रूस-यूक्रेन युद्ध दो वर्ष बाद भी समाप्त होने की ओर नहीं है। युद्ध में एक बार फिर रूस को कुछ बढ़त मिलने की खबरें आ रही हैं। यूक्रेन के एक महत्वपूर्ण ठिकाने अवदिवका पर रूसी सेना ने नियंत्रण कायम कर लिया है। और यूक्रेन की फौजों को बीते कुछ महीनों में भारी नुकसान उठाना पड़ा है। कुछ विश्लेषक तो यहां तक कह रहे हैं कि अब यूक्रेनी सेना के पास लड़़ने वाले सैनिक भी काफी कम बचे हैं।
रूस-यूक्रेन युद्ध में यूक्रेन की खस्ता हालत ने उसके सहयोगी बने अमेरिकी-यूरोपीय साम्राज्यवादियों को चिंता में डाल दिया है। अमेरिकी साम्राज्यवादी जहां एक ओर यूक्रेन की मदद के लिए संसद से 60 अरब डालर की नई सैन्य सहायता पास कराने में जुटे हैं वहीं चुनावी वर्ष में फिलिस्तीनी नरसंहार व रूस-यूक्रेन युद्ध में अमेरिकी भूमिका के चलते सत्ताधारी दल को नुकसान का खतरा भी सता रहा है। खतरा यह भी सता रहा है कि राष्ट्रपति चुनाव में कहीं ट्रम्प की वापसी उनकी पहले की प्रतिबद्धताओं को पलट न दे।
इस सबके बीच धूर्त जेलेंस्की एक तरफ युद्ध में मारे गये यूक्रेनी सैनिकों की संख्या कम बताकर युद्ध में अंतिम दम तक टिके रहने का पाखण्ड कर रहा है। जहां बाकी अनुमान उसके डेढ़ लाख से ऊपर यूक्रेनी लड़ाकों के मारे जाने का दावा कर रहे हैं वहीं जेलेंस्की यह संख्या महज 30-40 हजार घोषित कर रहा है। अपने ही सैनिकों के प्रति उसका यह रुख घोर असंवेदनशीलता को दर्शाता है। दूसरी ओर जेलेंस्की ने अमेरिकी-यूरोपीय साम्राज्यवादियों से लगातार पैसा व हथियार मांगना जारी रखा हुआ है।
इन हालातों में यूरोपीय साम्राज्यवादी जो यूक्रेन युद्ध में काफी अनिच्छा से अमेरिकी पाले में खड़े हुए थे, अब अपने को फंसा हुआ महसूस कर रहे हैं। वे कभी एक बयान तो कभी दूसरा बयान जारी कर रहे हैं। हाल ही में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रां ने यहां तक बयान दे दिया कि यूरोपीय देशों ने अपने सैनिक सीधे युद्ध में उतारने का विकल्प खुला रखा है। इसके साथ ही हथियारों की नई खेप यूक्रेन को देने का भी उसने वायदा कर दिया।
बीते दिनों 26 फरवरी को यूरोपीय साम्राज्यवादी पेरिस में एक शिखर सम्मेलन में इसी मसले पर इकट्ठा हुए। जहां युद्ध में किसी भी कीमत पर रूस की जीत रोकने के उपायों पर चर्चा हुई। इन चर्चाओं में नाटो फौजों को सीधे उतारने की भी बातें हुईं। हालांकि इन चर्चाओं के अगले दिन ही जर्मनी और पौलेण्ड के नेताओं ने सीधे अपने सैनिक युद्ध में भेजने का खण्डन करते हुए कहा कि उनके देश ऐसा नहीं करेंगे। नाटो के प्रमुख ने भी सीधे अपनी सेना उतारने का खण्डन किया।
रूस ने नाटो देशों के सीधे सेना के उतारने पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि यह युद्ध का विस्तार होगा। रूस की तीखी प्रतिक्रिया पर नाटो देशों को अपनी सेना न उतारने का बयान जारी करना पड़ा। इस तरह यूरोपीय साम्राज्यवादी कभी एक तो कभी दूसरी बयानबाजी को मजबूर हो रहे हैं।
इस सबके बीच यूक्रेन को अमेरिकी सहायता को जायज ठहराने के लिए न्यूयार्क टाइम्स ने एक लेख लिखा जिसमें पहली बार यह खुलेआम स्वीकारा गया कि रूस के खिलाफ सीआईए के जासूसी और हत्या कार्यक्रमों के लिए यूक्रेन एक मूल्यवान किले के रूप में काम करता रहा है। और अमेरिका इस किले को दरकता हुआ नहीं छोड़ सकता।
वास्तविकता यही है कि यूक्रेन में लगातार अपने सैन्य अड्डे कायम करने की कोशिशों में नाटो देशों ने अरबों डालर खर्च किये हैं। उनकी यूक्रेन में इस दखलंदाजी ने ही रूस को यूक्रेन पर हमले हेतु उकसाने का कार्य किया। इस सच्चाई को अभी तक यूरोपीय-अमेरिकी साम्राज्यवादी नहीं स्वीकारते रहे हैं। वे यूक्रेन को पीड़ित देश प्रस्तुत कर उसकी मदद की अपनी जनता के सामने नौटंकी करते रहे हैं। पर अब जब युद्ध 2 वर्ष बाद भी उनके इरादों के अनुरूप रूस की हार की ओर नहीं बढ़ रहा है तो वे बौखला कर अपनी ही पोल, अपने षड्यंत्रों को खुद ही उद्घाटित कर रहे हैं। वे कभी इस युद्ध से पीछा छुड़ाने की राह देख रहे हैं तो कभी नये सिरे से रूस पर हमला बोलने के इरादे जाहिर कर रहे हैं। इस युद्ध में इनकी खुद की भूमिका को लेकर आपसी अंतरविरोध अब अधिक खुलकर सामने आ रहे हैं।
रूस-यूक्रेन युद्ध और अमेरिकी-यूरोपीय साम्राज्यवादी
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को