ग्रीस में आम हड़ताल

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20 नवंबर को ग्रीस में सरकारी और निजी क्षेत्र के कर्मचारियों और मजदूरों ने 24 घंटे की आम हड़ताल कर अपने वेतन को बढ़ाने की मांग की। यह हड़ताल उस समय आयोजित की गयी है जब ग्रीस की सरकार संसद में बजट पेश करने जा रही थी। हड़ताली कर्मचारियों की मांग सामूहिक समझौतों को भी लागू करने की है।
    
इस हड़ताल में नाविकों के साथ बस, मेट्रो, ट्रेन और ट्रामों के कर्मचारी, अध्यापक, स्वास्थ्य क्षेत्र के कर्मचारी, न्यायालय के कर्मचारी आदि शामिल रहे।
    
ग्रीस के 70 से अधिक शहरों में सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्र के कर्मचारी हड़ताल के लिए इस दिन सड़कों पर उतरे। स्वास्थ्यकर्मियों की इन प्रदर्शनों में विशेष भूमिका रही।
    
ज्ञात हो कि ग्रीस में इस साल के शुरुवात से ही कई बार प्रदर्शन हो चुके हैं। इस आम हड़ताल के दौरान राजधानी एथेन्स में जहां 15,000 लोग शामिल रहे वहीं ग्रीस के दूसरे महत्वपूर्ण शहर थेलेंसिकी में भी 4000 मजदूरों ने आम हड़ताल के दौरान प्रदर्शन में हिस्सा लिया।
    
वर्षों पूर्व वाम दलों की सीरिजा के द्वारा कटौती कार्यक्रम लागू कर मजदूर वर्ग से जो गद्दारी की गयी, उसके बाद से ग्रीस में मजदूर आंदोलन गिरती पर गया था। पर बीते 2 वर्षों से मजदूरों के नये संगठन-नयी लामबंदियां ग्रीस में उभर रही हैं। यह हड़ताल इन नयी लामबंदियों की भागीदारी के कारण काफी असरदार रही। इस हड़ताल में जगह-जगह फिलिस्तीन के लहराते झण्डे मजदूरों की फिलिस्तीनी अवाम से एकजुटता को दिखा रहे थे। 
    
ग्रीस की अर्थव्यवस्था में इस वर्ष 2.3 प्रतिशत वृद्धि की संभावना है पर यह वृद्धि अधिकतर पूंजीपतियों-बैंकरों के हिस्से में जा रही है। मजदूर-मेहनतकशों के वेतन में बढ़ती महंगाई के बीच कोई सुधार नहीं हो रहा है। न्यू डेमोक्रेसी की टोरी सरकार मजदूरों पर लगातार हमलावर बनी हुई है।
    
2010 के बाद ग्रीस की अर्थव्यवस्था में जो गिरावट आयी थी वह ठीक नहीं हो पायी है। बेल आउट पैकेज पाने के लिए जो कदम ग्रीस में उठाये गये उन्होंने जनता की क्रय शक्ति को काफी निचोड़ दिया है। महंगाई काफी बढ़ चुकी है। लेकिन वेतन में उस अनुरूप वृद्धि नहीं हुई है। न केवल खाने की कीमतें बढ़ी हैं वरन घरों की कीमतें भी काफी बढ़ गयी हैं। खासकर ग्रीस की राजधानी एथेन्स में तो घरों की बढ़ती कीमतों से लोगों में खासी नाराजगी है।

आलेख

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इजरायल की यहूदी नस्लवादी हुकूमत और उसके अंदर धुर दक्षिणपंथी ताकतें गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों का सफाया करना चाहती हैं। उनके इस अभियान में हमास और अन्य प्रतिरोध संगठन सबसे बड़ी बाधा हैं। वे स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए अपना संघर्ष चला रहे हैं। इजरायल की ये धुर दक्षिणपंथी ताकतें यह कह रही हैं कि गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को स्वतः ही बाहर जाने के लिए कहा जायेगा। नेतन्याहू और धुर दक्षिणपंथी इस मामले में एक हैं कि वे गाजापट्टी से फिलिस्तीनियों को बाहर करना चाहते हैं और इसीलिए वे नरसंहार और व्यापक विनाश का अभियान चला रहे हैं। 

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कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे लायक होते हैं। इसी का दूसरा रूप यह है कि लोगों के वैसे ही नायक होते हैं जैसा कि लोग खुद होते हैं। लोग भीतर से जैसे होते हैं, उनका नायक बाहर से वैसा ही होता है। इंसान ने अपने ईश्वर की अपने ही रूप में कल्पना की। इसी तरह नायक भी लोगों के अंतर्मन के मूर्त रूप होते हैं। यदि मोदी, ट्रंप या नेतन्याहू नायक हैं तो इसलिए कि उनके समर्थक भी भीतर से वैसे ही हैं। मोदी, ट्रंप और नेतन्याहू का मानव द्वेष, खून-पिपासा और सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की प्रवृत्ति लोगों की इसी तरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति मात्र है। 

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आजादी के आस-पास कांग्रेस पार्टी से वामपंथियों की विदाई और हिन्दूवादी दक्षिणपंथियों के उसमें बने रहने के निश्चित निहितार्थ थे। ‘आइडिया आव इंडिया’ के लिए भी इसका निश्चित मतलब था। समाजवादी भारत और हिन्दू राष्ट्र के बीच के जिस पूंजीवादी जनतंत्र की चाहना कांग्रेसी नेताओं ने की और जिसे भारत के संविधान में सूत्रबद्ध किया गया उसे हिन्दू राष्ट्र की ओर झुक जाना था। यही नहीं ‘राष्ट्र निर्माण’ के कार्यों का भी इसी के हिसाब से अंजाम होना था। 

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ट्रंप ने ‘अमेरिका प्रथम’ की अपनी नीति के तहत यह घोषणा की है कि वह अमेरिका में आयातित माल में 10 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक तटकर लगाएगा। इससे यूरोपीय साम्राज्यवादियों में खलबली मची हुई है। चीन के साथ व्यापार में वह पहले ही तटकर 60 प्रतिशत से ज्यादा लगा चुका था। बदले में चीन ने भी तटकर बढ़ा दिया था। इससे भी पश्चिमी यूरोप के देश और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के बीच एकता कमजोर हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अपने पिछले राष्ट्रपतित्व काल में ट्रंप ने नाटो देशों को धमकी दी थी कि यूरोप की सुरक्षा में अमेरिका ज्यादा खर्च क्यों कर रहा है। उन्होंने धमकी भरे स्वर में मांग की थी कि हर नाटो देश अपनी जीडीपी का 2 प्रतिशत नाटो पर खर्च करे।

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ब्रिक्स+ के इस शिखर सम्मेलन से अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती है कि इसके प्रयासों की सफलता से अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो सकते हैं और दुनिया का शक्ति संतुलन बदलकर अन्य साम्राज्यवादी ताकतों- विशेष तौर पर चीन और रूस- के पक्ष में जा सकता है। लेकिन इसका भी रास्ता बड़ी टकराहटों और लड़ाईयों से होकर गुजरता है। अमरीकी साम्राज्यवादी अपने वर्चस्व को कायम रखने की पूरी कोशिश करेंगे। कोई भी शोषक वर्ग या आधिपत्यकारी ताकत इतिहास के मंच से अपने आप और चुपचाप नहीं हटती।