यूरोपीय चुनावों में बढ़ती दक्षिणपंथियों की ताकत

6-9 जून को यूरोपीय संघ के नये चुनाव सम्पन्न हुए। इन चुनाव में दक्षिणपंथी-नवफासीवादी पार्टियों की ताकत बढ़ गयी है। यूरोपीय संसद में दक्षिणपंथी 2 प्रमुख गठबंधन हैं। पहला यूरोपीय कंजर्वेटिव एण्ड रिफार्मिस्ट (ECR) है इसका नेतृत्व इटली की पार्टी ब्रदर्स आफ इटली करती है। इस गठबंधन को इस चुनाव में 76 सीटें हासिल हुयी हैं। जबकि दूसरा गठबंधन आइडेंटिटी एण्ड डेमोक्रेसी ग्रुप है। इसमें फ्रांस की नेशनल रैली व जर्मनी की अल्टरनेटिव फार जर्मनी शामिल है। इस गठबंधन को इस चुनाव में 58 सीटें मिली हैं। कुल मिलाकर 720 सदस्यीय यूरोपीय संसद में दोनों दक्षिणपंथी गठबंधनों ने 134 सीटें जीती हैं। जबकि 2019 के चुनावों में इन्हें कुल 118 सीटें हासिल हुई थीं। 
    
फ्रांस में दक्षिणपंथी उभार एकदम स्पष्ट है। यहां 31.4 प्रतिशत मत के साथ मैरीन ली पेन की नेशनल रैली पहले स्थान पर रही। जबकि मैक्रां की पार्टी 14.6 प्रतिशत वोट पर सिमट गयी। सोशलिस्ट पार्टी को 13.9 प्रतिशत मत मिले। इस स्थिति में राष्ट्रपति मैक्रां ने संसद को भंग कर 30 जून से 7 जुलाई तक त्वरित विधायी चुनावों की घोषणा कर दी। इन चुनावों में नेशनल रैली पहली नव फासीवादी सरकार बनाने की उम्मीद लगाये है। 
    
जर्मनी में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी का मत प्रतिशत गिरकर 13.9 प्रतिशत पर पहुंच गया। ग्रीन गठबंधन 11.9 प्रतिशत, फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी 5.2 प्रतिशत मत प्राप्त कर पाये। इस तरह सरकार में शामिल दलों को कुल 31 प्रतिशत मत मिले। जबकि फासीवादी अल्टरनेटिव फार जर्मनी अकेले 15.9 प्रतिशत मत के साथ 15 सीटें जीतने में सफल रही। पहले स्थान पर दक्षिणपंथी क्रिश्चियन डेमोक्रेट 30 प्रतिशत मतों के साथ रही।
    
दक्षिणपंथी-नव फासीवादी पार्टियों की यूरोपीय संसद में बढ़त के पीछे कुछ कारक जिम्मेदार हैं। पहला कारक यूरोप में मौजूद आर्थिक संकट है जिसकी मार मजदूरों-मेहनतकशों पर पड़ रही है। उनका वेतन गिरने के साथ बेकारी बढ़ रही है। ऐसे में नव फासीवादी पार्टियां उन्हें नये विकल्प का स्वप्न दिखाने में सफल हो रही हैं। उनके अप्रवासी विरोधी मुद्दे अधिक समर्थन हासिल करने में सफल हो रहे हैं। इसके साथ ही ये पार्टियां किसी हद तक खुद को मौजूद सत्ता प्रतिष्ठानों से दूर का प्रदर्शित कर भी लोगों को लुभा रही हैं। अपनी बारी में ये उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों व यूरोपीय एकीकरण के प्रति असंतोष को भी अपने पक्ष में भुना ले जा रही हैं। यद्यपि इन नीतियों की ये विरोधी नहीं समर्थक ही हैं। शासक पूंजीपति वर्ग भी बढ़ती अस्थिरता-बढ़ते असंतोष के बीच इन पार्टियों को कहीं कम तो कहीं ज्यादा समर्थन देने लगा है। कहने की बात नहीं कि इनका उभार मजदूर-मेहनतकश जनता के जीवन को और बदहाली की ओर धकेलेगा।      

आलेख

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1980 के दशक से ही जो यह सिलसिला शुरू हुआ वह वैश्वीकरण-उदारीकरण का सीधा परिणाम था। स्वयं ये नीतियां वैश्विक पैमाने पर पूंजीवाद में ठहराव तथा गिरते मुनाफे के संकट का परिणाम थीं। इनके जरिये पूंजीपति वर्ग मजदूर-मेहनतकश जनता की आय को घटाकर तथा उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने गिरते मुनाफे की भरपाई कर रहा था। पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने मुनाफे को बनाये रखने का यह ऐसा समाधान था जो वास्तव में कोई समाधान नहीं था। मुनाफे का गिरना शुरू हुआ था उत्पादन-वितरण के क्षेत्र में नये निवेश की संभावनाओं के क्रमशः कम होते जाने से।

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असल में धार्मिक साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक परिघटना है। धार्मिक साम्प्रदायिकता का सारतत्व है धर्म का राजनीति के लिए इस्तेमाल। इसीलिए इसका इस्तेमाल करने वालों के लिए धर्म में विश्वास करना जरूरी नहीं है। बल्कि इसका ठीक उलटा हो सकता है। यानी यह कि धार्मिक साम्प्रदायिक नेता पूर्णतया अधार्मिक या नास्तिक हों। भारत में धर्म के आधार पर ‘दो राष्ट्र’ का सिद्धान्त देने वाले दोनों व्यक्ति नास्तिक थे। हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले सावरकर तथा मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की बात करने वाले जिन्ना दोनों नास्तिक व्यक्ति थे। अक्सर धार्मिक लोग जिस तरह के धार्मिक सारतत्व की बात करते हैं, उसके आधार पर तो हर धार्मिक साम्प्रदायिक व्यक्ति अधार्मिक या नास्तिक होता है, खासकर साम्प्रदायिक नेता। 

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इस समय, अमरीकी साम्राज्यवादियों के लिए यूरोप और अफ्रीका में प्रभुत्व बनाये रखने की कोशिशों का सापेक्ष महत्व कम प्रतीत हो रहा है। इसके बजाय वे अपनी फौजी और राजनीतिक ताकत को पश्चिमी गोलार्द्ध के देशों, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिम एशिया में ज्यादा लगाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में यूरोपीय संघ और विशेष तौर पर नाटो में अपनी ताकत को पहले की तुलना में कम करने की ओर जा सकते हैं। ट्रम्प के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि वे यूरोपीय संघ और नाटो को पहले की तरह महत्व नहीं दे रहे हैं।

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आंकड़ों की हेरा-फेरी के और बारीक तरीके भी हैं। मसलन सरकर ने ‘मध्यम वर्ग’ के आय कर पर जो छूट की घोषणा की उससे सरकार को करीब एक लाख करोड़ रुपये का नुकसान बताया गया। लेकिन उसी समय वित्त मंत्री ने बताया कि इस साल आय कर में करीब दो लाख करोड़ रुपये की वृद्धि होगी। इसके दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो एक हाथ के बदले दूसरे हाथ से कान पकड़ा जाये यानी ‘मध्यम वर्ग’ से अन्य तरीकों से ज्यादा कर वसूला जाये। या फिर इस कर छूट की भरपाई के लिए इसका बोझ बाकी जनता पर डाला जाये। और पूरी संभावना है कि यही हो।