मनरेगा : उपेक्षा की शिकार योजना

मनरेगा योजना आज के समय में शासक वर्ग के लिए एक ऐसी हड्डी बन चुकी है जिसे शासक मजबूरी वश ही बनाये हुए है। पूंजीपतियों की मन की बात बहुत बढ़िया से समझने वाले मोदी और भाजपा इस योजना को बंद करना चाहते हैं लेकिन भारत में भारी भुखमरी की स्थिति के कारण मोदी सरकार इस योजना को जारी रखने के लिए मजबूर हुई। कोरोना काल में उसे इस योजना के मद में बजट आवंटन बढ़ाना पड़ा। अब एक बार फिर से इस योजना के मद में शासक वर्ग द्वारा कटौती चर्चा का विषय बन चुकी है।
    
2023-24 के लिए मनरेगा का बजट 60,000 करोड़ रखा गया जो संशोधित अनुमान 89,400 करोड़ से काफी कम था। सरकार का कहना है कि अगर जरूरत पड़ेगी तो और बजट उपलब्ध करा दिया जायेगा। 2023-24 के लिए आवंटित राशि जी डी पी का महज़ 0.2 प्रतिशत है। जबकि 2008 से 2011 तक आवंटित राशि जी डी पी का 0.4 प्रतिशत रही है (हालांकि यह राशि भी काफी कम थी)।
    
जब मनरेगा योजना 2005 में लागू की गयी थी तब इसका उद्देश्य गांव से शहरों की तरफ पलायन को रोकना था। और गांवों में पसरी कंगाली, बदहाली को रोकने के नाम पर यह बेहद अल्प सुधार शासकों ने किया। शासकों को यह भी डर था कि कहीं कंगाल, बदहाल लोग हमारी व्यवस्था पर ही न भड़क जाएं। इसलिए भी उन पर मनरेगा के नाम पर राहत के कुछ छीटें मारे गए। इस योजना के तहत साल में 100 दिन के काम की गारंटी की गयी थी और आवेदन करने के 15 दिन के अंदर काम न मिलने पर बेरोजगारी भत्ता दिया जाना था। लेकिन कितने लोगों को बेरोजगारी भत्ता अभी तक मिला है यह पता नहीं है। शुरू में कुछ जिलों में लागू कर इसे 2008 में पूरे देश में लागू कर दिया गया था। 
    
शासक वर्ग का एक हिस्सा मनरेगा को लेकर काफी आशान्वित रहा है और इससे गांव के अंदर बेरोजगारी को दूर कर सामाजिक-आर्थिक गैर बराबरी ख़त्म कर समानता लाने की बात करता रहा है। लेकिन इस योजना को लागू करने का मकसद साफ था कि गांव में काम न मिलने की स्थिति में बड़ी आबादी जो शहरों की तरफ पलायन कर रही थी उसे गांव में ही रोक कर रखा जाये। गांव के असन्तोष को थामा जाए, उसे शहर न पहुंचने दिया जाए। उद्योगों में उत्पादन का कम होना इस आबादी के लिए रोजगार के अवसर बढ़ा नहीं रहा था और अतिरिक्त आबादी शहर के संसाधनों पर बोझ की तरह लग रही थी। 
    
अतः इस आबादी को गांव में ही रोके रखने के लिये मनरेगा योजना चालू की गयी थी और 100 दिन के काम की गारंटी की बात की गयी। इस योजना को चर्चा कोरोना काल में लॉकडाउन के समय सबसे ज्यादा मिली जब मजदूर शहरों से अपने गांव लौटे। तब परिस्थितियों को देखकर मनरेगा का बजट 2020-21 के लिए 1,11,500 करोड़ रुपये तक बढ़ाया गया।
    
लेकिन पूंजीवाद में जनता को मिलने वाला कोई भी राहत खर्च पूंजीपतियों को चुभता रहा है। वह तो सारी राहत खुद के लिए चाहता है। इसलिये लगातार मनरेगा के बजट में कमी की जा रही है। जॉब कार्ड रद्द किये जा रहे हैं। जो काम मजदूर कर रहे हैं उसका भुगतान नहीं किया जा रहा है। भ्रष्टाचार कम करने के नाम निगरानी तंत्र बढ़ाया जा रहा है और सुपरवाइजरों को बोला गया है कि वे दिन में दो बार हाजिरी की डिटेल व्हाट्सएप पर भेजें।
    
मनरेगा योजना के लागू होने में भ्रष्टाचार भी होता है। इस भ्रष्टाचार का बड़ा हिस्सा प्रधान, नेता, अफसरों की जेबों में जाता है। मनरेगा में मौजूद भ्रष्टाचार पूंजीवादी व्यवस्था की अमानवीयता को ही दिखाता है। कि इस व्यवस्था के नेता-अफसर गरीब की थाली की सूखी रोटी भी हड़प जा रहे हैं। मनरेगा को भ्रष्टाचार के नाम पर सीमित करते हुए खत्म कर देने की मोदी सरकार की साजिश तो मर्ज को खत्म करने के नाम पर मरीज को ही खत्म करने वाली है।

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