70 घंटे काम का सप्ताह
पिछले दिनों इन्फॉसिस के चेयरमैन नारायण मूर्ति ने एक टी वी चैनल को इंटरव्यू देते हुए कहा कि देश के युवाओं को सप्ताह में 70 घंटे काम करना चाहिए। नारायण मूर्ति के इस बयान के बाद समाज में 70 घंटे काम के बारे में बहस छिड़ गयी। टी वी पर कुछ लोगों के पक्ष में तो कुछ लोगों के विपक्ष में बयान दिखाए जाने लगे।
जब नारायण मूर्ति ने युवाओं से 70 घंटे काम करने की बात कही तो उनका कहना था कि आज भारत की उत्पादकता काफी कम है और उसका मुकाबला चीन जैसे देशों से है। अगर भारत को प्रतिस्पर्धा में टिकना है तो भारत को अपनी उत्पादकता बढ़ानी होगी और यह काम देश का युवा कर सकता है बशर्ते वह सप्ताह में 70 घंटे काम करे।
वैसे नारायण मूर्ति ने वही बात कही जो इस देश के पूंजीपति लम्बे समय से मांग कर रहे हैं और केंद्र की मोदी सरकार ने नये 4 लेबर कोड में 12 घंटे काम का दिन कर दिया है तथा पंजाब, कर्नाटक और राजस्थान सरकार ने अपने यहां 12 घंटे काम का दिन लागू भी कर दिया है। हालांकि कानूनन अभी भी सब जगह हफ्ते में 48 घण्टे काम की ही बात की जाती रही है।
70 घंटे की इस बहस पर बात करने से पहले ये जाना जाये कि नारायण मूर्ति जिस प्रतिस्पर्धा की बात कर रहे हैं वह क्या है? यह प्रतियोगिता पूंजीपतियों के बीच बाजार पर कब्जे की प्रतियोगिता है। इस प्रतियोगिता में हर पूंजीपति दूसरे पूंजीपति को पछाड़ना चाहता है। हर पूंजीपति चाहता है कि उसका माल सस्ते से सस्ता बने जिसे वह कम दाम में बेचकर दूसरे पूंजीपति को बाजार से बाहर कर दे (अभी बाजार की अन्य शक्तियों की चर्चा नहीं हो रही है)। और इसी प्रतियोगिता को वह राष्ट्रवाद का चोला पहना देता है ताकि उसके द्वारा मजदूर वर्ग के किये जा रहे शोषण पर पर्दा डाला जा सके।
अपना माल सस्ता करने का एक तरीका मजदूरी कम से कम देना और काम के घंटे बढ़ाना है। पूंजीपति मजदूर को ज्यादा से ज्यादा समय फैक्टरी में रोकना चाहता है ताकि उसके मुनाफे का पहिया लगातार घूमता रहे। ऐसा पूंजीवाद के शुरू से ही होता रहा है जब पूंजीपति मज़दूरों से 18-18 घंटे काम करवाता था। लेकिन 19 वी सदी के उत्तरार्द्ध से ही काम के घंटे 8 करने की मांग उठने लगी और 1 मई 1886 के अमेरिका के शहर शिकागो से यह आंदोलन पूरी दुनिया में फैल गया और पूंजीपतियों को मजबूरन काम के घंटे 8 करने पड़े। भारत में आजादी के बाद 8 घंटे का कार्यदिवस लागू किया गया क्योंकि यहां भी मजदूर आंदोलन मजबूत स्थिति में था।
दुनिया में तकनीक लगातार विकसित होती गयी है और साथ ही उत्पादकता भी। और आज कम समय में मजदूर बहुत ज्यादा उत्पादन कर दे रहे हैं। इस हिसाब से देखा जाये तो काम के घंटे कम होने चाहिए लेकिन उलटे इन्हें बढ़ाने की बात की जा रही है।
नारायण मूर्ति ने जापान और जर्मनी का उदाहरण देते हुए बताया कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी और जापान को पुनः खड़ा करने में वहां लोगों ने दिन-रात एक कर दिया। उनसे हमें सीखने की जरूरत है।
वे यह नहीं बताते कि 1978 में जर्मनी में ट्रेड यूनियनों ने 6 सप्ताह की हड़ताल कर 35 घंटे प्रति सप्ताह काम की मांग की और अंततः 37.5 घंटे प्रति सप्ताह काम का समझौता हुआ।
तमाम शोधों ने यह बात साबित की है कि काम के घंटे ज्यादा होना सेहत और उत्पादकता दोनों के लिए ठीक नहीं है जबकि काम के घंटे कम होने पर उत्पादकता बढ़ती है। इसके अलावा यह भी पाया गया है कि काम के घंटे ज्यादा होने पर दुर्घटना के अवसर ज्यादा होते हैं।
नारायण मूर्ति को उद्योग जगत में एक परोपकारी व्यक्ति के रूप में जाना जाता है। एक समय उन्होंने गरीबों की भलाई के लिए अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाने की बात की थी (उलटे सरकारों द्वारा कारपोरेट टैक्स कम कर दिया गया)। अब जब नारायण मूर्ति काम के घंटे बढ़ाने की बात कर रहे हैं तो वे वेतन की बात नहीं करते हैं।
आज भारत में तमाम क्षेत्रों में यह देखा जा रहा है कि काम के घंटे 12 से 16 घंटे तक हो गये हैं। गिग वर्कर 12 घंटे काम करने के बावजूद 15,000 रुपये मात्र कमा पाते हैं। नये लेबर कोड़ों में तो नीम, ट्रेनी, एफ टी ई आदि नामों से मजदूरों के काम के घंटे तय करने (या कहें दबाव के जरिये) का अधिकार पूंजीपतियों को दे दिया गया है। नारायण मूर्ति बस अपनी बहस के जरिये इसे सामाजिक स्वीकार्यता दिलवाना चाहते हैं।
अगर नारायण मूर्ति की 70 घंटे काम करने की बात को युवा मान भी लें तो क्या आज भारत में ऐसा है कि उनके पास काम के अवसर हैं। कोरोना के बाद तो रोजगार के अवसर और कम हुए हैं। लाखों नौकरियां नोटबंदी और कोरोना काल के बाद ख़त्म हो गयी हैं। समाज में खुली-छिपी बेरोजगारी मौजूद है। ऐसे समय में 70 घंटे काम की मांग इसके अलावा और कुछ नहीं है कि जो भी लोग काम कर रहें हैं उनको ज्यादा समय तक काम करने को मजबूर किया जाये ताकि पूंजीपतियों को ज्यादा से ज्यादा मुनाफा हो और वे दुनिया के पूंजीपतियों से मुकाबला कर सकें।
आज भले ही दुनिया और भारत में मजदूर संघर्षों के कमजोर होने के कारण पूंजीपति वर्ग मजदूर वर्ग पर हावी है लेकिन यह स्थिति ज्यादा दिन नहीं चलेगी। मजदूर वर्ग एक बार फिर मई दिवस के शहीदों के पद चिन्हों का अनुसरण करेगा और काम के घंटे कम करवाने की तरफ आगे बढ़ेगा। और अपने संघर्षों को वहां तक पहुंचाएगा जहां वह पूंजीपति वर्ग के शासन का खात्मा कर मजदूरों का राज कायम करेगा।