(13 अप्रैल 1978 का पंतनगर का गोलीकांड इस बात का गवाह है कि कैसे भारत के सार्वजनिक उपक्रमों में भी मजदूरों का निर्मम दमन-उत्पीड़न किया जाता था। कि आजाद भारत के शासक क्रूरता में ब्रिटिश हत्यारों से कहीं से कम नहीं थे।) उस समय के गवाह भू.पू. छात्र सिद्धार्थ के शब्दों में :-
‘‘भारत में इमरजेंसी का काला दौर समाप्त हो चुका था। जैसा कि हर तानाशाह के साथ होता है चुनावों के बाद इंदिरा गांधी बुरी तरह पराजित हुई और जनता दल सरकार वजूद में आई। पंतनगर 1960 में बना भारत का पहला कृषि विश्वविद्यालय था। वहां तब मजदूर एक अधिकारविहीन जीवन व्यतीत कर रहे थे, उनसे जानवरों की तरह काम लिया जाता और कोई सुविधाएं नहीं दी जाती थीं। इस माहौल में तमाम पुलिस के छोटे-बड़े पदों पर ही नहीं खुद पंतनगर विश्वविद्यालय में भी एक खास जाति के वाइस चांसलर अपनी तानाशाही चला रहे थे। वे केंद्र सरकार के बेहद ताकतवर नेता चरण सिंह के दामाद थे। जातिवाद के कीटाणु विद्यार्थी जीवन को भी सड़ा दे रहे थे।
दूसरी तरफ पंतनगर के मजदूरों में ज्यादातर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूर कार्यरत थे। ऐसे में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के का. महावीर प्रसाद कोटनाला और प्रजापति ने मजदूरों को संगठित कर आंदोलन शुरू किया। 13 अप्रैल 1978 के दिन एक मजदूर सभा मटकोटा में होनी थी और एक सभा शहीद चौराहे के निकट के एक इलाके में। शहीद चौराहा जहां आज 14 शहीद मजदूरों के नाम दर्ज हैं वहां पर पुलिस के गोलीकांड में मेरे अनुमान के अनुसार कम से कम डेढ़ सौ मजदूर मारे गए। मैं उस समय एम एस सी मृदा विज्ञान का छात्र था और चितरंजन छात्रावास में रहता था जहां पीजी स्टूडेंट रहते थे। सुबह की एक क्लास मुश्किल से हुई होगी कि हम सबको आदेश आया कि वी सी साहब का आदेश है कि सभी विद्यार्थी अपने-अपने हॉस्टलों में चले जाएं, आज विश्वविद्यालय में कोई भी कक्षा नहीं लगेगी। हॉस्टल गए तो अन्य दिनों के विपरीत वहां ताला पाया। चौकीदार से ताला खुलवा कर जब हम अपने कमरों में गए तो दोबारा हमें हॉस्टल में ताला मारकर कैद कर दिया गया। चितरंजन भवन में 456 कमरे हैं इसलिए इसे 456 के नाम से भी जाना जाता है। क्या हो रहा है यह देखने के लिए हम तमाम छात्र पहली, दूसरी, तीसरी मंजिलों पर स्थित अपने कमरों से बाहर निकल आए। हम देखते हैं कि डेढ़ सौ पुलिसवाले शहीद चौराहे पर अनुशासित ढंग से चलते हुए अहिंसक मजदूरों के जुलूस को रोक लेते हैं। तभी मानो इशारा देने के लिए एक दो फायर हवा में किए जाते हैं। उसके बाद दनादन गोलियां मजदूरों के बदन में गड़ने लगीं। जान बचा कर भागते मजदूरों का पीछा करके भी उन्हें मारा गया। बाद में छात्रों के बीच में आ जाने से पुलिस को मजबूरन फायरिंग रोकनी पड़ी। गोलियों के निशान आने वाले कई सालों तक निकट के आवासीय पक्के मकानों तक में देखे गए (1982 में लेखक ने तत्कालीन छात्र के रूप में खुद ऐसे निशान देखे थे)।
1978 में तब के टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार ने लगातार कई दिनों तक इस घटना को बड़ी कवरेज दी। फिर छात्रों और शिक्षकों ने भी वीसी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। बहती गंगा में हाथ धोने के लिए सत्ताच्युत तानाशाह इंदिरा गांधी भी पंतनगर आईं। जब वह छात्रों से मिलीं तो छात्रों ने उनका बहिष्कार किया और उन्हें राजनीति न करने और वापस चले जाने की सलाह दी। आखिरकार बड़े ही विरोध प्रदर्शनों के बाद वाइस चांसलर ने पद छोड़ने की घोषणा की। इसके बाद विश्वविद्यालय अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिया गया और सारे विद्यार्थी अपने घर चले गए। वापस आने पर पता चला कि वीसी धर्मपाल सिंह दोबारा वापस आ गए हैं। उसके बाद भी उनका विरोध होने पर अंत में उन्हें त्यागपत्र देकर जाना ही पड़ा। हत्याकांड के बाद जो जांच आयोग इस घटना की जांच के लिए नियुक्त हुआ था उसने चितरंजन भवन के सैकड़ों प्रत्यक्षदर्शी और मजदूरों को बचाने वाले छात्रों में से किसी से मिलना, उनकी गवाही लेना उचित नहीं समझा। जबकि यह छात्र ही थे जो कि शहीद चौराहे के ऐन सामने स्थित 456 हॉस्टल का ताला तोड़कर मजदूरों को बचाने के लिए सड़क पर आ गए और पुलिस को मजबूरन अपनी फायरिंग रोकनी पड़ी। मैं और मेरे साथ के साथी पुलिस का पीछा करते हैं तो देखते हैं कि जान बचा कर गन्ने के खेत में (तब छोटी मार्केट के ऐन पीछे एक गन्ने का खेत हुआ करता था) भागते मजदूरों को गन्ने के खेत में ही जीते जी आग लगा कर भून डाला गया। बाद में जब छात्रों ने अंतर्राष्ट्रीय अतिथि गृह के पास लगे पुलिस कैंपों में खोज की तो वहां कई तरह की दवाइयों के इंजेक्शन मिले। ऐसा माना जाता है कि गोलीबारी से पहले पुलिस वालों को कुछ उत्तेजक दवाइयां भी दी गईं। सारे रिकार्ड संभवतः नष्ट कर दिए गए। बाद में सीपीआई नेता प्रजापति के इस मामले से किनारा कर लेने पर न्याय के लिए स्थितियां और कठिन हो गईं।’’
ये था सिद्धार्थ का बयान।
भारत की मेहनतकश जनता के सिर पर सवार काले अंग्रेजों और उनके लगुआें-भगुओं के किए इस हत्याकांड और फिर न्याय के प्रहसन की उचित सजा सुनाएगा क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग!
(पंतनगर गोली कांड का विवरण और अन्य राजनीतिक आर्थिक परिस्थितियों के बारे में लुधियाना के पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर डां सिद्धार्थ शंकर मुखोपाध्याय से बात के आधार पर रिपोर्ट के बाद वाला हिस्सा बना है। वे गोलीकांड के समय प्रत्यक्षदर्शी थे) उमेश चंदोला एक भूतपूर्व छात्र(विश्व विद्यालय छात्र संघ सदस्य)