भारत में, मई 2014 से ही मोदी-शाह की अगुवाई में संघ परिवार सत्ता पर काबिज है। इन हिंदू फासीवादियों ने अपने फासीवादी एजेंडे के अनुरूप समाज और संस्थाओं को काफी हद तक ढाला है। सवाल यह है कि भारत में जो घोर जनविरोधी फासीवादी आंदोलन इतना ताकतवर दिखता है क्या यह मात्र भारत के भीतर घटने वाली घटना है? कई लोग ऐसे हैं जो ऐसा ही सोचते हैं व यह भी मानते हैं कि फ्रांस, अमेरिका, जर्मनी, फ़िनलैंड आदि जैसे देशों में इस तरह की दक्षिणपंथी फासीवादी राजनीति के लिए गुंजाइश नहीं है। हकीकत यह है कि दक्षिणपंथी फासीवादी उभार स्थानीय या देशज नहीं बल्कि दुनिया की परिघटना है।
दूसरे विश्व युद्ध के दौर में फासीवादी नाजीवादी ताकतों को पराजित कर दिया गया था। लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के बाद आज दुनिया में फिर से दक्षिणपंथी और फासीवादी ताकतों की भरमार है। यह जमाना धुर दक्षिणपंथी नव नाजीवादी तथा नव फासीवादी नेताओं, संगठनों और पार्टियों के उभार का है।
भारत में मोदी, तुर्की में एर्दोगन, ब्राज़ील में बोलसेनारो हैं तो वहीं अमेरिका में ट्रम्प, फ्रांस में मेरीन ली पेन, इटली में ज्योर्जिया मेलोनी और इजरायल में बेंजामिन नेतान्याहू और आस्ट्रिया में जॉर्ग हैदर हैं जो आज के दौर के धुर दक्षिणपंथी या फासीवादी नेता हैं जिनके पीछे फासीवादी तत्वों का भारी जमावड़ा है। इनके अलावा भी कई फासीवादी संगठन और समूह हैं। ये सभी अपने-अपने देशों में जनवाद विरोधी फासीवादी आंदोलन को लगातार आगे बढ़ा रहे हैं।
यह फासीवादी या धुर दक्षिणपंथी उभार जनता के एक हिस्से विशेषकर मध्यम वर्ग और छोटी-मझौली पूंजी व संपत्ति के तबाह-बर्बाद होते लोगों को अपने पीछे गोलबंद करते हुए लगातार आगे बढ़ रहा है। यह जनता के बीच पूर्वाग्रहों, असन्तोष व आक्रोश को भुनाकर व इस्तेमाल करके अपनी ताकत बढ़ा रहा है। जहां-जहां भी ऐसी ताकतें सत्ता में हैं वहां वे संसदीय लोकतंत्र को खोखला कर रही हैं, ध्रुवीकरण को तेज करके निरंकुशता की ओर बढ़ रही हैं। आज स्थिति यह भी है हर जगह विपक्ष के रूप में दिख रही उदार पूंजीवादी पार्टियां और सुधारवादी कम्युनिस्ट या सामाजिक जनवादी पार्टियां भी कम या ज्यादा दक्षिण की ओर ढुलक चुकी हैं।
इन फासीवादी संगठनों व पार्टियों तथा इनके नेताओं के नारों, राजनीति और विचारों में काफी कुछ चीजें एक जैसी हैं तो कुछ चीजें अलग भी हैं। सभी में अपने-अपने देशों या राष्ट्रों के हिसाब से कुछ बातें, कुछ नारे अलग भी हैं।
भारत में मोदी, भाजपा और संघ के लिए हिंदू धर्म व इससे जुड़ी चीजें ध्रुवीकरण का हथियार हैं। यह मुस्लिम विरोधी, ईसाई विरोधी, दलित आदिवासी विरोधी हैं। इनका मकसद देश को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाना हैं। इसका नारा ‘अखंड और बृहत्तर भारत’ है। इन्होंने बेरोजगारी व हर सामाजिक समस्या के लिए फर्जी दुश्मन के रूप में मुख्यतः मुस्लिमों को स्थापित किया है। वहीं तुर्की में एर्दोगन और इनकी पार्टी ‘न्याय और विकास’ है जो ‘इस्लामिक राष्ट्र’ के नारे के साथ सामाजिक ध्रुवीकरण कर रही है। इनका मकसद देश को ‘इस्लामिक राष्ट्र’ बनाना है। ‘न्यू इंडिया’ की ही तरह ‘न्यू तुर्की’ इनका नारा है।
इजरायल में लिकुड पार्टी और इसके नेता बेंजामिन नेतान्याहू जियनवादी विचारों से लैस हैं। यहां अन्य दक्षिणपंथी पार्टियों से मिलकर नेतान्याहू ने सरकार बनायी है। ‘यहूदी राष्ट्र’ के नाम पर यहां के दक्षिणपंथी और फासीवादी शासकों ने फिलिस्तीन को लगभग हड़प लिया है। फिलिस्तीनी जनता के विरोध का बर्बर पाशविक दमन किया है।
यूरोप के अधिकांश देशों में दक्षिणपंथी फासीवादी ताकतें निरंतर सक्रिय हैं। जर्मनी, फ्रांस ब्रिटेन ही नहीं बल्कि स्वीडन, डेनमार्क, बेल्जियम, फिनलैंड जैसे देशों में भी फासीवादी ताकतों का सामाजिक आधार बढ़ता जा रहा है। अधिकांश आम तौर पर अप्रवासी विरोधी, इस्लाम विरोधी, शरणार्थी विरोधी हैं।
यहां इटली में धुर दक्षिणपंथी ज्योर्जिया मेलोनी प्रधानमंत्री के पद पर हैं। इसकी पार्टी ब्रदर्स आफ इटली को चुनाव में 26 प्रतिशत मत मिले। इसने अन्य दक्षिणपंथी पार्टियों के साथ गठबंधन सरकार बनायी है। यह पार्टी नेशनल अलायन्स जैसी फासिस्ट पार्टी से बनी है जो कि 1945 से 1995 तक इटालियन सोशलिस्ट मूवमेंट नाम की फासिस्ट पार्टी की निरंतरता से 1995 में बनी थी। इसका नारा है ‘ईश्वर, मातृभूमि और परिवार’। यहां ‘ईश्वर’ का मतलब कैथोलिक ईसाई धर्म की श्रेष्ठता और एकमात्र इसी के ‘अधिकार’ के योग्य होने का दावा है। यही नारा मुसोलिनी की पार्टी का भी था। यह घोर अप्रवासी कामगार विरोधी, समलैंगिक और एल जी बी टी समुदाय विरोधी भी है।
जर्मनी में एन पी डी ( जर्मनी की जनवादी पार्टी) तथा ए एफ डी (जर्मनी के लिए विकल्प) पार्टी मुख्य रूप से नव नाजीवादी या फासीवादी हैं। एन पी डी ‘यहूदी विरोधी’ ‘यूरोपीय यूनियन’ विरोधी है। ये दूसरे विश्व युद्ध से पहले के उस ‘जर्मन साम्राज्य’ को पुनः कायम करना चाहते हैं जिसे हिटलर की अगुवाई में जर्मन नाजीवादियों ने कई देशों पर कब्जा करके बनाया था। इनका सामाजिक आधार अभी बेहद सीमित है। दूसरी ओर ए एफ डी ‘जर्मन राष्ट्र’ का नारा उछालती है और यह ‘अप्रवासी विरोधी’, ‘इस्लाम विरोधी’, ‘यूरोपीय यूनियन विरोधी’ और ‘नस्लवादी’ है। जर्मन संसद में इसके 78 सांसद (735 में से) हैं।
ब्रिटेन में 70 के दशक से नेशनल फ्रंट नाम का धुर दक्षिणपंथी संगठन काम कर रहा था। अस्सी के दशक में न्यू नेशनल फ्रंट फासीवादी संगठन बना जो बाद में ब्रिटिश नेशनलिस्ट पार्टी बन गया। नब्बे के दशक में दक्षिणपंथी पार्टी- यू के इंडिपेंडेंस पार्टी बनी। उद्योगपति पॉल साइस ने इस दक्षिणपंथी पार्टी को 2014 के चुनाव प्रचार के लिए 10 लाख यूरो से ज्यादा का चंदा दिया। कुछ बड़े मीडिया हाउसों ने इसे भरपूर समर्थन दिया। 2014-15 के वक्त ही इसे यूरोपीय यूनियन तथा ब्रिटिश संसद के चुनाव में सबसे ज्यादा सफलता मिली। यह यूरोपीय यूनियन विरोधी, इस्लाम विरोधी, बहुल संस्कृति विरोधी तथा रंग और नस्लभेदी है। यह लोकलुभावन नारे जैसे ‘टैक्स में कटौती’ पेश करती है। इस दौरान ब्रिटेन के यूरोपीय यूनियन से बाहर होने में इसकी भूमिका भी रही। इसके नेता नाइजेल फैरेज ने फिर दक्षिणपंथी ब्रेक्जिट पार्टी बना ली।
फ्रांस जैसा 1789 और फिर बाद में क्रांतियों से गुजरने वाला देश भी इससे अछूता नहीं है। 1970 के दशक में जीन मेरीन ली पेन ने दक्षिणपंथी नेशनल फ्रंट को स्थापित किया। इसके अलावा और भी समूह बने। नेशनल फ्रंट भी अपने आधार का विस्तार तभी कर पाया जब समाज आर्थिक सामाजिक संकट से गुजर रहा था। 2014-15 तक आते-आते यह बड़ी राजनीतिक ताकत बन गयी। जीन मेरीन ली पेन की बेटी मेरीन ली पेन अब तक पार्टी की मुखिया बन चुकी थी। 2018 में नेशनल फ्रंट का नाम नेशनल रैली हो गया। 2022 के राष्ट्रपति के चुनाव में 42 प्रतिशत वोट के साथ मेरीन ली पेन दूसरे नं. पर रही। नेशनल रैली सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है। यह भी अप्रवासी विरोधी है, यहूदी विरोधी है और यूरोपीय यूनियन में सुधार के साथ ही नाटो के कमांड स्तर से फ्रांस को बाहर कर लेने की बात करती है।
साम्राज्यवादी अमेरिका में ट्रम्प और इसके फासीवादी गिरोह के अलावा और भी समूह हैं। इसमें कू-क्लक्स-क्लान पिछले कई दशकों से बना हुआ है इसी तरह के कई अन्य संगठन भी हैं। कू-क्लक्स-क्लान नस्लवादी है श्वेत श्रेष्ठता और श्वेत राष्ट्रवाद की बात करता है जबकि अश्वेत और सभी अप्रवासियों का विरोधी है, यहूदी विरोधी है। यह समूह कम्युनिस्टों समेत कई की हत्या कर चुका है।
इस तरह देखें तो आज दक्षिणपंथी फासीवादी गिरोह, संगठनों और पार्टियों का उभार वैश्विक स्तर पर है। इन सभी में एक बात समान है सभी समानता या बराबरी, बंधुत्व, मानव अधिकारों और समाजवाद तथा साम्यवाद के विरोधी हैं। ये सभी जनवाद, जनवादी मूल्यों और संसदीय जनतंत्र के विरोधी हैं।
इस उभार को दुनिया भर में अलग-अलग देशों की अर्थव्यवस्थाओं के एक-दूसरे से जुड़ाव, इसके ठहराव और संकट के साथ ही इससे उपजे सामाजिक संकट को केंद्र में रखकर ही समझा जा सकता है।
पहले विश्व युद्ध से पहले के दौर का तीखा आर्थिक-सामाजिक संकट फिर विश्व युद्ध तथा समाजवादी क्रांति का खतरा और फिर 1929 की महामंदी के दौर को देखें। यही दौर फासीवाद और नाजीवाद के उभार और व्यापक होने का काल है। पहले इटली में मुसोलिनी की अगुवाई में फासीवादी निजाम कायम होता है। इसके बाद महामंदी में जब भयानक बेरोजगारी, छंटनी और महंगाई छाई हुई थी और मजदूर-किसान संगठित थे, समाजवादी क्रांति का खतरा सामने था तब इटली की तरह जर्मनी के एकाधिकारी पूंजीपतियों ने नाजीवादी हिटलर को सत्तासीन करवा दिया। हिटलर के नाजीवादी राज्य में यातना कैम्पों, गैस चैंबरों, जबरन श्रम कैम्पों में बर्बरता की हदें पार की गईं।
हिटलर और इसकी सेना को अन्ततः दूसरे विश्व युद्ध में सोवियत संघ की लाल सेना ने अकूत कुर्बानियां देकर पराजित किया। दूसरे विश्व युद्ध के खत्म होने के साथ ही फासीवाद और नाजीवाद खत्म हुआ। मगर ब्रिटिश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने कई फासीवादियों व नाजीवादियों को सजा होने से बचा लिया। जर्मनी में लाखों यहूदियों, कम्युनिस्टों, मजदूरों आदि के साथ जो भांति-भांति के तरीकों से भयानक बर्बरता और कत्लेआम किया गया था, लाल सेना ने जर्मनी में अलग-अलग जगहों पर बने यातना गृहों, गैस चैंबरों के जरिये इसे दुनिया भर में उजागर कर दिया। अब फासीवादियों के खिलाफ भयानक नफरत समाज में थी।
इस दौर के बाद दो दशक तक पूंजीवाद का शांतिपूर्ण और तेज विकास का दौर रहा। मगर 1970 तक आते-आते दुनिया के स्तर पर पूंजीवाद फिर से संकट में फंस गया। अर्थव्यवस्था ठहराव का शिकार हो गयी। इसने पुनः बेरोजगारी, महंगाई, छंटनी और आर्थिक बर्बादी से असुरक्षा, अवसाद, अनिश्चितता के रूप में सामाजिक संकट को बढ़ाया। इसके चलते इस दौर में फिर से फासीवाद या फासीवादी ताकतों को आगे बढ़ सकने के लिए खाद-पानी मिल गया। इसी दौर में यूरोप में दक्षिणपंथी व फासीवादी ताकतें आगे बढ़ने लगीं। पूंजीपति वर्ग का इन्हें समर्थन मिलने लगा।
अभी भी यह दौर आर्थिक ठहराव का था। इससे उबरने के लिए साम्राज्यवादी शासकों ने ‘निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण’ की नीतियों को अपने देशों के भीतर लागू करना शुरू कर दिया और दुनिया के बाकी देशों पर इसे लागू करने का दबाव डाला। भारत समेत तमाम देशों के शासक पूंजीपतियों ने भी अपने-अपने फायदे के हिसाब से समझौता कर लिया। दुनिया भर में ये नीतियां लागू हो गयीं। सभी देशों की अर्थव्यवस्थाएं एक-दूसरे से जुड़ गईं। इन नीतियों के जरिये शासक पूंजीपति वर्ग ने संकट के बोझ को जनता के कंधों पर डालकर मुनाफा बटोरा।
साम्राज्यवादी पूंजीवादी शासकों की यह कारगुजारी संकट को हल नहीं कर सकती थी। इसने अपनी बारी में बड़े संकट की ओर दुनिया को धकेल दिया। 2007-08 में भीषण आर्थिक संकट फूट पड़ा। अमेरिका समेत यूरोप और कई देशों में इसका ज्यादा गहरा असर पड़ा। दुनिया भर में ‘घाटा सार्वजनिक-मुनाफा निजी’ की तर्ज पर हजारों खरब डॉलर का राहत पैकेज देकर पूंजीपति वर्ग को उसकी सरकार ने बचा लिया। मगर इस संकट के इलाज के लिए एल.पी.जी. की उन्हीं नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाया गया जिसने संकट को गहराने की ओर धकेला था।
इस संकट के काल में आर्थिक संकट गहराने के साथ ही सामाजिक संकट भी तीखा हुआ। मध्यम वर्ग एवं छोटी-मझौली संपत्ति की भारी बर्बादी, मजदूरों-कामगारों की भारी छंटनी हुई। भारी बेरोजगारी, गरीबी, भयानक असमानता की स्थिति समाज में बनी तो जनता का असंतोष-आक्रोश भी तीखा हुआ। जहां यूरोप में ‘कटौती कार्यक्रम’ का भारी विरोध हुआ तो वहीं दुनिया के बाकी देशों में भी अपनी तबाही-बर्बादी के खिलाफ तीखे जनसंघर्ष दिखे हैं।
इन बीते 4-5 दशकों में पुरानी पार्टियां और ज्यादा दमनकारी और ज्यादा जनविरोधी होती गयीं। इससे पुरानी पार्टियों से जनता का मोह भंग हुआ। अलग-अलग पूंजीवादी पार्टियों के बीच अंतर मिटता गया। इन सभी पार्टियों में आर्थिक नीतियों के मामले में कोई अंतर नहीं रह गया।
यह स्थिति समाजवादी क्रांति और फासीवाद (प्रतिक्रांति) दोनों के लिए ही बेहद मुफीद थी। इस दौर में एक ओर अरब स्प्रिंग के रूप में जनता के विस्फोटक आंदोलन हुए तो दूसरी तरफ क्रांतिकारी आंदोलन की बेहद कमजोर स्थिति में, दक्षिणपंथी फासीवादी ताकतें वित्त पूंजीपतियों के समर्थन से कई देशों में तबाह-बर्बाद होती असंतुष्ट और आक्रोशित जनता को अपनी लफ्फाजी और एजेन्डे के इर्द गिर्द लामबंद करने में सफल रहीं। इसने अपना विस्तार किया और कुछ देशों में शासक एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग के खुले सहयोग से ही सत्ता पर पहुंच गयीं।
आज दुनिया भर में मजदूर वर्ग के आंदोलन बेहद कमजोर हैं। समाजवादी क्रांति का हाल फिलहाल शासकों के सामने खतरा मौजूद नहीं है। इसके बावजूद फासीवादी ताकतों को एकाधिकारी पूंजी के मालिक हर तरह से समर्थन और खुला सहयोग कर रहे हैं, सत्तासीन करवा रहे हैं। इस तरह, एक ओर तो, ये गहराते आर्थिक संकट का सारा बोझ मजदूर-मेहनतकश जनता के कंधों पर डालने में सफल हो रहे हैं तो दूसरी ओर जनसंघर्षों की धार को कुंद करने, इसे बिखराने और बांटने में सफल हो रहे हैं।
कोरोना काल के लॉकडाउन में दुनिया में शासकों का निरंकुश व्यवहार, मनमर्जी साफ दिखी। इस काल में अर्थव्यवस्थाएं रसातल में ही पहुंच गईं। आर्थिक-सामाजिक संकट और भीषण हो गया। यह घोर जनविरोधी ‘कटौती कार्यक्रम’ या ‘नई आर्थिक नीतियों’ को तेजी से जनता पर थोप देने का अवसर बन गया। वेतन, पेंशन में कटौती, सामाजिक सुविधाओं में कटौती करने; निजीकरण, घोर जनविरोधी श्रम-सेवा और कृषि सुधार की ओर तेजी से बढ़ने; पूंजी को भरपूर लूट-खसोट के मौके उपलब्ध कराने का यह अवसर था।
इसके चलते भारी असमानता, गरीबी, भारी बेरोजगारी, भयानक असुरक्षा और अनिश्चितता का माहौल बना है। इस स्थिति में फासीवादी हर जगह फर्जी दुश्मन और फर्जी समाधान पेश करके ताकत बढ़ाने में सफल हो रहे हैं। इटली, फ्रांस, स्पेन, स्वीडन, हंगरी, इजरायल व अन्य देशों में चुनावों में धुर दक्षिणपंथी या फासीवादी उभार साफ साफ दिखा है।
आज शासक एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग जानता है कि स्थिति विस्फोटक है, जनता असंतुष्ट और आक्रोशित है साथ ही शासकों की नग्न लूट-खसोट और दक्षिणपंथी दिशा से समाज में भांति-भांति के अंतर्विरोध तीखे हो रहे हैं कि यह स्थिति क्रांति को जन्म दे सकती है। शासकों की नज़र में क्रांति दूर भविष्य की नहीं बल्कि बिल्कुल निकट की बात है इसलिए भी वे फासीवादी ताकतों को आगे कर रहे हैं।
जिस तरह भारत में कांग्रेस, भाजपा, सरकारी वाम तथा आम आदमी पार्टी व अन्य सभी क्षेत्रीय पार्टियों में एल.पी.जी. यानी नई आर्थिक नीतियों को लागू करने या ना करने के मामले में कोई मतभेद नहीं है बल्कि सभी इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ा रही है। ये सभी भी दमनकारी, भ्रष्ट और जनविरोधी रही हैं। दक्षिणपंथ की ओर ढुलक चुकी हैं। आम तौर पर इनके और विशेषकर कांग्रेस के इसी रुख और आचरण ने भी जनता को हिंदू फासीवादियों की ओर धकेला है। यही स्थिति दुनिया में संसदीय जनतंत्र वाले देशों में है या यह कहना ज्यादा सही है कि विपक्षी पार्टियों की इस तरह की स्थिति, जो दुनिया में है वही भारत में भी है।
इसलिए फासीवाद को विपक्षी पार्टियों के भरोसे नहीं हराया जा सकता है। चुनावी रणकौशल से इन्हें मात नहीं दी जा सकती। एक चुनाव हार जाने या विपक्ष के जीत जाने से थोड़ी सी राहत जरूर मिल सकती है मगर यह फासीवाद से मुक्ति नहीं दिला सकता। क्योंकि इसकी जड़ें पूंजीवादी व्यवस्था में हैं, इससे पैदा होने वाले आर्थिक सामाजिक संकटों में हैं, घोर जनविरोधी पतित एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग की मुनाफे की अकूत हवस में है।
फासीवाद को केवल उसी क्रांतिकारी रणनीति और रणकौशल से मात दी जा सकती है जैसा कि इतिहास में 1930-40 के दशक में फासीवाद के खिलाफ अपनाया गया था। जैसा कि कहा गया है फासीवाद मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता का सबसे खतरनाक शत्रु है। इसी मजदूर वर्ग को क्रांतिकारी राजनीति पर एकजुट करते हुए इसकी अगुवाई में शेष मेहनतकश जनसमुदाय की व्यापक एकजुटता और संघर्ष तथा इसी के दम पर हर फासीवाद विरोधी ताकतों का व्यापक मोर्चा बनाकर ही फासीवाद को मात दी जा सकती है। यह सब हो सके इसके लिए यह भी जरूरी है कि फासीवादियों के हर फासीवादी कदम का विरोध करते हुए यह गोलबंदी की जाय।
दुनिया : दक्षिणपंथी और फासीवादी उभार
राष्ट्रीय
आलेख
आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था।
ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।
ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।
7 नवम्बर : महान सोवियत समाजवादी क्रांति के अवसर पर
अमरीकी साम्राज्यवादियों के सक्रिय सहयोग और समर्थन से इजरायल द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान में नरसंहार के एक साल पूरे हो गये हैं। इस दौरान गाजा पट्टी के हर पचासवें व्यक्ति को