बिहार में नीतीश कुमार की नई सरकार ने अंततः बहुमत साबित कर दिया। इस फ्लोर टेस्ट में भारतीय राजनीति के पतन की नई इंतहा दिखाई पड़ी। खुलेआम दोनों पक्षों की ओर से ‘खेला’ होने का दावा किया गया। राजद के तेजस्वी यादव ने जद (यू)-भाजपा गठबंधन के 8 विधायक तोड़ कर ‘खेला’ होने का पूरा इंतजाम कर लिया था पर अंत में नीतीश कुमार ने राजद के 3 विधायक तोड़ सत्ता की हनक का इस्तेमाल कर खुद ‘खेला’ कर दिया व अपनी कुर्सी बचा ली।
इस ‘खेला’ करने के दावे दोनों पक्षों द्वारा इतने खुलेआम किये गये मानो दूसरे दल के विधायक खरीदने-तोड़ने का काम बेहद पवित्र काम हो। अब तक भाजपा विभिन्न राज्यों में ‘खेला’ कर अपनी विपक्षी सरकारों को गिराती रही है। अब विपक्षी भी इस ‘खेला’ करने के काम में जुट गये हैं।
तेजस्वी यादव सत्ता पक्ष के 8 विधायक तोड़ कर पहले विधानसभा अध्यक्ष अवध बिहारी चौधरी के खिलाफ पेश अविश्वास प्रस्ताव गिराने की ताक में थे। फिर इन 8 विधायकों को विधानसभा अध्यक्ष द्वारा अलग गुट की मान्यता दिला नीतीश सरकार गिराने की कोशिश कर रहे थे। गौरतलब है कि सत्ता पक्ष के पास 128 व विपक्ष के पास 114 विधायक थे। पर नीतिश कुमार ने साम-दाम-दण्ड-भेद का इस्तेमाल कर न केवल अपने 5 विधायक टूटने से बचा लिये बल्कि विपक्ष के भी 3 विधायक तोड़ लिये। विधानसभा अध्यक्ष के खिलाफ 125-112 के मतदान से अविश्वास प्रस्ताव पारित हो गया। और सरकार के फ्लोर टेस्ट के वक्त 130 मत सत्ता पक्ष के समर्थन में पड़े व विपक्ष वाक आउट कर गया।
अपनी एक टूटी विधायक बीमा भारती को अपने पाले में लाने के लिए जद (यू) ने उनके पति को आर्म्स एक्ट में गिरफ्तार तक करवा दिया। सभी पक्ष विधायकों को होटल-गेस्ट हाउस में नजरबंद करने में जुटे रहे। तेजस्वी के एक टूटे विधायक के परिजनों ने तेजस्वी के खिलाफ विधायक के अपहरण का मुकदमा तक लिखवा दिया। यानी 10 करोड़़ रु. के लालच से लेकर मुकदमे-गिरफ्तारी तक इस ‘खेला’ के मुख्य हथियार रहे।
आखिर ‘पलटूराम’ के नाम से मशहूर हो चुके नीतीश कुमार जब मुख्यमंत्री बने रहने के लिए कोई भी पलटी मारने को तैयार हों तो भला विधायक अपनी महत्वाकांक्षा के लिए पलटी क्यों न मारें। दल बदल व पाला बदलने की 14 दिन की उठा पटक ने दिखा दिया कि पूंजीवादी राजनीति किस कदर पतित हो चुकी है। यहां नीतियों-घोषणाओं-जनता से वायदों का कोई मतलब नहीं रह गया है। यहां हर कोई अपनी जान बचाने, अपनी जेब भरने, सत्ता में बने रहने के लिए बेचा-खरीदा जा रहा है। न बिकने वाले को जनता का भय रह गया है और न खरीददार को। जो पैसे से नहीं सुन रहा है उसे मुकदमे-गिरफ्तारी का भय दिखाया जा रहा है।
वैसे इस ‘खेला’ के सिद्धहस्त खिलाड़ी भारत के गृहमंत्री अमित शाह हैं जो कभी जेल जाने का भय दिखा कर तो कभी ईडी-सीबीआई के छापों का भय दिखा विपक्षी नेताओं को तोड़ने में, सरकार गिराने में पारंगत हो चुके हैं। विपक्षी दल के तेजस्वी अमित शाह की पार्टी के साथ ‘खेला’ करना चाहते थे पर ‘खेला’ उन्हीं के साथ हो गया।
भारतीय राजनीति का यह पतन पूंजीवादी मीडिया के लिए भी एजेण्डा नहीं है वह क्रिकेट मैच की तरह विधायकों की खरीद-फरोख्त को जनता के सामने परोस रहा है। वह ‘खेला’ को पूंजीवादी राजनीति की योग्यता के बतौर प्रस्तुत कर रहा है।
पूंजीवादी राजनीति में सिद्धान्तों-आदर्शों का जमाना लद चुका है, अब सत्ता हथियाने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद का जमाना आ चुका है। अब सत्ता बचाने की खातिर कोई भी खरीद-फरोख्त-भ्रष्टाचार-सरकारी एजेंसियों से लेकर ईवीएम में गड़बड़झाला सब जायज है। अमित शाह-नीतीश-तेजस्वी सब इस ‘खेला’ में एक-दूसरे को पछाड़ने में लगे हुए हैं। पूंजीवादी मीडिया इस ‘खेला’ का सजीव प्रसारण कर अपनी टी आर पी बढ़ा रहा है।
जनता यह समझने में अभी असमर्थ है कि असली ‘खेला’ तो ये नेतागण उसी के साथ कर रहे हैं। जिस दिन जनता यह समझ जायेगी सबका ‘खेला’ बिगाड़ देगी।
सत्ता का ‘खेला’
राष्ट्रीय
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