समान नागरिक संहिता, संघ परिवार और हिंदू कोड बिल

समान नागरिक संहिता यानी यू.सी.सी. के मुद्दे को मोदी और उनकी सरकार ने फिर से उछाल दिया है। इस बार, पी.एम. मोदी खुलकर अदालत की आड़ में अपने इस ध्रुवीकरण के एजेंडे को सामने लाये हैं। इस मुद्दे का बेहद सरलीकरण करते हुए मोदी ने कहा ‘एक ही परिवार में दो लोगों के लिए अलग-अलग नियम नहीं हो सकते, ऐसी दोहरी व्यवस्था से घर कैसे चल पाएगा?’
    
भारी सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषायी विविधता वाले देश को एक ‘परिवार’ के रूप में बताना और फिर इस आधार पर तर्क करना हिंदू फासीवादियों की धूर्तता को ही दिखाता है। ये बेहद सरलीकरण करके मुद्दे की जटिलता और बारीकियों को गायब कर देते हैं। अपने पक्ष में ध्रुवीकरण और गोलबंदी करते हैं।
    
यदि एक परिवार की बात भी की जाय जिसकी बुनियाद आम तौर पर एक स्त्री और एक पुरुष है तब फिर यहां क्या स्थिति है? क्या दोनों मामलों में अभी भी ‘दोहरी व्यवस्था’ नहीं है? क्या जिन हिंदूओं के ‘श्रेष्ठ’ होने की बात संघी करते हैं वहां परिवारों में स्त्री और पुरुष के कानूनी मामलों में एक हद तक तो व्यावहारिक मामलों में अधिकांशतः ही ‘दोहरी व्यवस्था’ मौजूद नहीं है?
    
यहां उत्तराधिकार यानी पैतृक संपत्ति में बेटियों को, बेटे की तरह अधिकार देने के मामले को कानूनी बनाने में ही पचास साल लग गए। ‘हिंदू उत्तराधिकार कानून’ 1956 में बना था। इस कानून के हिसाब से पैतृक संपत्ति में केवल बेटे को ही उत्तराधिकारी माना गया, वही संपत्ति का हकदार था, बेटी नहीं। यह कानून सामंती जमाने से चली आ रही हिंदुओं की मिताक्षरा विधि के आधार पर बनाया गया। इसे बौद्ध, जैन, सिक्ख धर्म पर थोपा गया साथ ही उन आदिवासियों पर भी जो हिंदू धर्म की कुछ चीजों को मानते थे। हिन्दू विवाह कानून के हिसाब से शादी की उम्र 18 वर्ष व 21 वर्ष तय हो गयी मगर आज भी बड़ी संख्या में हिंदुओं में बाल विवाह हो रहे हैं। ये बाल विवाह कानूनी दृष्टि से भी अमान्य नहीं ठहराये जा सकते।
    
1956 के हिंदू उत्तराधिकार कानून में तमाम प्रकार के दबावों, संघर्षों के बाद ही 2005 में संशोधन हुआ। इसे ‘हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन कानून, 2005’ कहा गया। इसमें पैतृक संपत्ति ही नहीं बल्कि पिता द्वारा अर्जित संपत्ति में भी बेटियों को बराबर की हिस्सेदारी हासिल हुई। 
    
व्यवहार में क्या हुआ? हिंदू परिवारों में 2005 से पहले जन्मी बेटियों को संपत्ति में हक़ दिए जाने पर फिर बड़े अड़ंगे लगे। संपत्ति में बेटियों को हिस्सेदारी ना देनी पड़े इसलिए कहा गया कि फैसला तो 2005 में बने कानून के बाद जन्मी बेटियों पर ही लागू होगा। मामला फिर सर्वाेच्च न्यायालय में गया। सर्वाेच्च न्यायालय ने जून 2022 में स्पष्ट किया कि संपत्ति का बंटवारा 2005 से पहले जन्मी बेटियों पर भी लागू होगा। मगर अभी भी व्यवहार में यह कानून अधिकांशतः लागू नहीं होता।
    
इस तरह यह भी स्पष्ट है कि हिंदू कोड बिल के तहत बने इस ‘हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956’ का समान नागरिक संहिता से कोई लेना देना नहीं था। उत्तराधिकार कानून के अलावा गोद लेने, तलाक और विवाह के मामले पर 3 अन्य कानून बने थे। पुराने सामंती जमाने के पुरुष वर्चस्व को ही इनमें बनाकर रखा गया। हालांकि हिंदू कानूनों को ही कुछ सुधार के साथ लागू किया गया। उत्तराधिकार कानून में महिलाओं (हिंदू) को संपत्ति में बराबर का अधिकार होना चाहिए, इस मांग को लेकर संघियों और जनसंघ (भाजपा) ने कभी कोई आवाज नहीं उठाई।
    
इसके उलट रूढ़िवादी ताकतों और हिंदू फासीवादी ताकतों ने 1947 से प्रस्तावित हिंदू कोड बिल लाने का यानी मामूली सुधार का भी जबर्दस्त विरोध किया। इनके द्वारा 1949 में एक कमेटी बनाई गई। इसका नाम था: अखिल भारतीय हिंदू कोड बिल विरोधी कमेटी। संघ ने हिंदू कोड बिल को ‘हिंदुओं पर परमाणु बम का हमला’ करार दिया था तथा इसे ‘हिंदू परिवार पर हमला’ माना था।
    
इस ‘हिंदू कोड बिल विरोधी समिति’ ने पूरे भारत में सैकड़ों बैठकें कीं, जहां करपरात्री स्वामी, द्वारका के शंकराचार्य समेत तमाम स्वामियों एवं श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने प्रस्तावित कानून की निंदा की। इस आंदोलन में भाग लेने वालों ने खुद को धार्मिक युद्ध (धर्म युद्ध) लड़ने वाले धार्मिक योद्धाओं (धर्म वीर) के रूप में प्रस्तुत किया। 
    
आज यही ताकतें समान नागरिक संहिता की बात कर रही हैं। भाजपा और संघी संगठनों का राम मंदिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता (यू.सी.सी.) का मुद्दा लंबे समय से था। पहले वाले दोनों मामलों में हिंदू फासीवादी सफल रहे हैं जबकि यू.सी.सी. के मामले को भाजपा शासित राज्यों विशेषकर उत्तराखंड आदि के जरिये ये पहले ही आगे बढ़ा चुके हैं।
    
समान नागरिक संहिता का मतलब है कोई भी वयस्क नागरिक, चाहे वह किसी भी धर्म-जाति का हो, लिंग का हो शादी, तलाक, गोद लेने और संपत्ति हस्तांतरण (उत्तराधिकार) के मामले में एक समान नागरिक कानून के हिसाब से चलेंगे। धर्म की इसमें कोई भूमिका नहीं होगी। महिलाओं को इन सभी मामलों में बराबरी होगी। इस तरह की समान नागरिक संहिता केवल धर्मनिरपेक्ष राज्य के साथ ही संभव है।
    
मोदी-शाह, इनकी भाजपा और संघ जो देश को ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने की पूरी कोशिश में हैं, ये किस आधार पर ‘समान नागरिक संहिता’ की बात कर सकते हैं जबकि मुस्लिम व ईसाई अल्पसंख्यकों को ये दोयम दर्जे का नागरिक बनाने पर तुले हुए हैं, दलितों व आम महिला नागरिकों पर ये हमलावर हैं।
    
इन्होंने यू.सी.सी. के मुद्दे को हवा दी है मगर अभी तक यू.सी.सी. के ड्राफ्ट (मसौदा) में क्या है इसे अभी तक सामने नहीं रखा है। ये गोवा के ‘समान नागरिक संहिता’ की बात करते हैं जो कि पुर्तगाली सरकार द्वारा औपनिवेशिक दौर में लागू किया गया था।
    
गोवा की यह समान नागरिक संहिता हिंदुओं विशेषकर हिंदू पुरुषों के वर्चस्व को एक हद तक बनाये रखती है। हिंदू पुरुष को विशेष परिस्थितियों यानी यदि उसकी पत्नी 25 साल की उम्र तक बच्चे ना पैदा कर सके या फिर 30 साल की उम्र तक लड़का ना पैदा कर सके, यह कानून हिंदू पुरुषों को बहुविवाह की छूट देता है बाकी मुस्लिम समेत अन्य धर्मों के पुरुष के एक से ज्यादा विवाह को प्रतिबंधित करता है। यह संहिता विवाह संबंधी धार्मिक रीति रिवाजों को बनाये रखने की छूट देती है हालांकि विवाह के बाद इसका कानूनी वैधता के लिए रजिस्ट्रेशन जरूरी है मगर ईसाइयों को इसमें छूट है। इनके लिए चर्च के रजिस्ट्रेशन से ही ये प्रक्रिया पूरी हो जाती है।
    
हिंदू फासीवादी, हिंदू महिलाओं को तलाक का अधिकार दिए जाने के खिलाफ थे। 1957 के जनसंघ (भाजपा) के घोषणा पत्र में कहा गया ‘अटूट विवाह हिंदू समाज का आधार रहा है’। शायद, पत्नी को परित्यक्त स्थिति में रख, इसी परंपरा और घोषणा को ‘महान मोदी’ निभा रहे हैं।  
    
इसीलिए मुस्लिम महिलाओं की ‘अधिकारहीनता’ की स्थिति, इन्हें बेहद ‘कचोट’ रही है। इस कथित अधिकारहीनता से, संघी इन्हें बाहर निकालने की ‘अथक कोशिश’ में हैं। 
    
संघी अफवाह मशीनरी ने मुस्लिमों के खिलाफ खूब फर्जी बातें फैलाई हैं। मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे तब मुस्लिमों के प्रति नफरत और तंज कसने के लिए ‘हम पांच, हमारे पच्चीस’ कहा करते थे। यानी मुसलमान पुरुष ‘चार शादियां और पच्चीस बच्चे’ करते हैं। इस तरह हिंदुओं (पुरुषों) के दिमाग में नफरत और कुंठा पैदा की गई कि वे इससे वंचित हैं। साथ ही ये इस तरह हिंदू समुदाय में खुद के अल्पसंख्यक हो जाने, शासित हो जाने का ‘डर या आतंक’ पैदा करते हैं।
    
अब यदि हिंदू कोड बिल के बरक्स मुस्लिम पर्सनल कानून की बात की जाय। यहां शादी, तलाक जैसे मामले इसी मुस्लिम कानून (धार्मिक कानूनों) के हिसाब से होते हैं। यहां महिलाओं को ‘खुला’, ‘मुबारत’ के तहत तलाक का अधिकार है। शादी के लिए लड़का-लड़की दोनों की न्यूनतम उम्र 15 साल है, लड़की की शादी के लिए सहमति जरूरी है। यहां बेटियों को भाई को मिलने वाली पैतृक संपत्ति का आधा हिस्से के बराबर मिलता है जबकि विधवा महिला को पति के छठवें हिस्से (आम तौर पर) पर अधिकार होता है। विधवा को पुनर्विवाह का अधिकार है। इसके बावजूद यहां भी पुरुष वर्चस्व बरकरार है। हलाला और बहुविवाह (पुरुष) यहां जायज है।
    
हिंदू कोड बिल (4 कानून) और फिर 2005 के संशोधन से हिंदू महिलाओं को तलाक, पैतृक संपत्ति का उत्तराधिकारी होने, भरण-पोषण व गोद लेने के संबंध में एक हद तक जो अधिकार हासिल हुए हैं वे कुछ किंतु-परंतु के साथ या कमजोर होने के बावजूद मुस्लिम महिलाओं को उनके पर्सनल लॉ के हिसाब से पहले ही हासिल हैं। यहां विवाह एक करार (समझौता) है जिसे स्त्री-पुरुष दोनों ही तोड़ सकते हैं। इसके उलट हिंदुओं में यह जन्म-जन्मांतर का यानी सात जन्मों का पवित्र बंधन है। इसे निभाने की जिम्मेदारी हिन्दू महिलाओं के कंधे पर ही है।
    
जहां तक मुसलमानों के बारे में ‘चार शादी, चालीस बच्चे’ की बात है, यह फर्जी तथ्य, केवल और केवल संघी अफवाह मशीनरी की ही उपज है। हां! यह सही है कि मुसलमानों में पुरुषों को बहुविवाह की इजाजत है जबकि अन्य सभी में यह प्रतिबंधित है। मगर वास्तव में पुरुषों में बहुविवाह सभी धार्मिक समुदायों में है। अलग-अलग वक्त पर जारी रिपोर्ट्स हिंदू फासीवादियों के भयानक दुष्प्रचार की पोल खोलती है। 
    
1967 और 1974 की रिपोर्ट बताती है कि बहुविवाह हिंदुओं में 5.8 प्रतिशत का था जबकि मुसलमानों में 5.7 प्रतिशत। बौद्धों, जैन व आदिवासियों में यह क्रमशः 7.9 प्रतिशत, 6.8 प्रतिशत और  15.2 प्रतिशत था। सबसे ज्यादा बहुविवाह (पुरुषों के) आदिवासियों में थे जबकि मुसलमानों में सबसे कम।
    
2019-21 के राष्ट्रीय स्वास्थ्य परिवार सर्वे बताता है कि बहुविवाह का प्रचलन ईसाइयों में 2.1 प्रतिशत, मुसलमानों में 1.9 प्रतिशत, हिंदुओं में 1.3 प्रतिशत और अन्य धार्मिक समूहों में 1.6 प्रतिशत था। बहुविवाह का सबसे अधिक प्रचलन आदिवासी आबादी वाले पूर्वाेत्तर राज्यों में था। यह भी तथ्य है कि सभी समूहों में बहुविवाह लगातार घटता गया है। 2006 के औसत 1.9 प्रतिशत से घटकर अब यह 1.4 प्रतिशत रह गया है। इसी तरह मुस्लिमों में कुल प्रजनन दर 2.36 प्रतिशत तो हिंदुओं में 1.94 प्रतिशत है। 
    
मोदी सरकार के लिए समान नागरिक संहिता केवल ध्रुवीकरण का मुद्दा है। इसके अलावा ये कुछ अन्य कर भी नहीं सकते। आदिवासियों का विरोध देखते उत्तर पूर्व के उन क्षेत्रों में जहां अनु. 371 के तहत अपनी परम्पराओं के हिसाब से शादी, तलाक आदि होते है वहां मोदी सरकार यहां के आदिवासियों को यू.सी.सी. से बाहर रखने की बात कह रही है। इसी तरह उत्तराखंड, हिमांचल, पंजाब और केरल आदि के कुछ खास इलाकों में हिंदुओं में जो बहुपति विवाह (एक स्त्री के एक से ज्यादा पति) इस पर भी संघियों के मुंह से कोई आवाज नहीं निकलेगी।
    
जिस तरह मोदी सरकार में साम्प्रदायिक आधार पर नागरिकता कानून मनमानी व्याख्या कर बनाया था, उसी तरह ये समान नागरिक संहिता के मामले में करेंगे। ‘बहुविवाह (पुरुष) पर प्रतिबंध’, ‘हलाला’ इसके निशाने पर होंगे। चूंकि यह समान नागरिक संहिता कतई नहीं होगी बल्कि केवल मुस्लिमों के मामले में हस्तक्षेप होगा। स्वाभाविक तौर पर मुस्लिमों और मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों की ओर से इसका विरोध होगा।
    
फिर इस विरोध और सफलता को हवा देकर, इसके जरिये हिंदुओं को गोलबंद करके मोदी और भाजपाई अपनी 2024 की जीत का दम भरेंगे।
    
समान नागरिक संहिता बनने का जहां तक सवाल है यह एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के बिना संभव नहीं। भारत सरकार ने आजादी के बाद से ही सर्व धर्म समभाव की नीति की बात की हालांकि व्यवहार में यह नरम हिंदुत्व की नीति पर चलता रहा। आज तो व्यवहार में यह ‘हिंदू राष्ट्र’ की तरह आचरण कर रहा है। धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में स्थापना के लिए पहली व जरूरी चीज है कि आज हिंदू फासीवादी ताकतों के हर कदम का डटकर प्रतिरोध किया जाय और इनको पीछे धकेलने के लिए एकजुट होकर संघर्ष किया जाय।

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