एक व्यक्ति, एक वोट और एक मूल्य

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

पूंजीवाद

‘‘26 जनवरी, 1950 को हम अंतर्विरोधों से भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी। राजनीति में हम एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट एक मूल्य के उसूल को मान्यता दे रहे होंगे। सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम, अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण, एक व्यक्ति एक मूल्य के उसूल को नकारना जारी रखेंगे। हम कितने समय तक इस अंतर्विरोधों से भरे जीवन में जीना जारी रखेंगे?’’ 
    
यह बात भीमराव अंबेडकर ने भारत की संविधान सभा में अपने प्रसिद्ध अंतिम भाषण में कही थी। इसी भाषण में उन्होंने चेतावनी दी थी कि यदि उपरोक्त अंतर्विरोध का समाधान नहीं किया गया तो समाज के शोषित-वंचित लोग (जो एक व्यक्ति एक मूल्य के उसूल से बाहर हैं) एक दिन इतनी मेहनत से बनाए गए संविधान को उखाड़ फेंकेगे। 
    
आज उपरोक्त बात के 75 साल बाद क्या हालात हैं? क्या देश में एक व्यक्ति, एक वोट और एक मूल्य का उसूल लागू हो गया है? क्या देश के सारे लोग इस उसूल के तहत जी रहे हैं? 
    
इस सवाल का जवाब देने के लिए पहले इस उसूल पर ही एक नजर डाल लेना जरूरी है। आखिर एक व्यक्ति, एक वोट और एक मूल्य के उसूल का मतलब क्या है? 
    
अक्सर हमारे समाज में लोग कहते हुए मिल जाते हैं कि बहुत शोषण हो रहा है। इससे लगता है कि कहने वाला शोषण के खिलाफ है। लेकिन उससे थोड़ा ही बात करने से पता चल जाता है कि शोषण से उसका खास मतलब है। यह मतलब कानून से तय होता है। यानी यदि कानून के हिसाब से व्यक्ति से काम नहीं कराया जा रहा है और कानून के हिसाब से उसे भुगतान नहीं किया जा रहा है तो उसे लगता है कि शोषण हो रहा है। शोषण की मात्रा तय कानून से विचलन के अनुपात में होती है यानी ज्यादा विचलन तो ज्यादा शोषण। उदाहरण के लिए यदि आठ के बदले 12 घंटे काम कराया जाये तथा तय मजदूरी की दो-तिहाई दी जाए तो बहुत शोषण होगा जबकि यदि 8 घंटे ही काम कराकर तय मजदूरी दे दी जाए तो शोषण नहीं होगा। 
    
पूंजीवाद के तहत उसके नियमों-कानूनों और उसूलों को मानने वालों के लिए शोषण की यही परिभाषा होती है चाहे वे पूंजीपति हों, पूंजीवादी अर्थशास्त्री हों या फिर आम मजदूर। शोषण की यह परिभाषा पूंजीवादी समाज के मूल्यों-मान्यताओं से तय हो रही होती है। जो इन पूंजीवादी मूल्य-मान्यताओं को नहीं मानते और इस पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त कर एक नई साम्यवादी व्यवस्था कायम करना चाहते हैं उनके लिए शोषण का दूसरा मतलब होता है। उनके लिए शोषण तब भी होता है जब 8 घंटे काम कराकर तय मजदूरी दे दी जाती है। उनके लिए यह शोषण ही पूंजीवाद में सारे मुनाफे का आधार है। यदि शोषण नहीं होगा तो मुनाफा भी नहीं होगा। यही नहीं, वे और आगे जाते हैं और कहते हैं कि सारे वर्गीय समाजों में शोषण होता रहा है। गुलाम मालिक गुलामों का शोषण करते थे, जमींदार व सामंत किसानों व भूदासों का शोषण करते थे और अब पूंजीपति मजदूरों का शोषण करते हैं। मेहनत करने वालों के शोषण के द्वारा ही समाज के थोड़े से सम्पत्तिवान लोग सम्पत्तिवान बने तथा आगे और शोषण करने में सक्षम हुए। इसी शोषण से हासिल सम्पत्ति से ही वे ऐश करते रहे। यह पूंजीवाद में आज भी जारी है। 
    
इस सबका एक व्यक्ति, एक वोट और एक मूल्य के उसूल से क्या संबंध है? 
    
यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता। यह यूं ही नहीं था कि शुरुआती इसाई धर्म में कहा गया कि सुई के छेद से भले ऊंट निकल जाए पर धनवानों को स्वर्ग में प्रवेश नहीं मिल सकता क्योंकि स्वर्ग का राज गरीबों का है। यानी शुरुआती इसाई धर्म ने गरीब और अमीर को एक मूल्य का नहीं माना। यह समाज में व्याप्त अमीरी और गरीबी के उसूल को सिर के बल खड़ा करना था। 
    
यदि सारे ही वर्गीय समाजों में शोषक और शोषित के बीच, सम्पत्तिवान और सम्पत्तिविहीन के बीच एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता तो फिर पूंजीवाद में इस उसूल पर बात करने का मतलब क्या है? क्यों अंबेडकर जैसे पूंजीवादी विचारक इस उसूल की इस तरह बात करते हैं मानो इसे पूंजीवाद में हासिल किया जा सकता है? 
    
इसकी वजह यह है कि पूंजीपति वर्ग पुराने वर्गीय समाजों में तो गैर-बराबरी और शोषण देखता है पर पूंजीवाद में नहीं। पूंजीपति वर्ग मानता है कि गुलामों के मालिक गुलामों का शोषण करते थे और उन्हें बराबर के इंसान की मान्यता नहीं देते थे। वह मानता है कि सामंत भूदासों का शोषण करते थे और उन्हें बराबर के इंसान की मान्यता नहीं देते थे। इसके मुकाबले पूंजीपति मजदूरों का शोषण नहीं करते और उन्हें बराबर के इंसान की मान्यता भी देते हैं। इस तरह पूंजीवाद में एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू होता है। 
    
लेकिन पूछा जा सकता है कि यदि पूंजीवाद में शोषण नहीं होता तो फिर उसमें आर्थिक गैर बराबरी क्यों है? और यदि आर्थिक गैर-बराबरी है तो फिर एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल कैसे लागू हो सकता है? 
    
पूंजीवाद के समर्थक यह तर्क देते हैं जब पूंजीपति मजदूर को उसकी वाजिब मजदूरी (उसकी श्रम शक्ति का दाम) दे देता है तो फिर वह मजदूर का कोई शोषण नहीं करता। उसका मुनाफा तो अन्य वजहों से होता है जिसके लिए वे भांति-भांति के तर्क देते हैं। रही गैर बराबरी की बात तो वह मुनाफे से पैदा होती है या फिर अलग-अलग लोगों की अलग-अलग प्रतिभाओं के कारण। और प्रतिभा तो जन्मजात होती है इसलिए उसके लिए प्रकृति जिम्मेदार होती है, समाज नहीं। समाज तो कानूनी तौर पर सबको बराबर घोषित कर तथा सबको प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका देकर एक व्यक्ति एक मूल्य को मान्यता देता है। इसीलिए पूंजीवाद में एक व्यक्ति एक मूल्य का सिद्धांत लागू होता है। पूंजीवाद में जब राजनीतिक व्यवस्था के संचालन के लिए जनतांत्रिक व्यवस्था अपनाई जाती है तो इसी उसूल के कारण एक व्यक्ति एक वोट का उसूल भी अपनाया जाता है। हर व्यक्ति अपने बराबर के एक वोट के जरिए सरकार चुनने में भागीदारी करता है चाहे वह पूंजीपति हो या मजदूर।
    
इसी सोच के कारण जब पूंजीवादी विचारक एक व्यक्ति, एक वोट और एक मूल्य के उसूल को लागू करने की बात करते हैं तो इसका मतलब होता है कि सामंती जमाने से चली आ रही सामाजिक गैर बराबरी को समाप्त कर सबको कानूनी तौर पर बराबर कर दिया जाए। यदि सब लोग स्वतंत्र तौर पर चुनावों में वोट डालने लगें तथा बाजार में प्रतियोगिता करने लगें तो यह उसूल व्यवहार में लागू हुआ मान लिया जाएगा। यदि तब भी आर्थिक तौर पर लोग गैर-बराबर रहते हैं तो उसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार होंगे। समाज या सामाजिक व्यवस्था उसके लिए जिम्मेदार नहीं होगी। 
    
1950 में भारत के लिए इसका मतलब यह था कि भारत की जाति व्यवस्था ने लोगों को सामाजिक तौर पर गैर-बराबर बना रखा था। उसमें एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं था। बल्कि इसका उलटा था। इसमें सवर्ण व्यक्ति का एक मूल्य था तो दलित व्यक्ति का दूसरा। अब संविधान के द्वारा हर व्यक्ति को कानूनी तौर पर बराबर (भारत का नागरिक) घोषित कर एक वोट का अधिकार दिया गया था पर सामाजिक तौर पर जाति व्यवस्था तो बनी ही हुई थी। आने वाले चुनाव में लोग एक व्यक्ति एक वोट के हिसाब से मतदान करते जबकि सामाजिक तौर पर उनका एक मूल्य नहीं होता। चूंकि सामाजिक तौर पर गैर-बराबरी होती जबकि राजनीतिक तौर पर बराबरी, इसलिए यह स्थिति अंतर्विरोध पूर्ण होती। इसका समाधान था सामाजिक तौर पर भी बराबरी हासिल करना यानी जाति व्यवस्था का खात्मा। 
    
इसके लिए आरक्षण का नुस्खा प्रस्तावित किया गया। अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए तभी से शिक्षा, नौकरी और चुनावों में आरक्षण की व्यवस्था की गई। बाद में पिछड़ी जातियों के लिए भी शिक्षा और नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था लागू हुई। 
    
वैसे अंबेडकर के पक्ष में यह कहना होगा कि उन्होंने इसके लिए कुछ आर्थिक कदमों का भी प्रस्ताव किया पर वे केवल प्रस्ताव बनकर रह गए।
    
सभी पूंजीवादी विचारकों की तरह अंबेडकर भी निजी सम्पत्ति की व्यवस्था में विश्वास करते थे। वे निजी सम्पत्ति समाप्त कर सामूहिक सम्पत्ति की स्थापना यानी साम्यवाद के समर्थक नहीं थे। वे इसके विरोधी थे। भारत का संविधान निजी सम्पत्ति की रक्षा करता है। बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के प्रसिद्ध फैसले (केशवानंद भारती फैसला) के अनुसार यह संविधान की मूल आत्मा है। 
    
निजी सम्पत्ति की रक्षा करते हुए आरक्षण और कुछ अन्य आर्थिक कदमों से भारत की हजारों साल से चली आ रही वर्ण-जाति व्यवस्था को क्रमशः खत्म करने का जो रास्ता भारत के पूंजीपति वर्ग ने अपनाया उसका स्वाभाविक सा परिणाम होना था कि यह व्यवस्था क्रमशः क्षरित होते हुए भी बनी रहती। हुआ भी यही। आज भी भारत में जाति व्यवस्था बनी हुई है और आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में अलग-अलग मात्रा में अपना प्रभाव डाल रही है। खासकर चुनावी राजनीति में जातिगत पहचान का जमकर इस्तेमाल हो रहा है और स्वयं आरक्षण राजनीतिक खींच-तान का प्रमुख मुद्दा बन गया है। साथ ही आरक्षण बेरोजगारी की भयावह समस्या से ध्यान भटकाने का प्रमुख औजार भी बन गया है। अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण में उपश्रेणी बनाने के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले को भी इसी के मद्देनजर देखा जाना चाहिए। 
    
आज 75 साल बाद स्पष्ट है कि अंबेडकर ने जिस अंतर्विरोध की बात की थी वह आज भी बना हुआ है। समाज में एक व्यक्ति, एक वोट और एक मूल्य का उसूल आज भी लागू नहीं हुआ है। हां, यह जरूर हुआ है कि भारत के पूंजीपति वर्ग ने उस आशंका को सच साबित नहीं होने दिया जिसे अंबेडकर ने जाहिर किया था यानी उसने शोषितों-वंचितों के विद्रोह को रोकने में कामयाबी हासिल की है। किसी हद तक यह शोषितों-वंचितों से लोगों को अपने भीतर समाहित करने के जरिए हुआ है जिसमें आरक्षण ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 
    
आज भारतीय समाज में एक व्यक्ति, एक वोट और एक मूल्य के उसूल का अभाव दोहरे अर्थ में मौजूद है। एक तो उस सीमित पूंजीवादी अर्थ में जिसे अंबेडकर स्वर दे रहे थे यानी वर्ण-जाति व्यवस्था के खात्मे के अर्थ में। जब तक भारतीय समाज से वर्ण-जाति व्यवस्था पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाती यह अभाव बना रहेगा। जिस हद तक भारतीय समाज में वर्ण-जाति व्यवस्था बनी हुई है, उस हद तक यह अभाव भी बना हुआ है। 
    
लेकिन उसका दूसरा अर्थ ज्यादा व्यापक है जो पूंजीवाद की सीमाओं के पार जाता है। ठीक इसी कारण जो भी पूंजीवादी समाज की सीमाओं में कैद है वह इस अर्थ तक नहीं जा पाता। यह सहज सी बात है कि जब तक आर्थिक गैर बराबरी है तब तक एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। अमीर का मूल्य ज्यादा होगा गरीब का कम (और कहीं-कहीं तो बीमा कंपनियों के मामले में इसे देखा जा सकता है। भारत में तो सरकार जो मुआवजा घोषित करती है उसमें भी इसे देखा जा सकता है)। यह तब भी होगा जब एक की अमीरी का दूसरे की गरीबी से कोई संबंध ना हो, मसलन दो किसानों के मामले में। अमीर किसान गरीब किसान के साथ शादी-विवाह का संबंध नहीं कायम करेगा। और जब मसला ऐसा हो कि अमीर की अमीरी गरीब की गरीबी पर निर्भर हो तब तो हरगिज भी दोनों का मूल्य बराबर नहीं हो सकता। पूंजीपति और उसके मजदूर का मूल्य कभी भी बराबर नहीं हो सकता- न सरकारी दफ्तर में, न थाने में और न अदालत में। समाज में तो इसका सवाल ही नहीं पैदा होता। 
    
पूंजीवाद निजी सम्पत्ति की व्यवस्था है जो अमीरी-गरीबी को मानकर चलती है। इसमें पूंजी का मुनाफा मजदूर के शोषण से आता है। पूंजी के मालिक यानी पूंजीपति समाज के उत्पादन के साधनों के मालिक और इसीलिए सारे समाज के मालिक होते हैं। सारे समाज की व्यवस्था उन्हीं के लिए उन्हीं के हिसाब से चलती है। मजदूर तो बस पूंजी का गुलाम होता है जिसे पूंजीपति के हिसाब से चलना होता है ठीक इसीलिए पूंजीपति और मजदूर के मूल्य में जमीन-आसमान का फर्क होता है। मध्यम वर्ग इन दोनों के बीच कहीं त्रिशंकु की तरह लटका होता है।         

पूंजीवादी समाज का यह अंतर्विरोध ऐसा अंतर्विरोध है जिसका समाधान कोई भी नुस्खा नहीं कर सकता। इस मामले में तो आरक्षण जैसा कोई लचर नुस्खा भी नहीं है। पूंजीपति वर्ग ने कभी ‘कल्याणकारी राज्य’ के जरिए इस अंतर्विरोध को कुछ धूमिल करने की कोशिश की थी फिर खुद ही उस पर हमला कर इस अंतर्विरोध को बढ़ाना शुरू कर दिया। 
    
आज यही अंतर्विरोध समाज का प्रमुख अंतर्विरोध है, भारतीय समाज का भी और बाकी समाजों का भी। इसका केवल एक समाधान है- निजी सम्पत्ति का खात्मा और सामूहिक सम्पत्ति की स्थापना। कहना ना होगा कि पूंजीवाद की सीमाओं में कैद लोग इस समाधान को कभी स्वीकार नहीं कर सकते।
 

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