आम चुनाव के परिणाम के बाद मीडिया में लोकप्रिय शीर्षक कुल मिलाकर यह था कि ‘वे जीत कर भी हार गये और वे हार कर भी जीत गए’। असल में, मोदी और उसके पीछे-पीछे भाजपा व मीडिया ‘अब की बार चार सौ पार’ का नारा लगा रहे थे। ये सब चुनाव परिणाम से तब हतप्रभ रह गये जब उन्हें चार सौ पार तो क्या बहुमत के भी लाले पड़ गये। नायडू, नीतिश कुमार अगर पलटी मार जाते तो मोदी के हाथ से सत्ता फिसल जाती। और यह बात आगे के लिए भी सच है कि जब कभी ये दोनों पलटी मारेंगे तो मोदी सत्ता से बाहर होंगे।
इस चुनाव परिणाम का सबसे बड़ा परिणाम यह था कि ‘‘मोदी सरकार’’ तुरंत हवा बनकर उड़ गयी और उसके स्थान पर ‘एन डी ए सरकार’ का जुमला यूं उछाला गया मानो ‘‘मोदी सरकार’’ कहीं, कभी, थी नहीं। रात-दिन ‘मोदी-मोदी’ करने वाले मोदी, अब कहने लगे कि यह एन डी ए सरकार है, पहले भी वह थी और बाद में भी वह रहेगी।
मोदी एण्ड कम्पनी ने चुनाव में बड़ी जीत हासिल करने के लिए सारे प्रपंच किये। सात चरणों में आम चुनाव आयोजित करवाये ताकि मोदी अपने हिसाब से पर्याप्त समय लेकर प्रचार का लाभ उठा सकें। परिणाम क्या निकला कि भीषण गर्मी में कईयों को चुनाव ड्यूटी में अपनी जान गंवानी पड़ी। ये सामान्य मृत्यु नहीं बल्कि प्रायोजित हत्यायें हैं। बाद में बड़ी मासूमियत से चुनाव आयोग ने कहा कि गर्मी में चुनाव नहीं कराने चाहिए। चुनाव ड्यूटी में जान गंवाने वाले लोगों की सरेआम हत्या हुयी है। और उनकी हत्या के लिए जितना जिम्मेवार चुनाव आयोग है उससे कहीं-कहीं अधिक स्वयं मोदी हैं जिन्हें चुनावी लाभ के लिए सात चरणों का चुनाव चाहिए था। जिन्होंने चुनाव आयोग को कठपुतली की तरह नचाया।
चुनाव परिणाम के दिन शेयर बाजार में भारी गिरावट देखी गयी। मोदी की जीत ऐतिहासिक हो या न हो परन्तु शेयर बाजार की गिरावट ऐतिहासिक थी। सेंसेक्स 4000 पाइंट से भी ज्यादा नीचे गिरा और ऐसा ही हाल निफ्टी का था। बताया गया कि निवेशकों के 30.41 लाख करोड़ रुपये डूब गये। शेयर मार्केट का एक्जिट पोल सर्वे के बाद कृत्रिम ढंग से ऊपर चढ़ना और फिर नीचे गिरने में राहुल गांधी को ऐतिहासिक घोटाला दिखाई दिया। उनका तर्क है कि शेयर बाजार को मोदी-शाह-सीतारमण ने अपने चुनावी बयानों से ऊपर चढ़़ाया और जब वह ऊपर चढ़ता गया तो शेयर बाजार के बड़े खिलाड़ियों ने तो खूब कमाई की परन्तु छोटे निवेशक लुट गये। गौर करने वाली बात यह है कि अमित शाह शेयर बाजार के पुराने खिलाड़ी हैं और आज भी उनकी सम्पत्ति का एक स्रोत शेयर बाजार है। और कुछ यही बात राहुल गांधी, नरेन्द्र मोदी के बारे में सच है कि इन महानुभावों ने भी शेयर बाजार में पैसा लगाया हुआ है। शेयर बाजार की उठापटक एक साजिश थी, एक घोटाला था। यह शायद कभी पता लगे और ज्यादा संभावना है कि सच कभी सामने न आ सके।
चुनाव परिणाम ने यह भी दिखला दिया कि एक्जिट पोल सर्वे एकदम से झूठे साबित हुए। एक संस्था का प्रमुख तो पूरे का पूरा झूठा साबित होने के बाद टी.वी. चैनल पर सरेआम आंसू बहाने लगा था। सारे सर्वे गलत साबित हुए परन्तु किसी ने नहीं स्वीकारा कि वे एकदम गलत थे। मोदी के अंधभक्त हैं और अक्ल के अंधे हैं। धंधा करने लिए किसी भी हद तक गिर जाते हैं।
क्या ये चुनाव परिणाम मोदी की हार हैं? इसमें कोई शक नहीं कि ये चुनाव परिणाम मोदी के लिए एक झटका हैं। ‘मोदी-मोदी’ करने वाले मोदी की हार हैं। मोदी के घृणित साम्प्रदायिक प्रचार को एक हद तक नकारे जाने का भी एक नतीजा है। परन्तु यह कहना एकदम ठीक नहीं है कि मोदी की हिन्दू फासीवादी राजनीति को जनता ने पूरी तरह से नकार दिया है। मोदी को मिले मत में एक फीसदी से भी कम की कमी आयी है। 2019 में भाजपा को 37.36 प्रतिशत मत मिले थे जबकि इस बार 36.56 फीसदी मत मिले। यद्यपि सीटें 303 से घटकर 240 हो गयीं। ‘एन डी ए की सरकार’ का नया-नया नारे लगाने वाले मोदी के गठबंधन की सीटें भी गिर गयीं। ऐसा मोदी के गठबंधन की सभी पार्टियों के साथ हुआ। यह सब होने के बावजूद मोदी ही सत्ता में आये।
इस आम चुनाव में मोदी ने मोदी को ही मुख्य मुद्दा बनाया हुआ था। इसके उलट हुआ यह कि विपक्षी गठबंधन द्वारा उठाये गये मुद्दे चुनाव के केन्द्र में आ गये। बेरोजगारी, महंगाई और संविधान (भाजपा के चार सौ पार का नारा) बदले जाने के साथ-साथ चुनाव में स्थानीय मुद्दे और प्रत्याशी का चेहरा कहीं-कहीं बहुत महत्वपूर्ण हो गये। कुछ राज्यों में मोदी का ही सिक्का चला। मध्य प्रदेश, हिमाचल, गुजरात, उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़ आदि में मोदी का जादू बरकरार है। जहां मोदी अपना चेहरा आईने में नहीं देखना चाहेंगे वह राज्य बनकर उत्तर प्रदेश उभरा है। उत्तर प्रदेश में मोदी एण्ड कम्पनी का इतना बुरा हाल होगा यह किसी भी चुनाव विश्लेषक को अनुमान नहीं था। और सबसे बड़ी बात राम मंदिर का मुद्दा पूरे देश में भुनाने वाली भाजपा की अयोध्या में ही शर्मनाक हार हो गयी।
मोदी के खिलाफ बने इण्डिया गठबंधन ने उन्हें ठीक-ठाक टक्कर दी है। एन डी ए और इण्डिया गठबंधन के कुल मतों में ज्यादा फर्क नहीं है। पहले गठबंधन को 42.5 फीसदी तो दूसरे को 40.6 फीसदी मत मिले। और आज इण्डिया गठबंधन इस स्थिति में है कि मोदी सरकार के पतन की स्थिति में अपनी सरकार नीतिश, नायडू के सहयोग से बना लें। विपक्ष के मजबूत होकर उभरने को किसी ने लोकतंत्र की जीत तो किसी ने भारत की जनता के विवेक की संज्ञा दी है। और किसी-किसी ने इसे संविधान की जीत बताया है। जहां तक लोकतंत्र या संविधान की जीत का सवाल है ये तथ्य और तर्क की दृष्टि से भद्र मजाक भर है। हां, यह बात कुछ-कुछ ठीक है कि भारत के मतदाताओं ने मोदी को रंग बदलने को मजबूर कर दिया है। खतरा भांपकर ही गिरगिट अपना रंग बदलता है। मोदी को अपनी सरकार को मजबूर होकर एन डी ए सरकार कहना पड़ा है। हो सकता है चुनाव प्रचार के दौरान उगले हुए जहर को खुद निगलने का प्रपंच भी करना पड़े। फिर एक बार ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ जैसा कोई झूठा नारा गढ़ना पड़े।
गौर से देखा जाए तो मोदी की जीत के पीछे कौन था। कौन थे जो चाहते थे कि मोदी किसी भी सूरत में सत्ता में आये। वे कौन थे जो मोदी के पाले में नीतिश कुमार और चंद्र बाबू नायडू जैसे को ले आये। इनके निजी क्षुद्र राजनैतिक समीकरणों के ऊपर सबसे बड़ा कारण देश के एकाधिकारी पूंजीपतियों के साथ विदेशी पूंजीपतियों की चाहत और हित थे। चुनाव के ठीक पहले ही सालाना गुजरात समिट में अडाणी, अम्बानी, टाटा ने अपनी चाहत बता दी थी कि ‘एक बार फिर मोदी सरकार’। एक्जिट पोल सर्वे इसी चाहत की एक भौंडी अभिव्यक्ति थे। एक्जिट पोल तो एकदम गलत साबित हुए परन्तु देशी-विदेशी वित्तीय व एकाधिकारी पूंजी ने अपना अभीष्ट तो हासिल कर ही लिया।
चुनाव परिणाम के बाद मोदी की नयी सरकार का गठन व नया गठित मंत्रिमण्डल आने वाले दिनों की तस्वीर आप पेश कर रहा है। देशी-विदेशी एकाधिकारी पूंजी की चाहत को यह सरकार हर हाल में पूरा करेगी। शेयर बाजार में आयी हरियाली इसी का एक सबूत है। गिरगिट भले ही कितना रंग बदले वह गिरगिट ही रहता है और वह अच्छे ढंग से जानता है कि रंग बदलना उसकी खुद की हिफाजत के साथ कीट-पतंगों का शिकार करने के लिए भी जरूरी है। मोदी सरकार का रंग बदल कर भले ही एनडीए सरकार हो जाये पर उसका असली काम जो है वही रहेगा। नयी सरकार नई श्रम संहिता लागू करेगी ही, किसानों को फांसने के लिए नये जाल बिछायेगी ही और बेरोजगारी-महंगाई का नया दौर तुरंत ही शुरू हो जायेगा। महंगाई की नयी किस्त तो जारी भी हो गयी हैं। दूध, बिजली, बस का किराया तो महंगा चुनाव परिणाम आने के पहले ही शुरू हो गये थे।
संघर्ष! और कठिन संघर्ष! और क्रांतिकारी संघर्ष के अलावा भारत के मजदूरों-मेहनतकशों के सामने और क्या रास्ता है।
कितने ही रंग बदले, गिरगिट, गिरगिट ही रहता है
राष्ट्रीय
आलेख
इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं।
कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है।
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।