तुर्की : एर्दोगन फिर जीता

तुर्की के राष्ट्रपति पद के चुनाव में अंततः 20 वर्ष से सत्तासीन एर्दोगन एक बार फिर चुनाव जीतने में सफल रहा। राष्ट्रपति पद के 14 मई को हुए पहले राउण्ड के चुनाव में किसी प्रत्याशी को 50 प्रतिशत मत न मिलने के चलते दूसरे राउण्ड का चुनाव हुआ। 28 मई को शीर्ष 2 प्रत्याशियों के बीच हुए चुनाव में एर्दोगन चुनाव जीतने में सफल रहे। 20 वर्षों में पहली बार एर्दोगन को इतनी तगड़ी टक्कर झेलनी पड़ी। विपक्षी उम्मीदवार कमाल केलिचडारोहलू का 6 पार्टियां व वामपंथी दल समर्थन कर रहे थे। एर्दोगन को 52 प्रतिशत तो कमाल को 48 प्रतिशत मत मिले। 
    

एर्दोगन तुर्की की सत्ता पर एक तानाशाह की तरह काबिज रहे हैं। एक मायने में वे रूसी राष्ट्रपति पुतिन के कदमों पर चलते रहे हैं। पहले 3 बार एर्दोगन प्रधानमंत्री रहे फिर आगे प्रधानमंत्री न बन पाने की कानूनी मजबूरी के चलते ये राष्ट्रपति बन गये और कानून बदल राष्ट्रपति की ताकतें बढ़वा लीं। इस तरह 20 वर्ष से सत्ता की बागडोर एर्दोगन के ही हाथों में है। 
    

एर्दोगन को धर्मनिरपेक्ष तुर्की के संस्थापक कमाल अतातुर्क के बाद दूसरा बड़ा नेता माना जाता रहा है पर जहां कमाल मूलतः धर्मनिरपेक्ष थे वहीं एर्दोगन तुर्की को इस्लामिक कट्टरपंथ की ओर ले गये। उन्हें तुर्की के इस्लामीकरण का जिम्मेदार माना जाता रहा है। कुछ वर्ष पूर्व तुर्की में असफल तख्तापलट का इस्तेमाल कर एर्दोगन ने राजसत्ता पर पकड़ मजबूत कर ली थी। उसने प्रशासनिक मशीनरी से लेकर फौज तक में अपने विरोधियों को किनारे लगा दिया था। 
    

तुर्की नाटो का सदस्य देश है पर बीते दिनों एर्दोगन ने रूस से नजदीकी बनानी शुरू की थी। नाटो के विस्तार में भी तुर्की आपत्ति करता रहा था। आज तुर्की नाटो का सदस्य होने के बावजूद अमेरिकी व रूसी दोनों साम्राज्यवादियों से सम्बन्ध बनाये हुए है। तुर्की की अर्थव्यवस्था बीते कुछ वर्षों से गंभीर रूप से संकटग्रस्त है। मुद्रास्फीति की दर ऊंची बनी हुई है वहीं तुर्की की मुद्रा लीरा का भारी अवमूल्यन हुआ है। आर्थिक संकट के साथ तुर्की की हालत जर्जर बनाने में बीते दिनों आये भूकम्प ने भी भूमिका निभायी। 
    

इस्लामीकरण के साथ एर्दोगन ने कुर्दों के दमन, जनता के जनवादी अधिकार छीनने का काम किया था। इस तरह इन चुनावों में तबाह अर्थव्यवस्था, भूकम्प का विनाश, कुर्दों का दमन आदि कारक मिलकर एर्दोगन के लिए चुनौतीपूर्ण परिस्थिति तैयार कर रहे थे। जिसका परिणाम यह हुआ कि 6 विपक्षी दलों ने एक संयुक्त प्रत्याशी एर्दोगन के खिलाफ खड़ा किया। 
    

विपक्षी दलों ने चुनाव के दौरान सरकारी मशीनरी व अपने प्रभाव के बेजा इस्तेमाल का एर्दोगन पर आरोप लगाया। इन आरोपों में सच्चाई का कुछ अंश जरूर रहा है। भारी प्रचार, प्रशासनिक मशीनरी के उपयोग के जरिये एर्दोगन किसी तरह चुनाव जीतने में सफल रहे। पर एर्दोगन की आगे की राह आसान नहीं है। अर्थव्यवस्था की खस्ताहालत, महंगाई, भूकम्प पुनर्निर्माण आदि समस्यायें मुंह बाये खड़ी हैं। 
    

एर्दोगन-मोदी-ज्यार्जिया मेलोनी आदि आज अलग-अलग देशों में सत्ता पर पहुंचने वाले धुर दक्षिणपंथी शासक हैं। ट्रम्प-बोलसेनारो भी इन्हीं की श्रेणी के रहे हैं। ये सभी शासक दुनिया को फासीवाद की दिशा में ले जाना चाहते रहे हैं। ये अपने देश की जनता को फर्जी मुद्दों अंधराष्ट्रवाद, धर्म को खतरा, प्रवासियों से खतरा आदि पर लामबंद कर तानाशाहना शासन कायम करते रहे हैं। जनता ने यद्यपि ट्रम्प-बोलसेनारो को गद्दी से हटा दिया है और भविष्य में एर्दोगन-मोदी-मेलोनी को भी अवश्य ही हटा देगी। फिर भी दुनिया भर में बढ़ती दक्षिणपंथी-नवफासीवादी राजनीति को जड़ से खत्म करना जरूरी है। केवल दुनिया का क्रांतिकारी मजदूर वर्ग ही इस राजनीति का समूल नाश करेगा और ऐसा समाजवादी समाज कायम करेगा जहां हिटलर-एर्दोगन-मोदी की वापसी का खतरा न हो। तुर्की की जनता-मजदूर वर्ग भी देर-सबेर इसी राह पर आगे बढ़ेगा। 

आलेख

/amerika-aur-russia-ke-beech-yukrain-ki-bandarbaant

अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूक्रेन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता कभी भी चिंता का विषय नहीं रही है। वे यूक्रेन का इस्तेमाल रूसी साम्राज्यवादियों को कमजोर करने और उसके टुकड़े करने के लिए कर रहे थे। ट्रम्प अपने पहले राष्ट्रपतित्व काल में इसी में लगे थे। लेकिन अपने दूसरे राष्ट्रपतित्व काल में उसे यह समझ में आ गया कि जमीनी स्तर पर रूस को पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए उसने रूसी साम्राज्यवादियों के साथ सांठगांठ करने की अपनी वैश्विक योजना के हिस्से के रूप में यूक्रेन से अपने कदम पीछे करने शुरू कर दिये हैं। 
    

/yah-yahaan-nahin-ho-sakata

पिछले सालों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों में यह अहसास गहराता गया है कि उनका पराभव हो रहा है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सोवियत खेमे और स्वयं सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने जो तात्कालिक प्रभुत्व हासिल किया था वह एक-डेढ़ दशक भी कायम नहीं रह सका। इस प्रभुत्व के नशे में ही उन्होंने इक्कीसवीं सदी को अमेरिकी सदी बनाने की परियोजना हाथ में ली पर अफगानिस्तान और इराक पर उनके कब्जे के प्रयास की असफलता ने उनकी सीमा सारी दुनिया के सामने उजागर कर दी। एक बार फिर पराभव का अहसास उन पर हावी होने लगा।

/hindu-fascist-ki-saman-nagarik-sanhitaa-aur-isaka-virodh

उत्तराखंड में भाजपा सरकार ने 27 जनवरी 2025 से समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया है। इस संहिता को हिंदू फासीवादी सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है। संहिता

/chaavaa-aurangjeb-aur-hindu-fascist

इतिहास को तोड़-मरोड़ कर उसका इस्तेमाल अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को हवा देने के लिए करना संघी संगठनों के लिए नया नहीं है। एक तरह से अपने जन्म के समय से ही संघ इस काम को करता रहा है। संघ की शाखाओं में अक्सर ही हिन्दू शासकों का गुणगान व मुसलमान शासकों को आततायी बता कर मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता रहा है। अपनी पैदाइश से आज तक इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रस्तुति संघी संगठनों के लिए काफी कारगर रही है। 

/bhartiy-share-baajaar-aur-arthvyavastha

1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।