2024 का वर्ष दुनिया में चुनावों का वर्ष है। करीब 70 देशों में चुनाव इस वर्ष होने हैं या हो चुके हैं। दुनिया आर्थिक संकट और राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। 2007-08 के आर्थिक संकट से अभी तक दुनिया उबरी नहीं है। कोरोना महामारी ने भी इस संकट को आगे बढ़ाया है। रूस-यूक्रेन युद्ध, इजरायल द्वारा फिलिस्तीनियों के नरसंहार और एशिया प्रशांत क्षेत्र में बड़ी शक्तियों की टकराहट ने विश्व युद्ध के खतरे को और बढ़ा दिया है। ऐसी विश्व परिस्थिति के बीच दक्षिण अफ्रीका में चुनाव हुए हैं। इस चुनाव में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस पहली बार अल्पमत में आयी है। यह सर्वविदित है कि 1994 में श्वेत रंगभेदवादी सत्ता को हराकर अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस सत्ता में आयी थी। यह लम्बे संघर्ष के बाद, भारी कुर्बानियों को देकर समझौते के जरिए सत्ता में आयी थी। इस लम्बे संघर्ष में दक्षिण अफ्रीका के मजदूर-मेहनतकश आबादी ने संघर्षों के सभी रूपों का इस्तेमाल किया था। नेल्सन मंडेला इस संघर्ष के दौरान नायक के बतौर उभरे थे।
1994 के सत्ता हस्तांतरण के बाद भी श्वेत पूंजीपतियों और साम्राज्यवादियों की लूट पूर्ववत जारी रही। संघर्ष के सालों में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस, सुधारवादी दक्षिण अफ्रीका की कम्युनिस्ट पार्टी और ट्रेड यूनियन फेडरेशन कोसाटु का त्रिपक्षीय गठबंधन जो बना था वह सत्तासीन होने के बाद जारी रहा। लम्बे संघर्ष के दौरान जो व्यापक जन समर्थन मिला था, वह सत्ता में आने के बाद भी जारी रहा। 1999 के चुनाव में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस को 70 प्रतिशत मत मिले थे।
लेकिन अधिकांश राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों की तरह ही अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस की पूंजीपरस्त नीतियों से क्रमशः मजदूर-मेहनतकश आबादी का मोहभंग होने लगा। पहले तो अश्वेत आबादी के बीच पूंजीपति नहीं थे। अश्वेत आबादी को रंगभेदवादी नीति का शिकार होना पड़ता था। अब सत्ता में आने के बाद अश्वेत आबादी में भी पूंजीपति बढ़ने लगे। सत्ता का इस्तेमाल करके, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देकर अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस से जुड़े नेताआें और समर्थकों के बीच से अश्वेत पूंजीपति और ठेकेदारों की एक अच्छी संख्या पैदा होने लगी। लेकिन अश्वेत मजदूर-मेहनतकश आबादी की स्थिति में कोई सुधार नहीं आया। इससे अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस और उसकी सत्ता के विरुद्ध लोगों का असंतोष और गुस्सा बढ़ने लगा।
मजदूर-मेहनतकश आबादी की खराब होती जा रही जीवन स्थितियां उन्हें अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस की सत्ता के विरुद्ध संघर्ष करने की ओर ले गयीं। इन संघर्षों को सत्ता ने बेरहमी से कुचला। इस दौरान अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस में भ्रष्टाचार के आरोप के चलते एक के बाद दूसरे राष्ट्रपति चुने गये। पहले 2008 में राष्ट्रपति थाबो मबेकी को पदच्युत किया गया। अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के भीतर सत्ताधारी गुटों के बीच लूट को लेकर अंतरविरोध तेज होते गये। जैकब जुमा राष्ट्रपति चुने गये। सरकारी ठेकों के जरिए भ्रष्टाचार बढ़ा। सत्ताधारी पार्टी ने फिर भ्रष्टाचार के आरोप में जैकब जुमा को भी सत्ता से हटाकर निवर्तमान राष्ट्रपति सिरिल रामफोसा को चुना। सिरिल रामफोसा पूर्व ट्रेड यूनियन नेता हैं और इस समय दक्षिण अफ्रीका के सबसे बड़े पूंजीपतियों में से एक हैं।
सिरिल रामफोसा दक्षिण अफ्रीकी राजनीति को स्वच्छ करने के वायदे के साथ सत्ता में आये थे। लेकिन सत्ता में सात साल तक रहने के बाद स्थिति बद से बदतर होती गयी है। इसका कारण भी स्पष्ट है। वे एकाधिकारी पूंजी और साम्राज्यवादियों की लूट को खत्म नहीं कर सकते। वे ‘टेण्डर प्रेन्योर’ (सत्ता से जुड़े लोगों द्वारा ठेके लेने वालों के लिए दक्षिण अफ्रीकी शब्द) और भ्रष्ट मुनाफाखोरों पर लगाम नहीं लगा सकते क्योंकि वे उनकी सत्ताधारी पार्टी का आधार हैं। ऐसी स्थिति में दक्षिण अफ्रीकी मजदूर-मेहनतकश आबादी की स्थिति और ज्यादा खराब होती गयी है।
मौजूदा चुनाव में भाग लेने वाली चार प्रमुख पार्टियां हैं। पहली, अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस है जिसे 40 प्रतिशत मत मिले हैं। अभी भी वह सबसे बड़ी पार्टी है लेकिन वह अल्पमत में है। वह अकेले अपने दम पर सरकार नहीं बना सकती। दूसरी मुख्य विपक्षी पार्टी डेमोक्रेटिक एलांयस है। यह अमरीकी साम्राज्यवाद की समर्थक, निजीकरण की पक्षधर दक्षिणपंथी पार्टी है। इस पार्टी को लगभग 21 प्रतिशत मत मिले हैं। तीसरी, पूर्व राष्ट्रपति जैकब जुमा की पार्टी एम.के. है। इसने अपना नाम उमकोंटो वी सिजबे (एम.के.) रखा है जिसका जुलू भाषा में अर्थ है ‘राष्ट्र का भाला’। इस पार्टी का हाल में ही गठन किया गया है और इसने अपना नाम अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस की सशस्त्र शाखा के नाम पर रखा है जिसके निर्माण में वे भागीदार रहे हैं। चौथी, ई.एफ.एफ. (आर्थिक स्वतंत्रता सेनानी) नाम की पार्टी है जिसके नेता जूलियस मालेमा हैं। यह ज्ञात हो कि मरिकाना में खदान श्रमिकों के 2012 में हुए नरसंहार के बाद यह एक वामपंथी पार्टी के रूप में उभरी थी। खदान श्रमिकों के नरसंहार का समर्थन जुमा और रामफोसा दोनों ने किया था। इस पार्टी का गठन 2013 में किया गया था। इसके पहले जूलियस मालेमा अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस की युवा शक्ति के नेता थे। इस पार्टी ने अपने वामपंथी तेवरों के चलते मजदूरों और युवा लोगों को आकर्षित किया था। इस पार्टी को इस चुनाव में 9.5 प्रतिशत मत मिले।
इस तरह हम देख सकते हैं कि जैकब जुमा की एम.के. पार्टी और मालेमा की ई.एफ.एफ. दोनों ही अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस से अलग होकर निकली हैं। वैसे ई.एफ.एफ. अपनी पहचान एक मार्क्सवादी संगठन के बतौर करता है, लेकिन यह अश्वेत पूंजीपतियों और व्यापारियों के बीच अपने आधार को बढ़ाने की कोशिश करता है।
जहां ये पार्टियां आपस में प्रतिद्वन्द्विता में लगी हैं और अश्वेत पूंजीपतियों और व्यापारियों से समर्थन जुटाने के लिए होड़ कर रही हैं, वहीं मजदूर-मेहनतकश आबादी की जिंदगी उन्हें संघर्ष में उतरने के लिए विवश कर रही है।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि दक्षिण अफ्रीका, अफ्रीका की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था होने के बावजूद 2008 की मंदी से उबर नहीं पायी है। प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 2009 की तुलना में कम है। बेरोजगारी लगभग 35 प्रतिशत तक बढ़ गयी है। परिवहन और ऊर्जा का बुनियादी ढांचा चरमरा रहा है। उच्च मुद्रास्फीति मजदूरों-मेहनतकशों के वेतन को जीने लायक नहीं रहने दे रही है।
यह एक वास्तविकता है कि अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद लोगों की आमदनी के बीच असमानता में बढ़ोत्तरी हुई है। दक्षिण अफ्रीका दुनिया के सबसे असमान आमदनी वाले देशों में एक है। एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘‘ऊपरी एक फीसदी आबादी के लोग 20 प्रतिशत आमदनी ले जाते हैं जबकि दक्षिण अफ्रीका की 90 प्रतिशत आबादी लगभग 35 प्रतिशत आमदनी पर गुजारा करती है।
रंगभेदवादी सत्ता हटने के बाद भी श्वेत लोगों को अभी भी अश्वेत लोगों की तुलना में काम (बेहतर वेतन वाला काम) मिलने की अधिक संभावना है। महिलायें पुरुषों की तुलना में लगभग 30 प्रतिशत कम कमाती हैं। शहरी मजदूर ग्रामीण इलाकों में रहने वालों की तुलना में लगभग दो गुना कमाते हैं। अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस की सरकार न सिर्फ मजदूर वर्ग बल्कि मध्यम वर्ग के कुछ हिस्सों में जीवनयापन की तेजी से बढ़ती हुई लागत के संकट का समाधान प्रस्तुत करने में एकदम असमर्थ है।
ऐसी हालत में लोगों की बैचेनी, असंतोष और गुस्सा बढ़ता गया है। जहां मतदान के प्रतिशत में गिरावट इस असंतोष की एक अभिव्यक्ति है, वहीं विश्वविद्यालय परिसरों में फीस को कम करने के लिए आंदोलन, औद्योगिक धातु क्षेत्र, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र और सार्वजनिक शिक्षा क्षेत्र में अचानक अघोषित हड़तालें इस गुस्से की अभिव्यक्ति हैं।
मजदूर-मेहनतकश आबादी की इस बैचेनी और गुस्से का समाधान अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस और इन पूंजीवादी पार्टियों के पास नहीं है। वे इनकी बैचेनी और गुस्से में कुछ ठंडा पानी डाल सकती हैं, अन्यथा इनके पास बर्बर दमन का हथियार तो हमेशा से मौजूद है।
दक्षिण अफ्रीका में शासक वर्ग के बीच के अंतरविरोध तीव्र हैं लेकिन इनका मजदूर-मेहनतकश आबादी के साथ बुनियादी अंतरविरोध तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा है। विभिन्न साम्राज्यवादी शक्तियां भी इसमें फायदा उठाने की कोशिश कर रही हैं।
अकेले अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस सरकार का गठन नहीं कर सकती। उसे किसी न किसी तरह के गठबंधन की ओर जाना होगा। वह डेमोक्रेटिक एलायंस के साथ गठबंधन नहीं बनाना चाहेगी। ऐसी स्थिति में वह राष्ट्रीय सरकार बनाने की ओर जा सकती है।
लेकिन राष्ट्रीय सरकार का गठन भी दक्षिण अफ्रीका की व्यापक आबादी की बुनियादी समस्याओं का कोई समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकता। यह सिर्फ उसे टालने का तात्कालिक कदम होगा।
देर-सबेर मजदूर-मेहनतकश आबादी इन धोखेबाजों से मुक्त होकर अपनी मुक्ति का रास्ता तलाशने की ओर बढ़ेगी।
दक्षिण अफ्रीका के चुनाव में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस अल्पमत में
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को