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‘‘वो एक रात मेरी जिंदगी बन गई... मैं कुछ भी कर लूं, कहीं चली जाऊं, कुछ भी सोच लूं पर वो रात मेरा पीछा नहीं छोड़ती... वो मेरे साथ हर वक्त रहती है... चाहे मैं नमाज पढ़ूं, खाना बनाऊं, या खुद को खूब साफ कर लूं.. वो एक रात हर वक्त मेरे साथ रहती है... मैंने कभी शादी नहीं की.. ऐसा नहीं है कि मैं करना नहीं चाहती लेकिन मेरी सेहत मुझे इजाजत नहीं देती... मैं शादी करने लायक नहीं हूं... मैं कुनन-पाशपोरा की रेप सर्वाइवर हूं... मैं सांस ले रही हूं, पर जिंदा नहीं हूं।’’
ऐसी कई आप बीतियां हैं जो 23-24 फरवरी 1991 की रात जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा जिले के कुनन और पोशपोरा गांवों में दर्ज की गईं।
सामूहिक बलात्कार के अनगिनत मामले दर्ज हैं। सबसे कुख्यात मामला 23-24 फरवरी 1991 की रात जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा जिले के कुनन और पोशपोरा गांवों का है जब इंडियन आर्मी के 4 राजपूताना राइफल्स के सैनिक गश्ती के दौरान इन दोनों गांवों में पहुंचे और मर्दों को बंधक बनाकर 23 से 40 मुस्लिम औरतों के साथ सामूहिक बलात्कार किया.. किसी-किसी के साथ तो 8-10 बार.. इनमें 70 साल की बुज़ुर्ग से लेकर 14 साल की लड़की और गर्भवती महिलाएं तक शामिल हैं। मानवाधिकार संगठन ऐसी औरतों की तादाद 100 बताते हैं।
इतना ही नहीं, इस वहशीपन के बाद सैनिकों ने गांव के लोगों को बाहर तक नहीं जाने दिया। नतीजा रहा कि उन औरतों की न सिर्फ समय पर मरहम-पट्टी नहीं हो पायी बल्कि इस हैवानियत की पहली FIR वाकये के दो हफ्ते बाद यानी 8 मार्च 1991 को दर्ज हुई।
सरकार ने सितंबर 1991 में मामले को ‘‘आपराधिक मुकदमा चलाने के लिए अयोग्य’’ घोषित कर दिया और एक महीने बाद इसे बंद कर दिया।
2004 में, कथित पीड़ितों में से एक ने मामले की फिर से जांच की मांग करते हुए जम्मू-कश्मीर राज्य मानवाधिकार आयोग से संपर्क किया। 2007 में, अधिक महिलाओं ने SHRC से मामले को फिर से खोलने के लिए कहा। पीड़ितों के लिए न्याय की मांग करने के लिए दोनों गांवों के ग्रामीणों ने 70 वर्षीय गुलाम अहमद डार की अध्यक्षता में कुनान-पोशपोरा समन्वय समिति (केसीसी) का गठन किया।
अक्टूबर 2011 में राज्य मानवाधिकार आयोग ने गांव के पीड़ितों की दलीलें सुनने के बाद मामले को फिर से खोलने के निर्देश दिए। इसने एक विशेष जांच दल के गठन, पीड़ितों को लगभग 4,000 डालर का मौद्रिक मुआवजा और मामले को बंद करने का आदेश देने वाले मुख्य अभियोजक के खिलाफ मुकदमा चलाने की सिफारिश की। पर राज्य सरकार ने कहा कि राज्य सरकार आयोग के निर्देश मानने के लिए बाध्य नहीं है।
सरकारों ने 22 वर्षों तक इस जघन्य मानवाधिकार अपराध पर सफलतापूर्वक न्याय को रोके रखा, लेकिन 2013 में कुनन पोशपोरा की सालगिरह पर, जम्मू और कश्मीर गठबंधन नागरिक समाज (JKCCS) के तले यौन हिंसा के मामलों का दस्तावेजीकरण करने वाली समरीना मुश्ताक ने अन्य कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय में मामले को फिर से खोलने के लिए एक रिट याचिका दायर की जिसमें आरोप लगाया गया था कि 30 से ज्यादा महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया है। आरोप साबित नहीं हुए और मुकदमे में कोई प्रगति नहीं हुई।
उच्च न्यायालय ने कहा कि उसे उम्मीद थी कि जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा नियुक्त समिति एसएचआरसी की सिफारिशों की जांच करेगी और उन्हें जल्दी से लागू करेगी।
इसी बीच दिसंबर 2012 में निर्भया सामूहिक बलात्कार पर जनता की प्रतिक्रिया से प्रेरित होकर साल 2016 में पांच कश्मीरी महिलाओं एस्सार बतूल, इफरा बट, मुनाजा राशिद, नताशा राथर और समरीना मुश्ताक ने अपराध के चरित्र और भारतीय राज्य और सशस्त्र बलों द्वारा कवर-अप के बारे में खुलासा करते हुए ‘‘क्या आपको कुनन पोशपोरा याद है?’’ लिखा। यह पुस्तक भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा कथित 1991 के सामूहिक बलात्कार से संबंधित है।
कार्यकर्ताओं ने 23 फरवरी को ‘कश्मीरी महिला प्रतिरोध दिवस’ के रूप में भी नामित किया है, ताकि कानूनी कार्रवाई के साथ-साथ राजनीतिक कार्रवाई भी की जा सके।
दिसंबर 2017 में, जम्मू-कश्मीर सरकार ने उच्च न्यायालय के आदेशों के खिलाफ भारत के सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। शीर्ष अदालत ने निर्देश दिया कि अपीलों पर शीघ्र सुनवाई की जानी चाहिए। पर इस मामले में कोई खास प्रगति नहीं हुई।
34 साल बाद सामूहिक बलात्कार की शिकार कई महिलाओं की मौत के बावजूद आज भी वे इंसाफ से महरूम हैं। लेकिन इंसाफ के लिए कश्मीरी औरतों का संघर्ष कमजोर नहीं हुआ है। वे वर्ष 2014 से हर 23 फरवरी को ‘कश्मीरी वीमेन्स रेसिस्टेंस डे’ के तौर पर मनाती आ रही हैं।