इजरायल फिलिस्तीन के बीच वर्तमान संघर्ष के दौरान एक बार फिर इस्लाम विरोध चरम पर है। भारत के हिन्दू फासीवादियों से लेकर पश्चिमी साम्राज्यवादी शासक सभी इस्लाम पर निशाना साध रहे हैं। तरह-तरह से बताया जा रहा है कि इस्लाम शांति का दुश्मन है, कि यह जनतंत्र विरोधी है, कि कट्टरता इसका चरित्र है। जब सीधे-सीधे यह नहीं कहा जाता है तब भी जो कहा जाता है उसका मतलब यही निकलता है। जैसे भारत के फासीवादियों का यह बहुप्रचलित कथन कि सारे मुसलमान आतंकी नहीं हैं पर सारे आतंकवादी मुसलमान हैं। यह प्रकारान्तर से इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ देता है। सच्चाई यह है कि स्वयं भारत सरकार ने जिन संगठनों को आतंकवादी घोषित कर रखा है उनमें सभी धर्मों के लोग आ जाते हैं। उल्फा और लिट्टे हिन्दू बहुल हैं तो खालिस्तान लिबरेशन फ्रंट सिख और नागा सोशलिस्ट काउंसिल इसाई।
यह कटु सच्चाई है कि सारी दुनिया के गैर मुसलमान लोगों में आज इस्लाम कमोबेश ऐसी स्थिति में पहुंच रहा है जहां करीब एक सदी पहले यहूदी धर्म था। यानी किसी धर्म विशेष को तथा उसके लोगों को एक खास नजर से देखना। उनके प्रति एक खास किस्म का दुराव और वैमनस्य पालना जो अंततः घृणा और हिंसा तक जा पहुंचता है। पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों तथा भारत में इसे खास तौर पर देखा जा सकता है।
यहां यह जोर देकर कहना होगा कि यह अपने आप नहीं हुआ है। यह साम्राज्यवादियों द्वारा सोच-समझ कर किया गया है। और अभी भी किया जा रहा है। इस सबके पीछे इनकी साम्राज्यवादी लूटपाट की मंशा रही है।
इतिहास की यह सामान्य सी सच्चाई है कि धर्म के नाम पर सबसे ज्यादा हिंसा इसाई धर्म को मानने वालों ने की है। यह भीतरी और बाहरी दोनों थी यानी अपने ही धर्म वालों पर (विधर्मियों पर) तथा दूसरे धर्म को मानने वालों पर। इसी धर्म के मानने वालों ने दो सौ सालों तक येरूशलम को मुक्त करने के नाम पर धर्म युद्ध छेड़े जिसके ज्यादातर शिकार इसाई हुए। इसी धर्म के अनुयायियों ने मध्य काल से लेकर पिछली शताब्दी के मध्य तक यहूदियों के खिलाफ भांति-भांति के अत्याचार किये। मध्य काल में यही दुनिया का सबसे संगठित धर्म था।
पर आधुनिक काल में इसी धर्म वाले समाजों में पूंजीवादी पैदा हुआ। नये उभरते पूंजीपति वर्ग ने अपने हित में मध्यकालीन इसाई धर्म में सुधार के लिए संघर्ष छेड़े, और इसके परिणामस्वरूप कई सदियों में इसमें काफी बदलाव आ गया। धीमे-धीमे इसाई धर्म ने नया रूप ग्रहण कर लिया। धर्म निरपेक्षता सामने आ गयी। जिसका मतलब था कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है तथा राज्य को धर्म से अलग रखना चाहिए।
पर यह पूंजीवाद शुरू से ही साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी था। यानी नये पूंजीवादी देशों ने दुनिया के बाकी हिस्सों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। इस कब्जे के साथ कब्जा हुए देशों में नये सुधरे हुए इसाई धर्म के प्रचारक भी पहुंचे- अपने धर्म का प्रचार करने के लिए। आगे-आगे साम्राज्यवादियों की तोप-तलवार गई और पीछे-पीछे पादरियों की फौज।
इन साम्राज्यवादियों और पादरियों दोनों ने दूसरे समाजों की संस्कृति तथा धर्म को हिकारत से देखा और अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए भांति-भांति के सिद्धान्त गढ़े। इनमें धर्मों के बारे में खास तरह की मान्यताएं भी थीं। स्वभावतः इस सबका यही निष्कर्ष निकलता था कि इसाई धर्म सर्वश्रेष्ठ धर्म है जो आधुनिक है तथा दूसरे धर्म पिछड़े, दकियानूस और सुधार के विरोधी हैं।
बीसवीं सदी में जब साम्राज्यवादी गुलामी से मुक्ति की लड़ाई शुरू हुई तो इन सबने नया स्वरूप ग्रहण करना शुरू किया। और सदी का अंत होते-होते पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा इस्लाम विरोध का वह माहौल बना दिया गया जिसे आज चारों ओर महसूस किया जा सकता है।
साम्राज्यवादी गुलामी से मुक्ति की लड़ाई एक प्रगतिशील चीज थी इसलिए इस लड़ाई में शामिल लोग जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी प्रगतिशील थे। वे समाज में सुधार के पक्षधर थे। वे समाज के आधुनिकीकरण के पक्षधर थे। धर्म निरपेक्षता इसका हिस्सा थी। पर साम्राज्यवादी आजादी की लड़ाई के विरोधी थे। वे नहीं चाहते थे कि देश आजाद हों। यदि देश आजाद हो भी जायें तो भी वे उनके प्रगतिशील दिशा में बढ़ने के खिलाफ थे क्योंकि यह उनके साम्राज्यवादी हितों के खिलाफ होता। इस कारण साम्राज्यवादियों ने एक नीति के तहत इन देशों में पिछड़े, दकियानूस और धार्मिक तौर पर कट्टर तत्वों को समर्थन दिया तथा प्रगतिशील तत्वों का विरोध किया। यह सऊदी अरब के बहावी शासकों से लेकर मिश्र के मुस्लिम ब्रदरहुड तक किया गया। कुछ उदाहरण से इसे समझा जा सकता है।
1940 के दशक में इराक, सीरिया और मिश्र में एक आंदोलन पैदा हुआ जिसे अरब समाजवाद कहा गया। कुल मिलाकर यह अरब राष्ट्रवाद की बात करने वाला धर्म निरपेक्ष आंदोलन था जिसका लक्ष्य था इन समाजों का आधुनिकीकरण करना। इस आंदोलन ने एकदम सचेत तौर पर पश्चिमी पहनावा स्वीकार किया जिसे आज भी इन देशों में देखा जा सकता है। 1950 के दशक में इस आंदोलन के लोग भांति-भांति के तरीकों से इन देशों में सत्ता लाये। एक समय तो इराक, सीरिया और मिश्र ने मिलकर एक संघ भी बना लिया था, हालांकि यह थोड़े समय ही टिक पाया। पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने इस अरब समाजवाद की सत्ताओं को बेदखल करने का हर संभव प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने सऊदी अरब को बढ़ावा दिया। आज सीरिया और इराक धूल-धूसरित हैं तथा मिश्र में सैनिक तानाशाही काबिज है। यह साम्राज्यवादी करतूतों का सीधा परिणाम है।
आज लीबिया भी तबाह है। कभी 1960 के दशक में वहां कर्नल गद्दाफी तख्तापलट कर सत्ता में आये थे। उन्होंने भी अपने किस्म के अरब समाजवाद की घोषणा की थी। गद्दाफी के और चाहे जो गुनाह हों, पर उन्होंने धार्मिक कट्टरपंथियों को दूर रखा। पर पश्चिमी साम्राज्यवादियों को वे भी पसंद नहीं आये। अंततः उन्होंने 2011 में लीबिया पर हमला बोल दिया। गद्दाफी की हत्या के बाद पिछले दशक भर से लीबिया भयंकर तबाही से गुजर रहा है और धार्मिक कट्टरपंथी वहां घुसपैठ कर रहे हैं।
इस मामले में सबसे शास्त्रीय मामला अफगानिस्तान का है जो साथ ही वर्तमान इस्लाम विरोध तथा इस्लामी आतंकवाद के मूल में भी है। 1970 के दशक में अफगानिस्तान में एक प्रगतिशील आंदोलन मुखर हुआ और उसके लोग सत्ता में आ गये। इसे तत्कालीन सोवियत संघ का समर्थन हासिल था। अमेरिकी साम्राज्यवादियों को अफगानिस्तान का यह घटनाक्रम बिल्कुल पसंद नहीं आया। उन्होंने इस सत्ता को हटाने के लिए वहां पुरातनपंथी तथा धार्मिक कट्टरपंथी शक्तियों को समर्थन देकर भड़काना शुरू कर दिया। अपने द्वारा समर्थित सत्ता को अस्थिर होता देख उसे बचाने के लिए सोवियत साम्राज्यवादियों ने अपनी सेना भेज दी। बस फिर क्या था। अमेरिकी साम्राज्यवादी तो चाहते ही यही थे। उन्होंने सोवियत संघ को अफगानिस्तान में फंसाने और उसकी दुर्गति करने के लिए व्यापक मुहिम छेड़ दी। इसमें उन्होंने सऊदी अरब तथा पाकिस्तान के कट्टरपंथी शासकों का साथ लिया। अफगानिस्तान में उन्होंने ‘‘ईश्वर विरोधी’’ सोवियतों के खिलाफ जिहाद छेड़ दिया। अमेरिकी प्रशिक्षण, सऊदी पैसे तथा पाकिस्तानी सेना के जरिये जिहादियों और इस्लामी आतंकवादियों की एक पूरी फौज खड़ी की गयी जो बाद में सारी दुनिया में फैली। बाद में (जब स्वयं इन्हीं अमरीकी साम्राज्यवादियों ने सारी दुनिया में इस्लामी आतंकवाद का हौव्वा खड़ा कर दिया था) जब इस अमरीकी रणनीति के प्रमुख रणनीतिकार अमेरिकी विदेश सचिव ब्रेजिन्स्की से पूछा गया कि इन जिहादियों की फौज खड़ी करके क्या अमरीकियों ने गलती नहीं की तो ब्रेजिन्स्की ने जवाब में पलटकर सवाल किया कि क्या ज्यादा महत्वपूर्ण था- ‘शैतान सोवियत साम्राज्य’ का खात्मा या मुट्ठी भर इस्लामी आतंकवादियों का पैदा होना? इस्लामी आतंकवाद के भस्मासुर को पैदा करने वाले अमरीकी साम्राज्यवादी बाद में भी अपनी गलती मानने को तैयार नहीं थे, वह भी तब जब वे इसी भस्मासुर को सभ्य दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा घोषित कर रहे थे तथा जनतंत्र और सभ्यता के नाम पर इससे लड़ने का आह्वान कर रहे थे।
और अब अन्तिम उदाहरण के तौर पर स्वयं हमास। हमास यानी इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन 1980 के दशक में इजरायली शासकों और अमरीकियों के सहयोग से फिलिस्तीन में स्थापित हुआ और समय के साथ फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन का विकल्प बन गया। 1964 में गठित हुआ फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन कई संगठनों से मिलकर बना था। जिसमें यासर अराफात के नेतृत्व वाला फतह प्रमुख था। यासर अराफात इसके भी प्रमुख बने। यह वामपंथी रुझान का एक धर्मनिरपेक्ष संगठन था जिसका लक्ष्य था एक धर्मनिरपेक्ष फिलिस्तीनी राष्ट्र की स्थापना। यह यहूदी राष्ट्र इजरायल की धारणा के विपरीत था। फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन को गुट निरपेक्ष आंदोलन तथा सोवियत खेमे का भरपूर समर्थन हासिल था। इजरायल के जियनवादी शासकों के पीछे दृढ़तापूर्वक खड़े पश्चिमी साम्राज्यवादियों को यह संगठन कतई स्वीकार नहीं था। वे इसे भी आतंकवादी संगठन घोषित कर लांक्षित करते थे। अंत में इसकी काट के लिए उन्होंने हमास को खड़ा किया जिसने घोषणा की कि वह इजरायल को नष्ट कर फिलिस्तीन में एक इस्लामी राष्ट्र का निर्माण करेगा। आज इसी हमास के बहाने से पश्चिमी साम्राज्यवादी सारे इस्लाम पर सवाल खड़ा कर रहे हैं।
इतिहास की सामान्य सी जानकारी और समझदारी से वंचित तथा पश्चिमी प्रजातंत्र से प्रभावित बहुत सारे भले मानष बड़ी मासूमियत से यह सवाल उठाते हैं कि इस्लाम में सुधार के आंदोलन क्यों नहीं हैं, उसमें आधुनिकता और धर्मनिरपेक्षता की ओर गति क्यों नहीं है, कि वहां कट्टरता ज्यादा क्यों है? वे नहीं जानते कि इन सबको साम्राज्यवादियों ने ही निरस्त किया। उन्होंने ही इनकी संभावना को नष्ट किया। उन्होंने ही उलटी प्रवृत्तियों को पाला पोषा और बढ़ावा दिया। यह कुछ ऐसे ही है जैसे तीसरी दुनिया के देशों में आम तौर पर साम्राज्यवादियों ने जनतंत्र की संभावना को नष्ट कर तानाशाहियों को बढ़ावा दिया। और फिर प्रचारित किया कि तीसरी दुनिया के समाज जनतंत्र के लायक नहीं हैं।
कोई तर्क दे सकता है कि यदि इस्लामी समाजों में धर्म निरपेक्षता, जनतंत्र तथा आम तौर पर आधुनिकीकरण की प्रवृत्ति होती तो केवल साम्राज्यवादी कुचक्र के कारण ये समाज कट्टरता और आतंकवाद के दलदल में नहीं फंसते। यानी ये समाज ही मूलतः दोषी हैं। पर इस तरह का तर्क देने वाले यह भूल जाते हैं कि किसी भी समाज में सुधार के आंदोलन शुरू होते हैं तो उन्हें पुरानी पिछड़ी शक्तियों के विरोध का सामना करना पड़ता है। इस संघर्ष में यदि सुधारवादियों को बाहर से समर्थन मिलता है तो उनका पलड़ा भारी हो जाता है। इसके विपरीत यदि बाहरी समर्थन पुरातनपंथी ताकतों का मिलता है तो वे हावी हो जाते हैं। बीसवीं सदी में पश्चिमी साम्राज्यवादी पूरी तरह से पुरातनपंथी ताकतों के साथ में थे। वे कसम तो जनतंत्र की खाते थे पर साथ हमेशा जनतंत्र विरोधियों तथा पुरातनपंथियों को देते थे। यही उनके हित में होता था क्योंकि प्रगतिशील ताकतें राष्ट्रवादी तथा साम्राज्यवाद विरोधी थीं। अब चूंकि पश्चिमी साम्राज्यवादी खासकर अमेरिकी साम्राज्यवादियों की दुनिया भर में आर्थिक, राजनीतिक तथा सामरिक ताकत बहुत ज्यादा थी तो किसी भी समाज के जनतंत्र विरोधियों और पुरातनपंथियों को उनका समर्थन बहुत महत्वपूर्ण हो जाता था। आंतरिक संघर्ष में उनका पलड़ा बहुत भारी हो जाता था।
इस तरह आज इस्लामी समाजों का जो हाल है उसकी एक बड़ी जिम्मेदारी स्वयं पश्चिमी साम्राज्यवादियों की है। वे इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। इससे भी ज्यादा घृणित बात यह है कि वे न केवल इस जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहे हैं बल्कि इस्लाम विरोध का एक बेहद खतरनाक माहौल बना रहे हैं। भारत में उन्हीं की तर्ज पर हिन्दू फासीवादियों ने बेहद विस्फोटक हालात पैदा कर दिये हैं।
पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने जो कुचक्र रचा है उसका शिकार अब स्वयं पश्चिमी समाज हो रहे हैं वहां जो माहौल बना है उसमें भांति-भांति के इसाई कट्टरपंथी पैदा होने लगे हैं। इनमें आतंकवादी समूह से लेकर फासीवादी-नाजीवादी समूह तक सारे हैं। इन्हें पूंजीपतियों के एक धड़े का समर्थन हासिल है तथा वहां की सरकारें इन्हें पनपने-बढ़ने का पूरा मौका दे रही हैं। कहीं-कहीं तो वे सत्ता तक पहुंचने लगे हैं।
इस तरह इस्लाम विरोध का माहौल पश्चिमी समाजों में भी जहर घोल रहा है। उससे वह समाज उल्टी दिशा में जा रहा है। धर्मनिरपेक्षता, जनतंत्र, आधुनिकता सभी पर हमले हो रहे हैं। पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने बाकी दुनिया में जो पुरातनपंथियों को पाला-पोषा वह पलटकर उनके समाजों पर ही वार कर रहा है।
पर साम्राज्यवादियों को शायद इससे दिक्कत नहीं। धर्म निरपेक्षता, जनतंत्र, आधुनिकता इत्यादि उनके लिए महज जुमला भर हैं जिनकी आड़ में वे अपने नापाक इरादे छिपाते हैं। यह नहीं भूलना होगा कि इनके ही भाई बंधुओं ने कभी फासीवादियों-नाजीवादियों को पाला-पोषा था। साम्राज्यवादी हमेशा ही समाज को पीछे ले जाने वाली ताकत रहे हैं।
ऐसे में इनके इतिहास-वर्तमान पर नजर रखते हुए आज की इनकी करतूतों का चौतरफा भण्डाफोड़ करना होगा। इस्लाम विरोध का इनका घृणित कुचक्र तो इसका केवल हिस्सा भर है जिसका ठोस तथ्यों से मुकाबला करने की जरूरत है।
इस्लाम विरोध : एक साम्राज्यवादी कुचक्र
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को