
पिछले महीनों में देश के अलग-अलग हिस्सों से कई बड़े ठग पकड़े गये हैं। इनकी विशेषता यह है कि ये नेताओं, व्यवसाईयों तथा सरकारी अफसरों को अपना निशाना बना रहे थे। कोई मंत्री बनवाने का लालच दे रहा था तो कोई बड़े ठेके। ये सत्ता के गलियारों में एकदम ऊपर तक पहुंच का दावा करते थे। एकाध ने तो स्वयं को प्रधानमंत्री कार्यालय का अफसर तक बता दिया।
इन ठगों के संबंध में सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि ये ठग सफल क्यों हो रहे थे? क्यों लोग इन्हें सत्ता के गलियारों में ऊपर तक पहुंच रखने वाला दलाल मान ले रहे थे? क्यों वे इनके बारे में सामान्य सी छान-बीन भी नहीं कर रहे थे। ठग समाज में तब से हैं जब से निजी सम्पत्ति पैदा हुई है। लेकिन वे आम लोगों को ठगते रहे थे। अब खुद बेहद घाघ लोगों को भी ठगने वाले कहां से पैदा हो गये?
इसका उत्तर उस संस्कृति से है जो केन्द्र में हिन्दू फासीवादियों के पिछले नौ साल के शासन में पैदा हुई है। यह उसी का पूरे देश के पैमाने पर और नीचे तक विस्तार और प्रसार है जिसके जरिये गौतम अडाणी देश के पहले या दूसरे नंबर के व्यवसायी बन गये। यह अकारण नहीं है कि इन ठगों में कईयों का संबंध गुजरात से है। यह ठगी का गुजरात माडल है जो विकास के गुजरात माडल का अहम हिस्सा है। यह भी अकारण नहीं है कि आज प्रधानमंत्री कार्यालय समेत ऊपरी नौकरशाही में गुजरात के नौकरशाह भरे पड़े हैं।
फासीवादी शासन की यह विशेषता होती है कि इसमें भ्रष्टाचार बहुत बढ़ जाता है। वह सीधा सा इस कारण होता है कि पूंजीवाद में भ्रष्टाचार पर लगाम रखने वाली सरकारी संस्थाओं की स्वायत्तता यहां समाप्त हो जाती है। वे फासीवादी शासकों के हाथों का खिलौना बन कर रह जाती हैं।
फासीवादी सत्ता में आने के लिए भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाते हैं। पूंजीवाद में भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता को लुभाने के लिए वे भ्रष्टाचार के खात्मे का दम भरते हैं। इसमें उनका निशाना वह खुदरा भ्रष्टाचार होता है जिसका आम जनता को रोज-रोज सामना करना पड़ता है। वे पूंजीवाद में थोक भ्रष्टाचार अथवा कानूनी भ्रष्टाचार को ज्यादा मुद्दा नहीं बनाते।
सत्तानशीन हो जाने के बाद वे खुदरा भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ कार्रवाई का दिखावा करते हैं। जन समर्थन के लिए यह जरूरी होता है। दूसरी ओर वे थोक भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं। इसी के साथ कानूनी भ्रष्टाचार आसमान छूने लगता है। यह उन बड़े पूंजीपतियों की सेवा के लिए होता है जिन्होंने उन्हें गद्दी पर बैठाया होता है। कानूनी भ्रष्टाचार बड़े पूंजीपतियों को प्रोत्साहन के नाम सरकारी खजाने को उनके ऊपर लुटाता है।
फासीवादी शासन में दो चीजें एक साथ होती हैं। एक तो भ्रष्टाचार पहले से बहुत बढ़ जाता है। दूसरे सरकार घोषित कर देती है कि भ्रष्टाचार खत्म हो गया है। इससे भ्रष्टाचारियों को खुली छूट मिल जाती है क्योंकि भ्रष्टाचार उजागर होने पर सरकार स्वयं ही उन्हें बचाने के लिए आगे आयेगी। वह यह स्वीकार नहीं करेगी कि भ्रष्टाचार हो रहा है।
ऐसे में वह वातावरण बन जाता है जिसमें ऊपर से नीचे तक सत्ता के गलियारों में दलालों की बाढ़ आ जाती है। चूंकि फासीवादी तानाशाही ऊपर से नीचे तक होती है, इसलिए कोई भी किसी भी स्तर पर सवाल पूछने की हिम्मत नहीं कर पाता। इसके उलट सभी इस संस्कृति के आदी हो जाते हैं। सभी मान लेते हैं कि यहां ऐसे ही चलता है। चूंकि यहां सारा कुछ मौखिक चलता है इसलिए किसी से किसी तरह के लिखित दस्तावेज या प्रमाण मांगने की स्थिति नहीं होती। ऐसे में कोई स्वयं को प्रधानमंत्री कार्यालय के दफ्तर का अफसर घोषित कर सकता है और दूसरा उसको चुपचाप मान लेता है।
हिटलर-मुसोलिनी से लेकर आज तक सारे ही फासीवादी या तानाशाही शासनों के दौरान ऐसा ही होता रहा है। भारत में भी ऐसा ही हो रहा है। इस ठग नगरी में भ्रष्टाचार विरोधी सारा अभियान बस राजनीतिक विरोधियों को दबाने का औजार मात्र बन कर रह जाता है। स्वयं भ्रष्टाचार तो आसमान छूता है।