ध्रुव राठी और दिलीप मण्डल

दो करोड़ से भी अधिक बार ध्रुव राठी (जो कि एक प्रसिद्ध यू ट्यूबर हैं) के एक वीडियो ‘‘द डिक्टेटर’’ को देखा जा चुका है। ध्रुव राठी वीडियो में जब ये पूछते हैं कि क्या भारत में डेमोक्रेसी खत्म हो गयी है। यह वीडियो मोदी राज की अच्छी पोल खोलता है। बातें जानी-पहचानी हैं। ‘‘एक पार्टी एक राष्ट्र’’ ‘‘मीडिया की स्वतंत्रता का खतरे में पड़ना’’, विपक्षी पार्टियों में तोड़-फोड़, सरकारी संस्थाओं (सीबीआई, ईडी, आईटी) का दुरूपयोग, दंत विहीन चुनाव आयोग आदि के आधार पर ध्रुव राठी मोदी की तानाशाही की बात करते हैं। 
    
दिलीप मण्डल (इण्डिया टुडे, मैगजीन के डायरेक्टर व वर्तमान में दि प्रिंट के एक लेखक व समाजशास्त्री) ने इसके जवाब में कहा, ‘‘ध्रुव राठी जो भी कहें, मोदी में तानाशाह तो छोड़िए, सख्त प्रशासक के भी लक्षण नहीं हैं’’। दिलीप मण्डल ने मोदी की कमजोर नस पर हाथ रखा। अपने लेख के समर्थन में उन्होंने आठ मिसालें दीं। इनमें मोदी सरकार की ‘राष्ट्रीय न्यायिक आयोग’ की योजना का नाकाम होना; ‘किसान कानून बने पर लागू नहीं हुए; ‘जमीन अधिग्रहण में सुधार को लगा ग्रहण; ‘नागरिकता संशोधन बिल, सीएए बना पर लागू न हो सका’, ‘मंदिर वहीं बनेगा, लेकिन जब कोर्ट का आदेश होगा आदि का हवाला देते हैं। और इस तरह दिलीप मण्डल साबित करते हैं कि मोदी तानाशाह तो क्या सख्त प्रशासक भी नहीं हैं। वे एक तरह से मोदी को धिक्कारते और ललकारते हैं। 
    
अब सवाल ये है कि कौन सही है ध्रुव राठी या दिलीप मण्डल। तर्क और तथ्य दोनों के सही हैं। बस दिक्कत यह है जो ध्रुव राठी को दिखता है वह दिलीप मण्डल को नहीं दिखता और इसका उलटा भी सच है। दोनों की बातों को मिला दो तो उससे कुछ-कुछ ठीक तस्वीर बनती है। बस जो दिक्कत है वह यह कि इस बात को भुला दिया गया है कोई तानाशाह खासकर फासीवादी एकाधिकारी घरानों का चाकर मात्र होता है। जो पूरी दुनिया में राज करना चाहता है उसका असली आका कोई और होता है। 
    
थोड़ी और बहुत बड़ी दिक्कत यह है कि दोनों ही मजदूर-मेहनतकश जनता की ताकत को नहीं पहचानते हैं। जो अतीत में भी और हमारे समाज में भी कई तानाशाहों को मिट्टी में मिला चुकी है। 

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भारत और पाकिस्तान के इन चार दिनों के युद्ध की कीमत भारत और पाकिस्तान के आम मजदूरों-मेहनतकशों को चुकानी पड़ी। कई निर्दोष नागरिक पहले पहलगाम के आतंकी हमले में मारे गये और फिर इस युद्ध के कारण मारे गये। कई सिपाही-अफसर भी दोनों ओर से मारे गये। ये भी आम मेहनतकशों के ही बेटे होते हैं। दोनों ही देशों के नेताओं, पूंजीपतियों, व्यापारियों आदि के बेटे-बेटियां या तो देश के भीतर या फिर विदेशों में मौज मारते हैं। वहां आम मजदूरों-मेहनतकशों के बेटे फौज में भर्ती होकर इस तरह की लड़ाईयों में मारे जाते हैं।

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आज आम लोगों द्वारा आतंकवाद को जिस रूप में देखा जाता है वह मुख्यतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की परिघटना है यानी आतंकवादियों द्वारा आम जनता को निशाना बनाया जाना। आतंकवाद का मूल चरित्र वही रहता है यानी आतंक के जरिए अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करना। पर अब राज्य सत्ता के लोगों के बदले आम जनता को निशाना बनाया जाने लगता है जिससे समाज में दहशत कायम हो और राज्यसत्ता पर दबाव बने। राज्यसत्ता के बदले आम जनता को निशाना बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है।

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युद्ध विराम के बाद अब भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक अपनी-अपनी सफलता के और दूसरे को नुकसान पहुंचाने के दावे करने लगे। यही नहीं, सर्वदलीय बैठकों से गायब रहे मोदी, फिर राष्ट्र के संबोधन के जरिए अपनी साख को वापस कायम करने की मुहिम में जुट गए। भाजपाई-संघी अब भगवा झंडे को बगल में छुपाकर, तिरंगे झंडे के तले अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए ‘पाकिस्तान को सबक सिखा दिया’ का अभियान चलाएंगे।

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हकीकत यह है कि फासीवाद की पराजय के बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों और अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने फासीवादियों को शरण दी थी, उन्हें पाला पोसा था और फासीवादी विचारधारा को बनाये रखने और उनका इस्तेमाल करने में सक्रिय भूमिका निभायी थी। आज जब हम यूक्रेन में बंडेरा के अनुयायियों को मौजूदा जेलेन्स्की की सत्ता के इर्द गिर्द ताकतवर रूप में देखते हैं और उनका अमरीका और कनाडा सहित पश्चिमी यूरोप में स्वागत देखते हैं तो इनका फासीवाद के पोषक के रूप में चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 

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अमेरिका में इस समय यह जो हो रहा है वह भारत में पिछले 10 साल से चल रहे विश्वविद्यालय विरोधी अभियान की एक तरह से पुनरावृत्ति है। कहा जा सकता है कि इस मामले में भारत जैसे पिछड़े देश ने अमेरिका जैसे विकसित और आज दुनिया के सबसे ताकतवर देश को रास्ता दिखाया। भारत किसी और मामले में विश्व गुरू बना हो या ना बना हो, पर इस मामले में वह साम्राज्यवादी अमेरिका का गुरू जरूर बन गया है। डोनाल्ड ट्रम्प अपने मित्र मोदी के योग्य शिष्य बन गए।