ईमानदारी और साफगोई के मामले में हिन्दू फासीवादियों का रिकार्ड कोई अच्छा नहीं है। वे शुरू से ही दोमुंहापन की बातें करने के लिए बदनाम रहे हैं। इसका सबसे प्रतिनिधिक उदाहरण उनका यह दोहरा कथन है कि ‘इस देश के सारे लोग हिन्दू हैं’ और कि ‘देश में हिन्दू खतरे में हैं’।
अब हिन्दू फासीवादी अपने इस व्यवहार को नये स्तर पर ले जा रहे हैं। भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना इनका पुराना सपना है। पर इस सपने के रास्ते में अन्य चीजों के अलावा देश का संविधान तथा इसकी परम्पराएं भी हैं। इन्हें किनारे लगाने का सीधा रास्ता चूंकि अभी हिन्दू फासीवादियों की ताकत से बाहर है, इसीलिए वे अन्य तरीके अपना रहे हैं और इसमें वे अपने चरित्र के अनुरूप किसी भी झूठ-फरेब से इंकार नहीं कर रहे हैं।
पिछले दिनों जब मोदी सरकार ने एकदम रहस्यमय अंदाज में संसद का विशेष सत्र बुलाया तो कुछ लोगों ने यह अटकल लगाई कि शायद वह देश का नाम बदलना चाहती है। वह ‘इंडिया यानी भारत’ के बदले केवल भारत करना चाहती है। पर मोदी सरकार ने यह करने के बदले दूसरा तरीका अपनाया। उसने बस इंडिया शब्द का इस्तेमाल बंद कर दिया। अब तक अंग्रेजी भाषा में इंडिया और हिन्दी में भारत शब्द इस्तेमाल होता था। अब अंग्रेजी में भी भारत होने लगा। संविधान में ‘इंडिया यानी भारत’ रखने वालों ने कभी यह नहीं सोचा होगा कि कोई इस तरह का खेल भी कर सकता है। अब बिना संविधान बदले भी इंडिया को गायब किया जा सकता है।
पर किसी चीज को गायब करने का केवल यही तरीका नहीं है। ऐसा तब और मुश्किल हो जाता है जब संविधान में किसी दुविधा की गुंजाइश न हो। संविधान के आमुख में धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द के साथ भी ऐसा ही है।
ये दोनों शब्द संविधान में 1976 में आपातकाल के दौरान बयालीसवें संविधान संशोधन में जोड़े गये थे। वह काफी व्यापक संशोधन था। जब 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तो ज्यादातर संशोधन निरस्त कर दिये गये पर ये दोनों शब्द बने रहे। एक सौ संघी सांसदों वाली जनता पार्टी की सरकार की भी हिम्मत इन्हें हटाने की नहीं पड़ी। तब से ये संविधान में मौजूद हैं।
अपने चरित्र के अनुरूप ही संघ के हिन्दू फासीवादियों को इन दोनों शब्दों से बेहद चिढ़ है। वे इन्हें संविधान से हटाने की लगातार बात करते रहते हैं। इनके लोग इस संबंध में संसद में निजी विधेयक पेश कर चुके हैं और सर्वोच्च न्यायालय तक जा चुके हैं।
अब नये संसद भवन के उद्घाटन के वक्त उन्होंने एक शानदार काम किया। सरकार ने संविधान की नयी प्रति छपवाकर सभी सांसदों को दी। कुछ सांसद इसे लेकर पुराने भवन से नये भवन में गये। बाद में लोगों ने पाया कि इसमें आमुख से धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द गायब हैं। जब इस संबंध में सरकार से विपक्ष ने सवाल किया तो गोलमाल जवाब मिला कि यह संविधान की मूल प्रति की नकल है। लेकिन लोगों ने पाया कि ऐसा नहीं था क्योंकि अन्य संशोधन इसमें मौजूद थे। वैसे भी मूल प्रति की नकल बांटने का क्या औचित्य हो सकता था?
संघी सरकार जानती है कि अपनी आज की ताकत में वह संविधान से इन शब्दों को नहीं निकलवा सकती। ऐसे में उसने छपाई की इस बाजीगरी का सहारा लिया।
लेकिन इस तरह की बाजीगरी और तरह से भी हो रही है। संघी प्रधानमंत्री ने स्वयं को देश का राजा मान लिया है। और राजा तो सरकार और राज्य दोनों का मुखिया होता है। ऐसे में भारतीय संविधान के हिसाब से राज्य के मुखिया यानी राष्ट्रपति को किनारे लगाने का मोदी ने नायाब तरीका निकाल लिया जो इस संसद भवन के उद्घाटन पर दिखा। संविधान के हिसाब से राष्ट्रपति संसद की भी मुखिया हैं पर नये संसद भवन के उद्घाटन के दोनों अवसरों से उन्हें चुपचाप किनारे कर दिया गया। वे कुछ बोल भी नहीं सकतीं क्योंकि उनकी बोलने की हैसियत नहीं है।
देश के पूंजीवादी लोकतंत्र के संविधान को हिन्दू फासीवादियों द्वारा इसी तरह चोरी-चोरी, चुपके-चुपके कुतरा जायेगा।
चोरी-चोरी, चुपके-चुपके
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को