कॉप-28 : जलवायु परिवर्तन रोकने का पाखण्ड

30 नवम्बर से 12 दिसम्बर 2023 तक दुबई में लगभग 200 देश जलवायु परिवर्तन पर घड़ियाली आंसू बहाने के लिए इकट्ठा हो रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में 1995 से हर वर्ष जलवायु परिवर्तन रोकने के नाम पर यह जमावड़ा हो रहा है। इस जमावड़े में विभिन्न देशों की सरकारों के प्रतिनिधियों, संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं के प्रतिनिधि, एनजीओ व विभिन्न कम्पनियां भागीदारी करती रही हैं। जमावड़े में जलवायु परिवर्तन को थामने के लिए बड़े-बड़े आह्वान किये जाते हैं। कभी-कभी साझा वक्तव्य व कुछ समझौते भी किये जाते हैं। पर जमावड़ा खत्म होते ही फिर सारे देश अपनी-अपनी राह पर चल पड़ते हैं और अगले वर्ष के जमावड़े के वक्त पाया जाता है कि कोई भी अपने द्वारा किये वायदों-समझौतों को निभाने को तैयार नहीं है। 
    
जलवायु परिवर्तन की समस्या आज मानवता के सामने एक गम्भीर वास्तविक समस्या के बतौर मुंह बाये खड़ी है। इस समस्या के विभिन्न आयाम हैं। बीते 200 वर्षों के पूंजीवादी विकास ने प्रकृति और पर्यावरण को जिस तरह चौपट किया है उससे वैश्विक तापमान औद्योगीकरण पूर्व की दुनिया की तुलना में लगातार बढ़ रहा है। जीवाश्म ईंधनों का निरंतर अंधाधुंध उपयोग, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन, जंगलों का बड़े पैमाने पर कटान आदि गतिविधियों के चलते पर्यावरण बुरी तरह से प्रदूषित हो रहा है। बढ़ता शहरीकरण, औद्योगिक प्रदूषण, खेती में विभिन्न रसायनों-उर्वरकों के उपयोग आदि से जल, थल, वायु कोई भी प्रदूषित होने से नहीं बचे हैं। वैश्विक तापमान वृद्धि से समुद्र के जल स्तर के ऊपर उठने, पहाड़ों की बर्फ पिघलने व कई समुद्र तटीय इलाकों के समुद्र में समा जाने का खतरा पैदा हो गया है। यह खतरा मानव जाति के सम्मुख गम्भीर चुनौती के बतौर खड़ा हो चुका है। 
    
पूंजीवादी विकास का चरित्र ही कुछ ऐसा होता है कि मुनाफे के लिए परस्पर होड़ करती कंपनियां प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करने के साथ पर्यावरण को निरन्तर चौपट करती जाती हैं। बीते 200 वर्षों के औद्योगिक विकास ने प्रकृति को काफी हद तक तहस-नहस कर डाला है। इस समस्या के लिए दुनिया भर के साम्राज्यवादी मुल्क पहले नम्बर पर जिम्मेदार रहे हैं। अमेरिका-पश्चिमी यूरोप के साम्राज्यवादी औद्योगीकरण की राह पर बढ़ने वालों में अग्रणी रहे हैं और बीते 200 वर्षों में इन्होंने ही प्रकृति का सर्वाधिक अंधाधुंध दोहन किया है। आज भी पर्यावरण को यही सबसे ज्यादा प्रदूषित कर रहे हैं। इसके साथ ही पूंजीवादी विकास की दौड़ में देर से शामिल हुए गरीब मुल्कों के पूंजीपति भी अपनी बारी में इस समस्या के छोटे भागीदार बन चुके हैं। ये भी आज अपने प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन कर रहे हैं। 
    
पूंजीवाद में पूंजीपतियों के बीच की होड़, साम्राज्यवादी ताकतों व गरीब मुल्कों का अंतरविरोध, लगातार बढ़ता शहरीकरण आदि कुछ ऐसी चीजें हैं जो प्रकृति व पर्यावरण को लगातार नुकसान पहुंचाने की ओर ले जाती हैं। पूंजीवादी व्यवस्था में इसके इतर कुछ और हो भी नहीं सकता है। हां, जैसे-जैसे पर्यावरण संकट की समस्या पटल पर आती गयी है वैसे-वैसे शासक वर्ग इस समस्या को हल करने के लिए तत्पर होने का ढिंढोरा पीटने को जरूर बाध्य हुआ है। तमाम एनजीओ इस समस्या पर सक्रिय किये गये। अंतर्राष्ट्रीय संस्थायें समस्या पर घड़ियाली आंसू बहाने लगीं। संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में हर वर्ष की कॉप बैठकें भी इसी कड़़ी में एक कदम रही हैं जहां दुनिया भर की ताकतें इकट्ठा कर समस्या पर चिंता व्यक्त करने की नौटंकी करती हैं। वे इस बात का दुनिया की जनता को भरोसा दिलाने की कोशिश करती हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था में मिलकर इस समस्या से निपटा जा सकता है। जबकि वास्तविकता यही है और बीते 27 वर्षों का अनुभव भी यही दिखाता है कि पूंजीवादी-साम्राज्यवादी दुनिया में इस पर घड़ियाली आंसू तो शासक बहा सकते हैं पर समस्या के समाधान के लिए कुछ नहीं करते। अक्सर ही कॉप बैठकें एक-दूसरे पर दोषारोपण का अड्डा बनती रही हैं। ये सारी बातें इसी ओर इशारा करती हैं कि पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के रहते इस समस्या को तनिक भी हल नहीं किया जा सकता है। कि पूंजीवादी व्यवस्था के अंत के बाद कायम होने वाली समाजवादी व्यवस्था में ही ऐसी परिस्थितियां पैदा होंगी कि मनुष्य प्रकृति के दोहन के साथ इस दोहन से उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों पर आसानी से लगाम लगा सकेगा। 
    
शासक वर्ग अपने द्वारा पाले-पोषे एनजीओ व तमाम अन्य जरियों से पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन की समस्या को एक वर्गेतर समस्या के रूप में भी पेश करता रहा है। वह समस्त मानव जाति को इसका दोषी ठहराता रहा है। जबकि वास्तविकता इसके एकदम उलट है। इस समस्या के लिए पूर्णतया दुनिया भर के साम्राज्यवादी-पूंजीवादी शासक दोषी हैं और आम मेहनतकश जनता इस समस्या के लिए कहीं से भी जिम्मेदार न होने के बावजूद समस्या की सर्वाधिक शिकार बनती रही है। 
    
संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में बीती 27 बैठकों की कुल उपलब्धि महज इतनी रही है कि 1997 में जापान में हुई बैठक में क्योटो प्रोटोकाल स्वीकारा गया जिसमें अमीर देशों ने अपने कार्बन उत्सर्जन में कमी करने पर सहमति दी। इसी तरह 2015 की पेरिस बैठक में पेरिस समझौता हुआ जिसमें सारे देशों ने धरती का तापमान पूर्व औद्योगिक युग की तुलना में 1.5 डिग्री सेन्टीग्रेड से अधिक न बढ़ने का संकल्प व्यक्त किया और 2021 की बैठक में देशों ने कार्बन उत्सर्जन घटाने के बड़े वायदे किये पर उन्हें लागू नहीं किया। 2022 की बैठक में एक ‘लॉस एण्ड डैमेज फण्ड’ बनाने की बात हुई जो अमीर देशों द्वारा गरीब मुल्कों को इस बात के मुआवजे के बतौर देना था कि वे पूंजीवादी विकास में देर से आने के बावजूद कार्बन उर्त्सजन कम करेंगे। यह फण्ड 100 अरब डालर सालाना बनाने की बातें हुईं। जबकि अलग-अलग अनुमानों के तहत यह फण्ड न्यूनतम 2-3 हजार अरब डालर होने की जरूरत बताई गयी है। 
    
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टें हर बैठक के वक्त यह भ्रम फैलाने का काम करती रही हैं कि इन बैठकों से निर्धारित लक्ष्य तो हासिल नहीं हो रहे हैं पर समस्या को सुलझाने की दिशा में कुछ प्रयास जरूर किये जा रहे हैं। इस वर्ष जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि इन बैठकों से पूर्व इस सदी के अंत तक दुनिया 1800 की तुलना में 4 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान वृद्धि की राह पर थी वर्तमान में 2.5 डिग्री सेन्टीग्रेड वृद्धि की राह पर है और 1.5 डिग्री सेन्टीग्रेड का लक्ष्य फिसलता जा रहा है। 
    
मौजूदा बैठक एक ऐसे देश में हो रही है जो खुद पैट्रोलियम का बड़ा उत्पादक व निर्यातक रहा है। संयुक्त अरब अमीरात के दुबई में इस बैठक की मेजबानी सुल्तान अल जबेर करेंगे जो अबूधाबी नेशनल आयल कारपोरेशन के मुख्य एक्जीक्यूटिव भी हैं। इस तरह एक तेल उत्पादक कम्पनी का मुखिया ऐसी बैठक की मेजबानी करेगा जो पर्यावरण संरक्षण व जलवायु परिवर्तन की रोकथाम हेतु पैट्रोलियम के कम उपयोग पर चर्चा करेगा। बातें तो यहां तक की जा रही हैं कि बैठक में आने वाली पैट्रोलियम कम्पनियां पैट्रोलियम बिक्री के नये करार इस बैठक के जरिये हासिल करना चाह रही हैं। यहां होने वाले जमावड़े में वैज्ञानिक, पर्यावरणविद, एनजीओ, देशों के मुखिया, तेल कम्पनियां, व्यवसायिक घराने, नवीकृत ऊर्जा कम्पनियां, युवा-स्त्री-वंचितों के संगठन आदि सभी मौजूद होंगे। 
    
इस बार एजेण्डे में लास एण्ड डैमेज फण्ड के अलावा जन-स्वास्थ्य, संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2 वर्ष की प्रगति रिपोर्ट ग्लोबल स्टाकटेक आदि चर्चा के प्रमुख मुद्दे रहेंगे। सभी अंतर्राष्ट्रीय मंचों की तरह इस बैठक पर भी बढ़ते साम्राज्यवादी अंतरविरोध असर डालेंगे। रूस-यूक्रेन युद्ध व हमास-इजरायल युद्ध का असर बैठक में देखने को मिलेगा। अमेरिका-चीन की साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा के चलते बैठक किसी कारगर नतीजे पर पहुंचेगी इसकी संभावना कम ही है। अगर कोई दिखावटी समझौता हो भी जाता है तो कोई देश पहले की तरह उस पर चलेगा नहीं। साम्राज्यवादी मुल्क जहां एक ओर परस्पर एक-दूसरे को संकट के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे होंगे तो वहीं मिलकर गरीब मुल्कों को कम कार्बन उत्सर्जन के लिए धमकाने का भी काम कर रहे होंगे। पूंजीवादी मीडिया पूरी मेहनत से इस पाखण्डी समारोह को जलवायु परिवर्तन रोकने की वास्तविक कोशिश बता पेश कर रहा होगा और पूंजीवादी व्यवस्था में इस समस्या के सुलझाये जाने का भ्रम स्थापित कर रहा होगा। 
    
हां बैठक के नाम पर जमा होने वाले 40-50 हजार लोगों के इंतजाम में ही बड़े पैमाने पर कार्बन उत्सर्जन से लेकर प्रदूषण का इंतजाम किया जा रहा होगा। शासक वर्ग के लोग-कंपनियां पाखण्ड कर चले जायेंगे व गरीब मजदूर-मेहनतकश उनके द्वारा पैदा किये प्रदूषण-गंदगी का बोझ उठायेंगे। पहले भी यही होता रहा है कि जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, बीमारियों का बोझ गरीब जनता को उठाना पड़ता रहा है। आगे भी यही होगा। ऐसे में इस कॉप-28 से कोई उम्मीद पालने के बजाय मेहनतकश जनता पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष तेज कर ही बेहतर जीवन की ओर कदम बढ़ा सकती है। 

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