फजीहत से बचने को पर्दे की आड़ जरूरी

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25 नवम्बर को भारत के उच्चतम न्यायालय ने उन याचिकाओं को खारिज कर दिया जिनमें भारत के संविधान की प्रस्तावना में इंदिरा गांधी के जमाने में संशोधन को चुनौती दी गयी थी। ‘‘42वें संशोधन’’ के नाम से मशहूर इस संशोधन के जरिये संविधान की प्रस्तावना में ‘‘समाजवाद’’ और ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ शब्द जोड़े गये थे। असल जिन्दगी में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता से कोई लेना-देना नहीं था।
    
याचिका दायर करने वाले धुर दक्षिणपंथी हिन्दू फासीवादी मानसिकता से लैस डा. सुब्रमण्यम स्वामी, वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय व बलराम सिंह थे। इन्हें समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्दों से बेहद चिढ़ है। इनका मूल तर्क यह था कि संसद संविधान की प्रस्तावना में बदलाव नहीं कर सकती। मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायाधीश संजय कुमार ने कहा कि संसद ऐसा कर सकती है। संजीव खन्ना ने कहा ‘‘इतने साल हो गये हैं, अब इस मुद्दे को क्यों उठाना है।’’ फिर उन्होंने जो कहा वह बहुत मजेदार खासकर समाजवाद की व्याख्या को लेकर है। खन्ना ने कहा,‘‘जिस तरह से हम भारत में समाजवाद को समझते हैं वह अन्य देशों से बहुत अलग है। हमारे संदर्भ में, समाजवाद का मुख्य अर्थ कल्याणकारी राज्य है। बस इतना ही। हमने निजी क्षेत्र को कभी नहीं रोका जो अच्छी तरह से फल-फूल रहा है...’’। और आगे उन्होंने बताया कि धर्मनिरपेक्षता ‘‘भारत के संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है।’’
    
मुख्य न्यायाधीश बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि समाजवाद क्या है। और समाजवाद क्या है इस बात को याचिकाकर्ता ही नहीं बल्कि इंदिरा गांधी से लेकर उस संसद का हर सदस्य जानता था। ऐसे ही धर्मनिरपेक्षता को भी भारत के शासकों का हर धड़ा जानता है कि इसका सीधा अर्थ है धर्म का राज्य मशीनरी-शिक्षा-समाज से पूर्ण बिलगाव। धर्म को निजी मामला घोषित करना है।     
    
याचिकाकर्ता उस आवरण को हटाना चाहते थे जो समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर संविधान पर पड़ा है। संजीव खन्ना ने उन्हें समझाते हुए ठीक ही कहा कि ‘‘अब इस मुद्दे को क्यों उठाना है।’’ वे कहना चाहते थे कुछ चीज पर्दे में रहनी चाहिए। पर्दा असल में बड़े काम की चीज है। पर्दे की आड़ में वे सब काम किये जा सकते हैं जिन्हें खुलेआम करने पर फजीहत हो सकती है। याचिकाकर्ताओं की अक्ल पर तो असल में पर्दा पड़ा हुआ है। 
    
संविधान की प्रस्तावना एक ऐसा पर्दा है जिसके पीछे भारत के शासक अपने कुकर्म छिपाते रहे हैं। संजीव खन्ना बेबाक होते तो कहते कि भेड़ों का शिकार वही भेड़िया अच्छे ढंग से करता है जो भेड़ की खाल ओढ़े हुआ हो।  

आलेख

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संघ और भाजपाइयों का यह दुष्प्रचार भी है कि अतीत में सरकार ने (आजादी के बाद) हिंदू मंदिरों को नियंत्रित किया; कि सरकार ने मंदिरों को नियंत्रित करने के लिए बोर्ड या ट्रस्ट बनाए और उसकी कमाई को हड़प लिया। जबकि अन्य धर्मों विशेषकर मुसलमानों के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया। मुसलमानों को छूट दी गई। इसलिए अब हिंदू राष्ट्रवादी सरकार एक देश में दो कानून नहीं की तर्ज पर मुसलमानों को भी इस दायरे में लाकर समानता स्थापित कर रही है।

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आजादी के दौरान कांग्रेस पार्टी ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद वह उग्र भूमि सुधार करेगी और जमीन किसानों को बांटेगी। आजादी से पहले ज्यादातर जमीनें राजे-रजवाड़ों और जमींदारों के पास थीं। खेती के तेज विकास के लिये इनको जमीन जोतने वाले किसानों में बांटना जरूरी था। साथ ही इनका उन भूमिहीनों के बीच बंटवारा जरूरी था जो ज्यादातर दलित और अति पिछड़ी जातियों से आते थे। यानी जमीन का बंटवारा न केवल उग्र आर्थिक सुधार करता बल्कि उग्र सामाजिक परिवर्तन की राह भी खोलता। 

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