
पिछले दिनों एक मजेदार वाकया घटा। हुआ यह कि तमिलनाडु का बजट पेश करते हुए वहां के मुख्यमंत्री स्तालिन ने रुपये के प्रतीक को बदलकर तमिल भाषा में लिख दिया। उनके इस काम से भारत के केन्द्र में सत्तासीन संघी शासक बौखला उठे। वे स्तालिन के इस कृत्य को देश की अखण्डता को तोड़ने वाले से लेकर अन्य अनर्गल बयान देने लगे।
स्तालिन के इस कदम के पीछे का घटनाक्रम देखने पर इस कदम का औचित्य सहज ही स्पष्ट हो जाता है। दरअसल मोदी सरकार द्वारा कुछ वर्ष पहले लागू की गयी नई शिक्षा नीति उस त्रिभाषा फार्मूले की वकालत करती है जिसका दक्षिण भारत के तमाम राज्य खासकर तमिलनाडु लम्बे वक्त से विरोध करते रहे हैं।
त्रिभाषा फार्मूले के तहत दक्षिण भारतीय राज्यों में छात्रों को अंग्रेजी, क्षेत्रीय भाषा के साथ हिन्दी पढ़ना अनिवार्य बन जाना है। जब-जब केन्द्र की सत्ता ने आजादी के बाद यह त्रिभाषा फार्मूला दक्षिण भारत के राज्यों पर थोपना चाहा तो उन्होंने यह कहकर विरोध किया कि हिन्दी उनके लिए किसी काम की भाषा नहीं है अतः इसे बेवजह उन्हें पढ़ने को मजबूर न किया जाये। इस तरह आज तक केन्द्रीय सत्ता हिन्दी को दक्षिण भारत में थोपने में सफल नहीं हो पायी।
एक देश एक भाषा की वकालत करने वाले संघी इतिहास से सबक लेने को कभी तैयार नहीं होते। वे पूरे देश को हिन्दी सिखाने (थोपने) के लिए अपनी शिक्षा नीति में इस फार्मूले को फिर से लेकर आ गये। तब से ही दक्षिण भारत के राज्य खासकर तमिलनाडु इसका विरोध कर रहा है।
हद तब हो गयी जब केन्द्र सरकार तमिलनाडु को मनाने में कामयाब नहीं हुई तो उसने धमकी का सहारा लेना शुरू कर दिया। शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने घोषणा कर दी कि तमिलनाडु को समग्र शिक्षा अभियान का धन तब तक नहीं मिलेगा जब तक वह नई शिक्षा नीति के त्रिभाषा फार्मूले को स्वीकार नहीं कर लेता।
धर्मेन्द्र प्रधान की इस धमकी की तीखी प्रतिक्रिया हुई और सभी विपक्षी दलों को सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करते पाया गया। चेन्नई में तो हजारों लोग धर्मेन्द्र प्रधान के उपरोक्त बयान के खिलाफ सड़कों पर उतरे। पर अडियल मोदी सरकार के मंत्री टस से मस नहीं हुए।
तमिलनाडु व दक्षिण भारत के राज्य त्रिभाषा फार्मूले के साथ-साथ केन्द्रीय आवंटन में उनके साथ होने वाले भेदभाव का भी विरोध कर रहे हैं।
इन्हीं परिस्थितियों में मुख्यमंत्री स्तालिन ने बजट सत्र में रुपये के प्रतीक को तमिल भाषा में प्रस्तुत कर एक तरह से अपनी लड़ाई को आगे बढ़ाने का ऐलान किया है।
भारत जो कहने को संघात्मक राज्य है वास्तव में केन्द्र की प्रधानता वाला राज्य ही रहा है। मोदी सरकार इसमें केन्द्र के अधिकारों को और बढ़ाने में जुटी रही है। त्रिभाषा फार्मूला भी पूरे देश को शिक्षा के मामले में एक नीति से हांकने का प्रयास है। केन्द्र सरकार पूरे देश पर हिन्दी थोपने पर उतारू है जिसका तमिलनाडु विरोध करता रहा है।
संघी शासक सोचते हैं कि वे धमकी देकर अपने इरादे में सफल हो जायेंगे। पर तमिल जनता पूर्व में नेहरू के त्रिभाषा फार्मूले को विफल कर चुकी है तो भला वह संघियों के हमले को क्यों स्वीकार करेगी?
शिक्षा के मसले पर जबरन राज्यों पर हिन्दी थोपना कहीं से भी उचित नहीं है। यह संघी सरकार के फासीवादी इरादों को ही दिखलाता है। यह तमिल लोगों के लिए वैसा ही दर्दनाक कदम है जैसा हिन्दी बेल्ट के छात्र तमिल अनिवार्यतः पढ़ने की बात पर महसूस करेंगे।