसे सबसे पहले आज के शासक वर्ग से लोहा लेना होगा।
ठीक यही बात ‘एक परिवार’ के संदर्भ में लागू हो सकती है। पूरी दुनिया एक सूत्र में तभी बंध सकती है जब किस्म-किस्म के बंटवारे समाप्त हों। सच्चा भाईचारा कायम करने का अर्थ है कि वर्ग, नस्ल, रंग, जाति, राष्ट्रीयता, लिंग आदि से उत्पन्न होने वाले भेद मिटाये जायें।
क्योंकि धरती में किस्म-किस्म के बंटवारे मौजूद हैं इसलिए ऐसे में एक भविष्य की बात सौ फीसदी लफ्फाजी है।
एलन मस्क, बिल गेट्स, मुकेश अम्बानी जैसे अपने भविष्य में अमीर और अमीर बनना चाहते हैं। जो बाइडेन, ऋषि सुनक, पुतिन, शी जिनपिंग, मोदी जैसे धूर्त राजनेता अपना भविष्य कैसे देखते हैं। स्वाभाविक तौर पर इनमें से हर कोई चाहेगा कि वह ताउम्र सत्ता के शिखर पर बैठा रहे। जो बाइडेन को छोड़ दिया जाए जो अमेरिकी संविधान के अनुसार अधिक से अधिक दो बार ही राष्ट्रपति बन सकता है बाकी अन्य तो चाहेंगे कि वे किसी भी तरह से सत्ता के शिखर पर बैठे रहें। धूर्त पूंजीपति वर्ग और उसके राजनेताओं और शोषण-उत्पीड़न की चक्की में पिसते मजदूरों-मेहनतकशों का भविष्य एक कैसे हो सकता है। जो एक की चाहत है वह दूसरे की मुसीबत है। पूंजी पूंजीपतियों का प्राण है तो मजदूर वर्ग चाहेगा ऐसी दुनिया बने जहां पूंजी का नामोनिशान न हो। सब पूरी क्षमता से मेहनत करें और सब जो कुछ पैदा हो, उसका अपनी-अपनी आवश्यकतानुसार उपभोग करें।
‘एक धरती, एक परिवार, एक भविष्य’ का नारा एक हवा-हवाई नारा है। हकीकत में जो नारे उछाल रहे हैं वे ही मानव जाति के, सम्पूर्ण धरती के सबसे बड़े दुश्मन हैं।
‘‘एक धरती, एक परिवार, एक भविष्य’’
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को