नेहरूवादी, अंबेडकरवादी और समाजवादी

आजकल वाम-उदारवादी, राहुल गांधी की नायक की तरह वंदना कर रहे हैं। वे उसी तरह राहुल भक्ति में डूब गये हैं जैसे मोदी के समर्थक मोदी भक्ति में। केवल भाषा-शैली में ही फर्क है। एक ओर पढ़े-लिखे लोगों की भाषा है तो दूसरी ओर लंपटों की। वाम-उदारवादियों के लिए राहुल गांधी उद्धारक या मसीहा बन गये हैं जो उन्हें मोदी-शाह और योगी जैसे लोगों से मुक्ति दिलायेंगे। 
    
यह आज के पतित पूंजीवादी समाज का ही परिचायक है कि उसके सचेत तत्व यानी पूंजीवादी बुद्धिजीवी छान-बीन या समालोचना की सारी क्षमता खो चुके हैं। उन्हें लगता है कि उनके नायक की कोई भी समालोचना विरोधियों को हथियार प्रदान कर देगी। इसलिए वे केवल तारीफ और प्रोत्साहन में व्यस्त हैं। वे एक नायक के बदले दूसरा नायक खड़ा करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। 
    
इसी कड़ी में योगेन्द्र यादव ने राहुल गांधी को नेहरूवादी, अंबेडकरवादी और समाजवादी घोषित कर दिया। योगेन्द्र यादव स्वयं को लोहियावादी और किशन पटनायक के शिष्य घोषित करते हैं। वे इसे ही अपनी प्रमुख पहचान बताते हैं। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के समय से ही वे राहुल गांधी के साथ हैं। उन्होंने एक जगह कहा कि राहुल गांधी राजनीति में नेहरूवादी, सामाजिक मामलों में अंबेडकरवादी और आर्थिक मामलों में समाजवादी हैं। अब चूंकि योगेन्द्र यादव स्वयं को समाजवादी मानते हैं तो वे समझ रहे होंगे कि वे क्या कह रहे होंगे। वैसे आज सारे वाम-उदारवादियों को मोटा-मोटी इन्हीं संज्ञाओं से परिभाषित किया जा सकता है। 
    
वाम-उदारवादी भले ही अपने नायक की छान-बीन न करना चाहें पर मजदूर-मेहनतकश जनता जरूर छान-बीन करना चाहेगी कि उसके हितों का दम भरने वाला क्या वाकई किसी काम का है? उसे जिन संज्ञाओं से नवाजा जा रहा है उसकी हकीकत क्या है?
    
पहले ‘नेहरूवादी’ को लें। वैसे तो ‘नेहरूवादी’ एक व्यापक संज्ञा है पर राजनीति में इसका मतलब है पूंजीवादी जनतंत्र में विश्वास करने वाला। भारत में पूंजीवादी जनतंत्र की स्थापना का श्रेय एक व्यक्ति के तौर पर नेहरू को दिया जाता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और तमाम हिन्दू फासीवादी इसीलिए नेहरू से इतनी नफरत करते हैं कि पूंजीवादी जनतंत्र की स्थापना करके नेहरू ने उनके ‘हिन्दू राष्ट्र’ का सपना केवल सपना बना दिया। 
    
यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि नेहरू के नेतृत्व में जो पूंजीवादी जनतंत्र स्थापित किया गया था वह कोई बहुत अच्छा जनतंत्र नहीं था। उसमें अक्सर ही ‘अधिकारों’ की घोषणा करके उनको छीनने का भी प्रावधान कर दिया गया। व्यवहार में अक्सर ही छीनने का काम ज्यादा किया गया। आज हिन्दू फासीवादी उसे चरम पर पहुंचा रहे हैं। स्वयं नेहरू ने 1948-50 में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लगाकर, तेलंगाना-तेभागा किसान आंदोलन का दमन कर, 1959 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार को बर्खास्त कर (जो देश के किसी भी हिस्से में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी), 1953 से जम्मू-कश्मीर में केन्द्र सरकार की असंवैधानिक दखलंदजी कर तथा अपने मित्र शेख अब्दुल्ला को जेल में डालकर यह दिखा दिया था कि जनतांत्रिक उसूलों में वास्तव में उनका कितना विश्वास था। यानी स्थितियां यदि तब कांग्रेस पार्टी के प्रतिकूल होतीं तो नेहरू का जनतांत्रिक चरित्र वास्तव में क्या था यह ज्यादा उभर कर सामने आ जाता। तब तक वे जनतांत्रिक बने रह सकते थे। यह याद रखना होगा कि नेहरू 1951-52 के पहले लोकसभा चुनावों में अपने आलोचक तथा अपनी सरकार से इस्तीफा दे चुके अंबेडकर को जीत कर आने देने की विशाल  हृदयता नहीं दिखा सके हालांकि चार साल पहले, इन्हीं नेहरू ने उन्हें संविधान की मसौदा समिति का अध्यक्ष बनाने की सिफारिश की थी।
    
लेकिन नेहरू के पक्ष में यह कहना होगा कि उन्होंने देश में एक पूंजीवादी जनतंत्र स्थापित करने की कोशिश की और जिस हद तक वह स्थापित हुआ उसमें नेहरू का प्रमुख योगदान था। नेहरू वैज्ञानिक चेतना वाले एक आधुनिक व्यक्ति थे जो धार्मिक तौर पर ‘अज्ञेयवादी’ या लगभग नास्तिक थे। आजादी के समय के भीषण साम्प्रदायिक माहौल में मुसलमानों को महात्मा गांधी के बाद उन्हीं पर विश्वास था। उन्हीं की वजह से कांग्रेस सरकार में पोंगापंथी और साम्प्रदायिक कांग्रेसी नेता हावी नहीं हो सके हालांकि नेहरू को उनसे काफी समझौता करना पड़ा। 1949 का अयोध्या प्रकरण, पाकिस्तान चले गये मुसलमानों की वापसी पर प्रतिबंध इत्यादि इसके कुछ प्रमाण हैं। 
    
सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी नेहरूवादी हैं या हो सकते हैं। आज भारतीय जनतंत्र को सबसे बड़ा खतरा हिन्दू फासीवादियों की ओर से है। राहुल गांधी भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का विरोध करते हैं। पर इनके विरोध की जमीन क्या है? क्या वे कह सकते हैं कि वे ‘अज्ञेयवादी’ हैं? नहीं। इसके बदले वे खुद को शिवभक्त हिन्दू घोषित करते हैं और शिव की तस्वीर दिखाकर भाजपा व संघ को हिन्दू न होने का उलाहना देते हैं। वे अपना जनेऊ दिखाते हैं और मंदिर मंदिर मत्था टेकते हैं। मुसलमानों पर हो रहे संघी हमलों पर वे चुप रहते हैं और सामान्य प्रवचन देते हैं कि हिन्दू हिंसा नहीं करता। 
    
बात इतने तक सीमित नहीं है। पिछले तीन-चार दशकों में जो दमनकारी कानून बने हैं राहुल गांधी उनका विरोध नहीं करते। वे अपनी प्रदेश सरकार द्वारा इन दमनकारी कानूनों का इस्तेमाल नहीं रोकते। वे नहीं कहते कि ‘आधार’ के जरिये जो चौतरफा निगरानी की व्यवस्था कायम की गयी है, उसे वे समाप्त कर देंगे। वे इंदिरा गांधी के जमाने से मनमोहन सिंह तक कांग्रेसी सरकार के जनतंत्र विरोधी कुकर्मों पर कुछ नहीं बोलते जबकि हिन्दू फासीवादी लगातार इन पर कांग्रेस को घेरते हैं। वे यह कहने का साहस नहीं जुटा पाते कि सर्वोच्च न्यायालय का बाबरी मस्जिद और धारा 370 पर फैसला गलत था। 
    
वाम-उदारवादियों की सोच के विपरीत राहुल गांधी उस तरह के जनतांत्रिक व्यक्ति नहीं हैं जिनसे मजदूरों-मेहनतकशों को कोई उम्मीद हो। यह याद रखना होगा कि प्रादेशिक स्तर पर श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी परिवर्तन करने वाला पहला प्रदेश राजस्थान था जब वहां राहुल गांधी के आज बगलगीर गहलौत की सरकार थी। 
    
अब राहुल गांधी के अंबेडकरवादी होने की बात की जाये। राहुल गांधी ने आजकल ‘सामाजिक न्याय’ का झंडा बुलंद कर रखा है। उनका नारा है- ‘जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागेदारी’। यानी जातिगत समूहों को नौकरियों वगैरह में आबादी में उनके अनुपात के अनुसार हिस्सा मिलना चाहिए।
    
केवल इस आधार पर राहुल गांधी को अंबेडकरवादी कहना स्वयं अंबेडकर को बहुत सीमित करना होगा हालांकि आजकल बसपा से लेकर दलित चिंतकों तक सभी के लिए अंबेडकरवाद इतने तक सीमित होकर रह गया है। अंबेडकर दलित नेता के साथ भारतीय पूंजीपति वर्ग के सुयोग्य प्रतिनिधि थे। इसीलिए उन्हें भारतीय संविधान की मसौदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया। उस समय के समूचे पूंजीपति वर्ग की तरह अंबेडकरवादी भी सुधारवादी थे। वे क्रांति से भयभीत थे और अपने भय को उन्होंने संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में व्यक्त भी किया था। जब उन्होंने कहा कि यदि दलितों, शोषितों-वंचितों की स्थिति में सुधार नहीं किया गया तो वे उठ खड़े होंगे और इतनी मेहनत से बनाये गये संविधान को उखाड़ फेंकेगे। वर्ग-जाति व्यवस्था के खात्मे के बारे में भी वे सुधारवादी रास्ते के हामी थे। आरक्षण की व्यवस्था इसी दिशा में कदम थी।
    
फिर भी अंबेडकर के पक्ष में कहना होगा कि वे वर्ण-जाति व्यवस्था का समूल नाश करना चाहते थे और वर्ण-जाति व्यवस्था को हिन्दू समाज का अनिवार्य हिस्सा मानते थे। इसीलिए अपने अंतिम दिनों में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। वर्ण-जाति व्यवस्था पर हमला करते हुए उन्होंने हिन्दू धर्म पर कटु हमला किया। उन्होंने हिन्दू कर्म-काण्डों, देवी-देवताओं तथा विश्वासों का बहुत मजाक उड़ाया। अंबेडकरवाद की बात करने वाले यदि यह सब भुला देते हैं तो यह धोखाधड़ी होगा।
    
इसमें कोई दो राय नहीं कि राहुल गांधी इन मामलों में अंबेडकरवादी नहीं हैं। वे खुले मंचों से घोषणा नहीं करते कि वे देश में वर्ण-जाति व्यवस्था का समूल नाश चाहते हैं। वे वर्ण-जाति व्यवस्था के लिए हिन्दू धर्म को दोषी नहीं ठहराते हालांकि ऋग्वेद से लेकर गीता तक सब जगह यह दर्ज है। इसके उलट वे स्वयं को जनेऊधारी हिन्दू कहते हैं और हिन्दू धर्म को अच्छे से अच्छे रंग में पेश करने का प्रयास करते हैं। वर्ण-जाति पर उनकी सारी बात आरक्षण के आज बेहद लचर नुस्खे तक सीमित होकर रह जाती है। इस तरह ‘सामाजिक न्याय’ की उनकी सारी बात महज छलावा बन जाती है। 
    
उनका ‘समाजवादी’ होना इससे कम छलावा नहीं है। नेहरू भी खास किस्म के ‘समाजवादी’ थे। उदारीकरण के समर्थक उन्हें हमेशा ‘समाजवादी’ कह कर कोसते रहे और देश की सारी समस्याओं के लिए उनके ‘समाजवाद’ को दोषी ठहराते रहे। स्वतंत्र पार्टी से लेकर भाजपा तक इसकी लम्बी परंपरा है। 
    
नेहरू का ‘समाजवाद’ सार्वजनिक क्षेत्र की प्रधानता वाली मिश्रित अर्थव्यवस्था थी जिसका उद्देश्य था निजी पूंजी को फलने-फूलने के लिए सरकार की ओर से उपयुक्त वातावरण और संसाधन मुहैय्या कराया जाना। इसके लिए विदेशी पूंजी पर कुछ नियंत्रण तथा देशी पूंजी के लिए कुछ नियम-कानून जरूरी था। इसी को बाद में ‘लाइसेंस-परमिट राज’ के नाम से बदनाम किया गया। मजदूर-मेहनतकश जनता को इस समाजवाद में ‘कल्याण’ के कुछ टुकड़े मिलने थे। 
    
इस ‘समाजवाद’ में पूंजीपति खूब फले-फूले। टाटा-बिड़ला जैसे पूंजीपतियों की पूंजी सैकड़ों गुना बढ़ गई। अंबानी जैसे नये पूंजीपतियों की नई कतार सामने आ गई। अब इन्हीं पूंजीपतियों को अपनी पूंजी की खातिर इस ‘समाजवाद’ की जरूरत नहीं रह गई। अब वे नियम-कानूनों से स्वतंत्र खुलकर खेलना चाहते थे। उन्होंने मांग की और नरसिंहराव-मनमोहन सिंह की कांग्रेसी सरकार ने नेहरूवादी ‘समाजवाद’ को त्याग दिया। देश उदारीकरण-वैश्वीकरण की राह पर चल पड़ा। 
    
इस रास्ते पर चलते हुए देश के पूंजीपति वर्ग ने भयंकर लूटपाट मचाई है। उनकी दौलत दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ी है। उसी अनुपात में मजदूर-मेहनतकश जनता की कंगाली भी बढ़ी है। बल्कि दोनों एक ही प्रक्रिया के दो विपरीत पहलू हैं पूंजीपतियों की दौलत मजदूर-मेहनतकश जनता की कीमत पर ही बढ़ रही है। 
    
राहुल गांधी इस स्थिति से निकलने का क्या रास्ता सुझाते हैं? उनका ‘समाजवाद’ इस मामले में क्या कहता है। राहुल गांधी अंबानी-अडाणी और बीस-बाईस पूंजीपतियों पर लगातार हमला करते हैं। इसीलिए कुछ लोगों को भ्रम होता है कि वे पूंजीवाद पर हमला कर रहे हैं। पर वे उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों पर एक शब्द नहीं बोलते। वे यह नहीं कहते कि देश के पूंजीपति वर्ग ने पिछले तीस-पैंतीस सालों में जो लूटपाट मचाई है उसका कुछ हिस्सा उनकी सरकार वापस लेगी। बस वे इतना कहते हैं कि उनकी सरकार आगे और नहीं लुटायेगी। बस इतना ही है उनका ‘समाजवाद’।
    
समाजवाद का असल मतलब है समाज के सारे उत्पादन के साधनों पर समाज का या समाज की ओर से सरकार का नियंत्रण। समाजवाद से यह मतलब न तो नेहरू का था और न ही लोहिया का। यह मतलब योगेन्द्र यादव जैसे वाम-उदारवादियों का भी नहीं है। राहुल गांधी तो स्वयं को समाजवादी कहते भी नहीं। इन सारे पूंजीवादी लोगों के लिए ‘समाजवाद’ का असल मतलब होता है सरकार की ओर से बस जन कल्याण के काम। यदि कोई ठीक-ठाक ‘कल्याणकारी राज्य’ कायम हो जाये तो इनके लिए ‘समाजवाद’ आ जायेगा। 
    
पर आज क्या वैश्विक पैमाने पर उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में ‘कल्याणकारी राज्य’ की ओर कोई भी वापसी संभव है, वह भी बिना क्रांतिकारी संघर्ष के? और जब कोई राजनेता उदारीकरण-वैश्वीकरण के खिलाफ जुबानी जमा खर्च भी न कर रहा हो तब क्या कहा जाये? राहत के कुछ टुकड़े फेंक देना तो ‘कल्याणकारी राज्य’ नहीं होता। और ऐसा तो हिन्दू फासीवादी भी कर रहे हैं।
    
कुल मिलाकर यह कि वाम-उदारवादी खुशफहमी के ठीक विपरीत राहुल गांधी ‘नेहरूवादी, अंबेडकरवादी और समाजवादी’ नहीं हैं। या वाम-उदारवादियों और राहुल गांधी दोनों को छूट देते हुए कहा जा सकता है पतित पूंजीवाद के मौजूदा दौर में ऐसे ही ‘नेहरूवादी, अंबेडकरवादी और समाजवादी’ हो सकते हैं। पर मजदूरों-मेहनतकशों को भला ऐसे लोगों से कोई उम्मीद क्यों करनी चाहिए?  

आलेख

बलात्कार की घटनाओं की इतनी विशाल पैमाने पर मौजूदगी की जड़ें पूंजीवादी समाज की संस्कृति में हैं

इस बात को एक बार फिर रेखांकित करना जरूरी है कि पूंजीवादी समाज न केवल इंसानी शरीर और यौन व्यवहार को माल बना देता है बल्कि उसे कानूनी और नैतिक भी बना देता है। पूंजीवादी व्यवस्था में पगे लोगों के लिए यह सहज स्वाभाविक होता है। हां, ये कहते हैं कि किसी भी माल की तरह इसे भी खरीद-बेच के जरिए ही हासिल कर उपभोग करना चाहिए, जोर-जबर्दस्ती से नहीं। कोई अपनी इच्छा से ही अपना माल उपभोग के लिए दे दे तो कोई बात नहीं (आपसी सहमति से यौन व्यवहार)। जैसे पूंजीवाद में किसी भी अन्य माल की चोरी, डकैती या छीना-झपटी गैर-कानूनी या गलत है, वैसे ही इंसानी शरीर व इंसानी यौन-व्यवहार का भी। बस। पूंजीवाद में इस नियम और नैतिकता के हिसाब से आपसी सहमति से यौन व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफी इत्यादि सब जायज हो जाते हैं। बस जोर-जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। 

तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले

ये तीन आपराधिक कानून ना तो ‘ऐतिहासिक’ हैं और ना ही ‘क्रांतिकारी’ और न ही ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति दिलाने वाले। इसी तरह इन कानूनों से न्याय की बोझिल, थकाऊ अमानवीय प्रक्रिया से जनता को कोई राहत नहीं मिलने वाली। न्यायालय में पड़े 4-5 करोड़ लंबित मामलों से भी छुटकारा नहीं मिलने वाला। ये तो बस पुराने कानूनों की नकल होने के साथ उन्हें और क्रूर और दमनकारी बनाने वाले हैं और संविधान में जो सीमित जनवादी और नागरिक अधिकार हासिल हैं ये कानून उसे भी खत्म कर देने वाले हैं।

रूसी क्षेत्र कुर्स्क पर यूक्रेनी हमला

जेलेन्स्की हथियारों की मांग लगातार बढ़ाते जा रहे थे। अपनी हारती जा रही फौज और लोगों में व्याप्त निराशा-हताशा को दूर करने और यह दिखाने के लिए कि जेलेन्स्की की हुकूमत रूस पर आक्रमण कर सकती है, इससे साम्राज्यवादी देशों को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए अपने दावे को मजबूत करने के लिए उसने रूसी क्षेत्र पर आक्रमण और कब्जा करने का अभियान चलाया। 

पूंजीपति वर्ग की भूमिका एकदम फालतू हो जानी थी

आज की पुरातन व्यवस्था (पूंजीवादी व्यवस्था) भी भीतर से उसी तरह जर्जर है। इसकी ऊपरी मजबूती के भीतर बिल्कुल दूसरी ही स्थिति बनी हुई है। देखना केवल यह है कि कौन सा धक्का पुरातन व्यवस्था की जर्जर इमारत को ध्वस्त करने की ओर ले जाता है। हां, धक्का लगाने वालों को अपना प्रयास और तेज करना होगा।

राजनीति में बराबरी होगी तथा सामाजिक व आर्थिक जीवन में गैर बराबरी

यह देखना कोई मुश्किल नहीं है कि शोषक और शोषित दोनों पर एक साथ एक व्यक्ति एक मूल्य का उसूल लागू नहीं हो सकता। गुलाम का मूल्य उसके मालिक के बराबर नहीं हो सकता। भूदास का मूल्य सामंत के बराबर नहीं हो सकता। इसी तरह मजदूर का मूल्य पूंजीपति के बराबर नहीं हो सकता। आम तौर पर ही सम्पत्तिविहीन का मूल्य सम्पत्तिवान के बराबर नहीं हो सकता। इसे समाज में इस तरह कहा जाता है कि गरीब अमीर के बराबर नहीं हो सकता।