‘‘खाओ गाली, दो गाली’ भारत की राजनीति का नारा बन गया है। चुनाव के समय मुद्दे गायब हो जाते हैं और जो चीज सबसे आगे रहती है वह अपने विपक्षियों पर चर्चा की गयी गालियां होती हैं।
कांग्रेसियों को लम्बे समय से गालियां खाने की आदत रही है और जब से मोदी का केन्द्र की राजनीति में प्रवेश हुआ है तब से गालियों का राजनीति में ऊंचा मुकाम हो गया है। मोदी ने अपना राजनैतिक करिश्मे के सफर में गालियों का भरपूर इस्तेमाल किया। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, सोनिया-राहुल गांधी के लिए बड़े रचनात्मक व कलात्मक ढंग से गालियों का आविष्कार किया। पिछले कुछ समय में भारत ही नहीं पूरी दुनिया में घोर दक्षिणपंथी राजनीति में गालियों का महत्व बढ़ता ही गया। ट्रम्प, बोलसेनारो, एर्दोगन और मोदी ने एक-दूसरे को बहुत कुछ सिखाया। इन सबको तब बहुत दिक्कत होती है जब इनके विरोधी इन पर इन्हीं की भाषा में गालियों की बौछार करते हैं। तब ये पद, संस्कृति, गरिमा आदि की दुहाई देने लगते हैं।
क्रिकेट के विश्व कप में मोदी जी की उपस्थिति को भारत की हार के लिए जिम्मेदार ठहराकर उन्हें ‘‘पनौती’’ (अपशकुनी) कहा जाने लगा। ‘‘पनौती’’ शब्द इसके बाद टीवी से लेकर सोशल मीडिया तक में मोदी से ज्यादा चर्चा का विषय बन गया। वैसे खबर ये थी कि अगर भारत इस विश्व कप में जीतता तो मोदी जी चन्द्रयान के सफल प्रक्षेपण की तरह सारा श्रेय खुद ले जाते। इंतजाम पूरा था। जीत के बाद भाजपा-संघ के ध्वजारोही चुनाव के इस मौसम में हर गली-नुक्कड़ में दौड़ पड़ते। परन्तु हार ने मोदी से लेकर उनके हर चेले-चपाटे की फजीहत कर डाली। कोई कहने वाला नहीं था, चलो खेल तो खेल ही होता है। हार-जीत लगी रहती है। राष्ट्रवाद को क्रिकेट की पिच बनाने के बाद इसके अलावा क्या नतीजा निकलेगा। मोदी जी, भाजपा, टीवी के प्रस्तोताओं को पनौती वाली गाली बहुत-बहुत बुरी लगी। पर वे जितना पनौती शब्द को गलियाते उतना ही वह उनके पीछे पड़ गया।
असल में गाली देने वाले, गाली खाने वालों के बीच ही भारत की राजनीति घूम रही है। देश के मजदूर-मेहनतकश गाली के इस खेल के बीच करें तो क्या करें। कभी-कभी तो उनका थोड़ा मनोरंजन हो जाता है पर अक्सर भारतीय राजनीति के ये महाजोकर उलटे और सीधे-उस्तरे से उसकी ऐसी हजामत बना देते हैं कि अपना ही चेहरा आइने में देखने का उनका मन नहीं करता है।
खाओ गाली, दो गाली
राष्ट्रीय
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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
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ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को