भारत की संसद में 1 जुलाई को जो हुआ वह अजब-गजब था। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की गर्जन-तर्जन से सत्ता पक्ष बेचैन था। इधर राहुल गांधी बोलते उधर कभी प्रधानमंत्री, कभी लोकसभा अध्यक्ष, कभी गृह मंत्री, कभी रक्षा मंत्री, कभी कृषि मंत्री उठ-उठ कर जवाब व स्पष्टीकरण देते। जो सत्ता पक्ष कल तक बेलगाम था वह आज हैरान-परेशान था। आम चुनाव परिणाम ने भारत की संसद का नजारा बदल दिया।
लोकसभा की तरह राज्य सभा का भी ऐसा ही हाल था। खड़गे ‘‘नई सरकार’’ की लानत-मलामत करते रहे और सत्ता पक्ष बचाव की मुद्रा में था। हद तो तब हुयी जब खड़गे साहब ने आर एस एस के मनुवाद पर हमला किया तो सभापति उपराष्ट्रपति आर एस एस के बचाव में उतर आये। बेचारे अपना कर्ज उतार रहे थे। वे नमक का कर्ज उतार रहे थे।
लोकसभा में कल तक बेचारा विपक्ष नियमों व परम्पराओं का हवाला देता था। 1 जुलाई ऐसा नजारा था कि सत्ता पक्ष व लोकसभा अध्यक्ष नियमों का हवाला दे रहे थे। नियमावली के पन्ने-पन्ने पलट रहे थे। राहुल व विपक्ष को लोकतंत्र, मर्यादा, संस्कार, परम्परा, संस्कृति के पाठ पढ़ा रहे थे। मोदी एण्ड कम्पनी पिछले दस साल से जिस पाठ को भुला चुकी थी, वह पाठ उसे न केवल याद आया बल्कि पूरा दिन उसे वह दुहराता रहा। सही में आम चुनाव के परिणाम ने संसद का नजारा बदल दिया।
राहुल गांधी के लिए तो वह कहावत सही साबित हुयी जो कहती है ‘‘किस्मत मेहरबान तो गदा पहलवान’’। गदा को कुछ लोग गधा कहते रहे हैं। गदा फारसी शब्द है। जिसका मतलब फकीर अथवा भिखारी से है। राहुल गांधी की किस्मत आम चुनाव ने बदल दी। वे अब न तो गधा रहे और न गदा रहे। हुआ उलटा कि कल के पहलवान कुछ गदा और कुछ गधा साबित हो गये। वैसे एक समय था जब वे भी किस्मत की मेहरबानी से गदे(धे) से पहलवान बन गये थे। किस्मत ने पलटा मारा वे कहां से कहां पहुंच गये।
संसद में जो हुआ वह बेहद मनोरंजक था। भारत के मजदूरों-किसानों व अन्य मेहनतकशों के पास थोड़ी फुरसत होती तो वे भी अपना मनोरंजन कर सकते थे। पर अफसोस यह पूंजीवादी व्यवस्था और उनको चलाने वाले उसे मनोरंजन की फुरसत कहां देते हैं। एकदम सस्ता व मुफ्त का मनोरंजन भी उसे हासिल नहीं है। जो संसद का नजारा देख रहे थे, वे आपस में बंटे थे। कोई कुर्सी से उछल रहा था और कोई कुर्सी में उठ-बैठ रहा था।
‘राष्ट्रकवि’ रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता है, ‘‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’। उसकी कुछ पंक्तियां हैं,
‘‘सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’’
और हमारे समय का थोड़ा सा कड़वा सच यही है जनता, मजदूर-मेहनतकश जनता के न आने से सिंहासन में कुछ स्वघोषित पहलवान बैठे हैं। गदे या गधे अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं।
गदे पहलवान तो पहलवान गधे में बदले
राष्ट्रीय
आलेख
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को
7 अक्टूबर को आपरेशन अल-अक्सा बाढ़ के एक वर्ष पूरे हो गये हैं। इस एक वर्ष के दौरान यहूदी नस्लवादी इजराइली सत्ता ने गाजापट्टी में फिलिस्तीनियों का नरसंहार किया है और व्यापक
अब सवाल उठता है कि यदि पूंजीवादी व्यवस्था की गति ऐसी है तो क्या कोई ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था कायम हो सकती है जिसमें वर्ण-जाति व्यवस्था का कोई असर न हो? यह तभी हो सकता है जब वर्ण-जाति व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंका जाये। जब तक ऐसा नहीं होता और वर्ण-जाति व्यवस्था बनी रहती है तब-तक उसका असर भी बना रहेगा। केवल ‘समरसता’ से काम नहीं चलेगा। इसलिए वर्ण-जाति व्यवस्था के बने रहते जो ‘न्यायपूर्ण’ पूंजीवादी व्यवस्था की बात करते हैं वे या तो नादान हैं या फिर धूर्त। नादान आज की पूंजीवादी राजनीति में टिक नहीं सकते इसलिए दूसरी संभावना ही स्वाभाविक निष्कर्ष है।