लोकसभा चुनाव परिणामों के निहितार्थ

2024 के लोकसभा चुनाव के परिणामों ने आसमान पर उड़़ने वाले दैवीय या नानबायोलाजिकल प्रधानमंत्री को गठबंधन राजनीति की बेहद खुरदरी जमीन पर ला पटका है। वे अभी भी पुरानी मुद्रा अख्तियार करने की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं पर सफल नहीं हो पा रहे हैं। विरोधी उनकी इस दुर्गति पर खासे प्रसन्न हैं। 
    
और साथ ही प्रसन्न हैं उदारवादी और वाम-उदारवादी। वे इंडिया गठबंधन की हार में भी जीत देख रहे हैं और मोदी-भाजपा की जीत में भी हार। उन्हें लगता है कि हिन्दू फासीवादियों के चंगुल से देश की मुक्ति की शुरूआत हो गई है।
    
इन चुनावों में हिन्दू फासीवादियों की किसी हद तक दुर्गति पर खुश होना स्वाभाविक है, खासकर चुनाव पूर्व के माहौल को देखते हुए। यदि वे वास्तव में अपने दावों के अनुरूप जनमत पा जाते तो वह वाकई बेहद चिंता का समय होता। तब शायद वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सौंवी जयंती पर अपने हिन्दू राष्ट्र के सपने को यथार्थ में बदलने की ओर बढ़ जाते। यह खतरा हाल-फिलहाल टल गया है। यह अच्छी बात है। 
    
लेकिन इन चुनाव परिणामों का एक दूसरा संकेत है जो चिंता का विषय बनता है। वह यह कि किसी हद तक हार के बावजूद हिन्दू फासीवादियों का देशव्यापी आधार कम नहीं हुआ है। इसके विपरीत किसी हद तक यह व्यापक हुआ है। 
    
2024 के चुनाव में भाजपा को कुल 36.6 प्रतिशत मत मिले। यह 2019 के 37.4 प्रतिशत के लगभग बराबर ही हैं। यानी मतों में गिरावट एक प्रतिशत से भी कम है। पर यह आंकड़ा एक महत्वपूर्ण तथ्य को छिपा देता है। उत्तर भारत के लगभग सभी प्रदेशों में भाजपा के मतों में आठ-दस प्रतिशत की गिरावट आई। पर इसकी भरपाई ओड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु तथा केरल से हो गई। केरल में पहली बार भाजपा एक सीट जीतने में कामयाब हो गई। ओड़ीसा में न केवल इसकी सीटों की संख्या बढ़ी बल्कि उसने पहली बार प्रदेश में सरकार बना ली। आंध्र में भी इसने अपनी स्थिति बेहतर की। तेलंगाना में विधान सभा चुनावों से उलट इसने काफी बेहतर स्थिति हासिल की। तमिलनाडु में इसे भले कोई सीट न मिली हो पर इसके मतों में इजाफा हुआ। 
    
अभी चुनावों के पहले तक कहा जा रहा था कि भाजपा दक्षिण भारत में प्रवेश करने में अक्षम रही है। कि दक्षिण भारत के अपेक्षाकृत विकसित और सांस्कृतिक तौर पर बेहतर स्थिति वाले प्रदेशों में भाजपा का प्रसार मुश्किल है। कि यह उत्तर भारत के पिछड़े जाहिल राज्य ही हैं जो संघ की बर्बर विचारधारा को जगह देते हैं। यह कहने वाले भूल जाते हैं कि संघ के हिन्दुत्व की प्रयोगशाला गुजरात देश का अपेक्षाकृत विकसित प्रदेश है। कि दक्षिण भारत के कर्नाटक में भाजपा ने पहले ही जगह बना ली थी। कि बिहार में अभी तक भाजपा अपने बूते पर सत्ता में नहीं आ सकी है। 
    
अब दक्षिण भारत में हिन्दू फासीवादियों के प्रसार की मुश्किलों का मिथक टूट गया है। इसे इस तथ्य से हलका नहीं किया जा सकता कि इन प्रदेशों में भाजपा को स्थानीय हितों से समझौता करना पड़ रहा है। अपने लक्ष्य और रणनीति पर कायम रहते हुए हिन्दू फासीवादी भांति-भांति का रणकौशल अपनाते रहे हैं। वे केरल में ईसाइयों से तालमेल बैठा सकते हैं और ओड़ीसा में ओड़िया अस्मिता की भावना से खेल सकते हैं। एक जमाने में गुजराती अस्मिता वर्तमान दैवीय प्रधानमंत्री का बड़ा हथियार हुआ करता था। 
    
स्पष्ट है कि इन चुनावों ने दिखाया है कि भाजपा और हिन्दू फासीवादियों ने एक राष्ट्रव्यापी आधार हासिल कर लिया है। भाजपा अब वास्तव में राष्ट्रीय पार्टी बन गई है। बस अब एकमात्र कश्मीर है जहां इसका कोई आधार नहीं है। 
    
उपरोक्त तथ्यों का एक निश्चित मतलब है। वह यह कि देश में हिन्दू फासीवाद का खतरा जरा भी कम नहीं हुआ है। वर्तमान चुनाव में किसी हद तक हार से हिन्दू फासीवादी थोड़े हतोत्साहित हुए हैं तथा गठबंधन सरकार की मजबूरियों के चलते वे अपने पंजे और नाखून उस तरह इस्तेमाल नहीं कर सकते पर उनकी सामाजिक ताकत बहुत कम नहीं हुई है। बल्कि एक मायने में तो वह बढ़ी ही है। 
    
यही बात देश के बड़े पूंजीपति वर्ग के बारे में भी कही जा सकती है। इसका कोई संकेत नहीं है कि हिन्दू फासीवादियों को उनके समर्थन में कोई कमी आई है। हिन्दू फासीवादियों के साथ उनका गठबंधन बना हुआ है तथा राजग की सरकार बनने तथा मोदी के फिर से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान होने की स्थिति में इस गठबंधन के ढीला पड़ने की कोई जरूरत या मजबूरी भी नहीं दिखाई देती। 
    
इस तथ्य को बार-बार रेखांकित करने की जरूरत है कि यह बड़ा पूंजीपति वर्ग ही है जिसने मोदी को दिल्ली की गद्दी पर बैठाया। गुजरात में मोदी द्वारा किनारे लगा दिये गये राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने मरे मन से ही मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर स्वीकार किया था तब जब बड़े पूंजीपति वर्ग के प्रचारतंत्र ने इसे लगभग अनिवार्य बना दिया था। मोदी को दिल्ली की गद्दी पर बैठाने के लिए बड़े पूंजीपति वर्ग ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी। उसके नेतृत्व में चलने वाले मध्यम और छोटे पूंजीपति वर्ग ने भी तब इसमें साथ दिया था। नोटबंदी, जीएसटी व लॉकडाउन इत्यादि से इनकी तबाही अभी भविष्य की चीज थी। 
    
तब से लेकर अभी तक बड़ा पूंजीपति वर्ग मोदी को सत्ता में बनाए रखने के लिए हर चंद कोशिश करता रहा है। आखिर करे भी क्यों नहीं? मोदी ने पिछले दस साल में बड़े पूंजीपति वर्ग पर उसी तरह सरकारी खजाना तथा देश की संपदा लुटाई है जैसे उन्होंने गुजरात में मुख्यमंत्री रहते हुए लुटाई थी। इस चुनाव में जिस तरह भाजपा ने पैसा पानी की तरह बहाया तथा जिस तरह बड़े पूंजीपति वर्ग के प्रचारतंत्र ने मोदी व भाजपा के पक्ष में बेशर्मी से प्रचार किया वह स्वयं इनके रिकार्ड को देखते हुए भी अभूतपूर्व था। साथ ही अभूतपूर्व था सरकारी तंत्र का दुरुपयोग और विपक्ष पर दबाव। इन्हीं सब के कारण भाजपा 240 व राजग 293 सीट पा सके। ‘स्वतंत्र व निष्पक्ष’ चुनाव की स्थिति में आंकड़े संभवतः आधे रह जाते। 
    
स्पष्ट है कि भाजपा व राजग के फिर सत्तासीन होने में बड़े पूंजीपति वर्ग का बहुत बड़ा हाथ है। हिन्दू फासीवादियों के अपने ठोस आधार के साथ यही वह कारक है जो उन्हें सत्ता में पहुंचा देता है। यही 2014 व 19 के लिए सच था और यही 2024 के लिए भी सच है। और कोई कारण नहीं है कि बड़ा पूंजीपति वर्ग अपनी सोच व नीति में परिवर्तन करे। 
    
भाजपा के अपने दम पर बहुमत न पाने के कारण कुछ लोग कयास लगा रहे थे कि शायद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ मोदी से मुक्ति पाने में कामयाब हो जाये। पर वे यह भूल गये कि मोदी की असली ताकत बड़े पूंजीपति वर्ग का उन्हें समर्थन है। जब तक यह समर्थन हासिल है तब तक मोदी का प्रधानमंत्री पद सुरक्षित है। तब तक संघ को समझौता कर चलना पड़ेगा। यहां यह याद रखना होगा कि सारी खींचतान के बावजूद मोदी और संघ एक-दूसरे के काम आते रहे हैं। संघ मोदी को समर्पित कार्यकर्ता प्रदान करता रहा है तो मोदी संघ को सरकारी समर्थन। वर्चस्व की लड़ाई में मोदी हावी रहे हैं पर इतना भी नहीं कि संघ के बिना काम चल जाये। केवल पूंजीपति वर्ग का पैसा और प्रचारतंत्र मोदी को चुनाव नहीं जिता सकता। 
    
लेकिन उतना ही सच यह भी है कि बड़े पूंजीपति वर्ग के समर्थन के बिना मोदी चुटकियों में हवा हो जायेंगे। उनकी सबसे बड़ी खासियत बड़े पूंजीपतियों के हितों को साधने में है। ‘जन कल्याण’ की बात और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करते हुए दरअसल सारा कुछ बड़े पूंजीपति वर्ग के लिए करना उनकी वह खासियत रही है जिससे पहले वे बारह साल तक गुजरात के मुख्यमंत्री व फिर दस साल तक देश के प्रधानमंत्री बने रहे। वर्तमान चुनावों ने उनके इस ‘गुजरात माडल’ की सीमा प्रदर्शित की पर अभी भी वह माडल चकनाचूर होने से दूर है। 
    
यहीं से राजग के अन्य घटक दलों और फिर विपक्ष पर आया जा सकता है। राजग के जिन सहयोगी दलों पर यह सरकार टिकी होगी उनकी अवसरवादिता मशहूर है। वे कई बार राजग के बाहर-भीतर कर चुके हैं। उनके नेताओं के बारे में मोदी की तथा उनकी मोदी के बारे में उक्तियां भी उतनी ही मशहूर हैं। इसमें किसी को संदेह नहीं हो सकता कि वे किसी तरह की विचारधारा के प्रति निष्ठावान हैं। उन पर यह दोष नहीं मढ़ा जा सकता। इस पर भी कोई संदेह नहीं कि पिछले तीन दशकों में हिन्दू फासीवादियों को आगे बढ़ाने में उन्होंने काफी मदद की है। 
    
इसलिए इस सरकार के टिके रहने की स्थिति में यह नहीं होगा कि हिन्दू फासीवादी अपना एजेण्डा बदल लेंगे। हां, पिछले दस सालों में इन्होंने जो तांडव किया था, जो नंगा नाच किया था, उसमें कमी आ सकती है। जैसा कि इनके एक समर्थक ने दावा किया है, पिछले दस साल की मूलभूत नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं आयेगा। वैसे यह याद रखना होगा कि चन्द्रबाबू नायडू मोदी से बहुत पहले ही आधुनिक तकनीक वाले विकास पुरुष रह चुके हैं। इन मूलभूत नीतियों के क्रियान्वयन में यदि कोई फेरबदल होता है तो वह सहयोगी दलों की अपनी मजबूरियों से पैदा हो रहा होगा। धर्मनिरपेक्षता, जनतंत्र, संघवाद इत्यादि बस उतना ही जगह पायेंगे जितना इन दलों की जरूरत होगी। हां, मोदी के साथ सौदेबाजी में ये जरूर काफी काम के साबित होंगे। 
    
रही बात इंडिया गठबंधन की तो वह इस समय हार कर भी जीत का जश्न मना रहा है। उसने मोदी की भाजपा को अपने दम पर सत्तारूढ़ होने से रोक दिया है, इसी में उसकी जीत है। किन्हीं स्थितियों में वह सत्तारूढ़ हो सकता है, इस संभावना से उसके मुंह में पानी आ रहा है। 
    
पर इस गठबंधन के दलों का पुराना रिकार्ड दिखाता है कि उनका भी किसी विचारधारा से दूर का नाता है। शिवसेना हिन्दुत्व की मुरीद रह चुकी है और आम आदमी पार्टी घोषित तौर पर विचारधारा से मुक्त पार्टी है। इनमें से ज्यादातर दल या उनके सांसद बाजार में बिकने को तैयार बैठे हैं। खरीद-फरोख्त में मोदी-शाह के संसाधन और महारत को देखते हुए इस गठबंधन के भविष्य के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। 
    
लेकिन यदि ऐसा न भी हो तो भी भारतीय जनतंत्र और मजदूर-मेहनतकश जनता के हालात के संबंध में इस गठबंधन से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। इस गठबंधन की केन्द्र तथा मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने जो चुनावी घोषणा पत्र जारी किया था उसने भ्रमजाल पैदा करने के अलावा कुछ नहीं किया। इस मूल सवाल पर उसने कुछ नहीं कहा कि उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों में क्या वह कोई मूलभूत फेरबदल करेगी? इसके बिना मजदूर-मेहनतकश जनता की जिन्दगी में कोई भी परिवर्तन नहीं होने वाला। इसी तरह उसने भारतीय जनतंत्र को खोखला बनाने वाले कारकों पर कुछ नहीं कहा जिसके लिए अतीत में वह खुद जिम्मेदार रही है। हिन्दू फासीवादी उसी सब को चरम पर पहुंचा रहे हैं जिसे कांग्रेसी अतीत में स्वयं करते रहे हैं। बाकी दलों के बारे में जितना कम कहा जाये उतना अच्छा है। 
    
सत्ता से दूर रह जाने के कारण इस गठबंधन का भ्रमजाल आगे बना रह सकता है। यदि यह आंतरिक खींचतान और मोदी-शाह की खरीद-फरोख्त का शिकार नहीं हुआ तो पांच साल बाद सत्ता में भी आ सकता है। पर वह उसी हश्र को प्राप्त होगा जिसे संप्रग प्राप्त हुआ जब वह 2004 से 2014 के बीच सत्तारूढ़ रहा। तब शायद एक बार फिर हिन्दू फासीवादी और ज्यादा ताकत से सत्ता में पुनर्वापसी करें जैसा उन्होंने 2014 में किया था। 
    
कुछ भलेमानस सोचते हैं कि भारत अपनी बनावट या सांस्कृतिक विरासत के कारण नाजी जर्मनी की स्थिति में नहीं पहुंच सकता। ये भलेमानस भूल जाते हैं कि जनवरी, 1933 में हिटलर के सत्तारूढ़ होने तक जर्मनी के उदारवादी भी ऐसा ही सोचते थे। वे सोचते थे कि जर्मनी जैसा सभ्य-सुसंस्कृत समाज हिटलर की जाहिल बर्बरता का शिकार नहीं हो सकता। उदारवादी राजनेताओं ने हिटलर को चांसलर यह सोचकर बनाया था कि सत्ता से बांधकर वे उसे पालतू बना लेंगे। लेकिन वास्तव में क्या हुआ, इतिहास के हवाले से सारी दुनिया को पता है। 
    
भारत में इसका छोटा सा शुरूआती नमूना गुजरात में देखा जा सकता है। ‘गुजरात माडल’ इसी का दूसरा नाम है। इस मामले में किसी भी तरह का भ्रम देश-समाज के लिए आत्मघाती होगा। 
    
स्पष्ट है कि हिन्दू फासीवाद का खतरा अभी भी उतना ही गंभीर रूप में मौजूद है। यह भी स्पष्ट है कि इसे चुनौती न तो राजग के भीतर के अन्य दलों से मिल सकती है और न ही इंडिया गठबंधन से। इसे वास्तव में चुनौती केवल मजदूर-मेहनतकश जनता से ही मिल सकती है।
    
अभी इस चुनाव में पूंजीवादी जनतंत्र के दायरे में हिन्दू फासीवाद को एक सीमित झटका मजदूर-मेहनतकश जनता ने ही दिया। यह मजदूर-मेहनतकश जनता ही थी जिसने खुले साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का शिकार होने से इंकार किया। यह मजदूर-मेहनतकश जनता ही थी जिसने पांच किलो मुफ्त राशन को नकार कर रोजगार और महंगाई को चुनावी एजेण्डे पर धकेला। यह मजदूर-मेहनतकश जनता ही थी जिसने भारत के टूटे-फूटे पूंजीवादी जनतंत्र को भी ध्वस्त करने के हिन्दू फासीवादी मंसूबों को पहचाना और इसे निरस्त करने के लिए आगे बढ़ी। यह मजदूर-मेहनतकश जनता ही थी जिसने निराश-पस्तहिम्मत विपक्षी पार्टियों में जान फूंकी। अंत में यह मजदूर-मेहनतकश जनता ही थी जिसने दैवीय व नानबायोलाजिकल हो चुके संघी प्रचारक को बताया कि वह अदना सा नेता ही है।
    
जरूरत है कि इस मजदूर-मेहनतकश जनता को पूंजीवादी जनतंत्र और पूंजीवादी व्यवस्था की सीमाओं को समझने में सक्षम बनाया जाये। उसके लिए स्पष्ट किया जाये कि कैसे आज इस व्यवस्था ने हिन्दू फासीवाद को अपनी रक्षा का औजार बना रखा है। कि मुक्ति संविधान की रक्षा में नहीं मजदूरों-मेहनतकशों की व्यवस्था कायम करने वाले इंकलाब में है।

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