
भारत में फासीवादी मोदी सरकार ने अंधभक्तों की ऐसी फौजी खड़ी की है जिसे सरकार का हर उल्टा-सीधा कदम देश का विकास ही नजर आता है। इस फौज ने सोचने-समझने, तर्क करने की क्षमता खो दी है। इसीलिए सरकार के हर कुकृत्य को बिना जांचे-परखे यह फौज झुठलाने-गरियाने में जुट जाती है। पर जब इस अंधभक्त फौज सरीखा व्यवहार देश का सर्वोच्च न्यायालय करने लगे तो स्थिति की गम्भीरता सबके सामने आ जाती है।
बीते दिनों देश के सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गयी जिसमें दावा किया गया था कि भारत सरकार ने 7 मई 2025 को 38 रोहिंग्या शरणार्थियों को दिल्ली से हिरासत में लेकर अण्डमान द्वीप पर भेजने के बाद, अंतर्राष्ट्रीय कानूनों-मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हुए आंख में पट्टी बांध जबरन बर्मा के निकट ले जाकर समुद्र में धकेल दिया। रोहिंग्या शरणार्थियों की ओर से पेश हुए वकील कॉलिन गोंसाल्वेज ने शरणार्थियों द्वारा अपने सम्बन्धियों को किये गये फोन की बातचीत का रिकार्ड सबूत के बतौर पेश किया। साथ ही उन्होंने निर्वासित लोगों के परिवारों की गवाही, मीडिया रिपोर्ट व संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस मसले पर शुरू की गयी जांच को अपने दावे के समर्थन में पेश किया। पर भारत के सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को सुनने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि मोदी सरकार ने रोहिंग्या शरणार्थियों को समुद्र में धकेला। इस तरह बगैर ध्यान दिये ही याचिका खारिज कर दी गयी।
वकील कॉलिन गोंसाल्वेस ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर केन्द्र सरकार का जवाब मांगने की भी जहमत नहीं की और अभी तक केन्द्र सरकार ने इन खबरों की न तो पुष्टि की है और न ही खण्डन किया है। इसी तरह प्रेस सूचना ब्यूरो ने मीडिया में इस मामले से जुड़ी प्रकाशित हुई खबरों को न तो खारिज किया है और न ही कोई स्पष्टीकरण दिया है।
पीड़ित सभी 38 शरणार्थियों के पास संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त द्वारा जारी पहचान पत्र थे। शरणार्थियों के परिजनों ने पुलिस पर शरणार्थियों से दुर्व्यवहार करने, महिलाओं-बच्चों को लम्बे वक्त तक भूखा रखने का आरोप लगाया था। परिजनों ने बताया कि जहाज पर चढ़ाते वक्त शरणार्थियों को बताया गया कि उन्हें इण्डोनेशिया ले जाया जा रहा है पर बर्मा के करीब ले जाकर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय समुद्र में छोड़ दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति कांत ने इसे खूबसूरती से गढ़ी कहानी बताते हुए खारिज कर दिया। साथ ही उन्होंने टिप्पणी की कि जब देश मुश्किल दौर से गुजर रहा है तब आप इस तरह के काल्पनिक विचार सामने लाते हैं। जाहिर है न्यायमूर्ति का मुश्किल दौर से आशय भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़़ते तनाव से था।
दरअसल रोहिंग्या शरणार्थी मुसलमान धर्म के अनुयायी होने के चलते मौजूदा फासीवादी सरकार के तीखे दमन का शिकार हैं। अन्यथा भारत में तिब्बती-नेपाली-चकमा-बांग्लादेशी तमाम शरणार्थी शरण लिये हुए हैं। पर सरकार रोहिंग्या को शरण देने को तैयार नहीं है और उनकी धरपकड़ के अभियान में जुटी है। चूंकि कानूनन उन्हें पकड़ कर समुद्र में नहीं फेंका जा सकता इसलिए सरकार चोरी-छिपे ऐसा कर रही है।
रोहिंग्या बर्मा से निकाले गये ऐसे शरणार्थी हैं जिन्हें बौद्ध शासकों ने वहां से खदेड़ दिया है। वे बड़ी संख्या में बांग्लादेश में शरणार्थी कैम्पों में रह रहे हैं तथा कुछ मात्रा में भारत भी आ मजदूरी कर गुजारा करने लगे हैं। इन गरीब मजदूरों को मोदी सरकार देश में शांति से जीने नहीं दे रही है। इस तरह रोहिंग्या विरोधी अभियान दरअसल मजदूर विरोधी अभियान भी है। देश भर के मजदूर वर्ग को रोहिंग्या मेहनतकशों के साथ एकजुटता कायम करते हुए उनके सम्मान से जीने के अधिकार की रक्षा में आगे आना पड़ेगा। तभी वास्तव में भारत के मजदूर ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ के नारे को व्यवहार में अपना रहे होंगे।